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Tuesday, August 12, 2014

'जब रेप होता है तो धर्म कहाँ जाता है?'

जब रेप होता है तो धर्म कहाँ जाता है?'

 मंगलवार, 12 अगस्त, 2014 को 12:54 IST तक के समाचार

म्यूज़ियम का एक दृश्य
"पाँच पांडवों के लिए पाँच तरह से बिस्तर सजाना पड़ता है लेकिन किसी ने मेरे इस दर्द को समझा ही नहीं क्योंकि महाभारत मेरे नज़रिए से नहीं लिखा गया था!"
बीईंग एसोसिएशन के नाटक 'म्यूज़ियम ऑफ़ स्पीशीज़ इन डेंजर' की मुख्य किरदार प्रधान्या शाहत्री मंच से ऐसे कई पैने संवाद बोलती हैं.
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के सहयोग से मंचित इस नाटक में सीता और द्रौपदी जैसे चरित्रों के माध्यम से महिलाओं की हालत की ओर ध्यान खींचने की कोशिश की है लेखिका और निर्देशक रसिका अगाशे ने.
यूट्यूब पर ये क्लिक करें नाटक देखने के लिए यहां क्लिक करें
रसिका कहती हैं, "सीता को देवी होने के बाद भी अग्नि परीक्षा देनी पड़ी थी और इसे सही भी माना जाता है लेकिन मेरा मानना है कि 'अग्नि परीक्षा' जैसी चीज़ें ही रेप को बढ़ावा देती हैं."

ये विरोध का तरीका है

म्यूज़ियम का एक दृश्य
नाटक में शूर्पणखा पूछती है, "मेरी गलती बस इतनी थी कि मैंने राम से अपने प्यार का इज़हार कर दिया था? इसके लिए मुझे कुरूप बना देना इंसाफ़ है?"
शूर्पणखा सवाल उठाती है, "अगर शादीशुदा आदमी से प्यार करना ग़लत है तो राम के पिता की तीन पत्नियां क्यों थीं?"
रसिका कहती हैं, "16 दिसंबर को दिल्ली गैंगरेप के बाद इंडिया गेट पर मोमबती जलाने और मोर्चा निकालने से बेहतर यही लगा कि लोगों तक अपनी बात को पहुंचाई जाए और इसके लिए इससे अच्छा माध्यम मुझे कोई नहीं लगा."

कट्टरपंथियों का डर नहीं

म्यूज़ियम का एक दृश्य
नाटक में सीता का किरदार निभाने वाली प्रधान्या शाहत्री हैं, "सच से डरना कैसा? ये हमारा विरोध करने का तरीका है और हम जानते हैं, हम ग़लत नहीं हैं."
जब आस्था का मामला आता है तो घर परिवार से भी विरोध होता है. द्रौपदी की भूमिका निभाने वाली किरण ने बताया कैसे घर वाले उनसे नाराज़ हो गए थे.
रसिका का कहना था, "ये पहली बार नहीं है कि किसी ने द्रौपदी और सीता के दर्द को लिखने की कोशिश की है और उस वक़्त धर्म कहाँ जाता है जब किसी लड़की का रेप हो जाता है."

हिंदू सभ्यता पर हमला?

म्यूज़ियम का एक दृश्य
"कुंती ने हमारा सेक्स टाइमटेबल बनाया ताकि किसी भाई को कम या ज़्यादा दिन न मिलें." द्रौपदी जब मंच से ये संवाद बोलती हैं तो तालियां गूंज उठती हैं.
नाटक की सीता पूछती हैं, "लोग पूछेंगे कि सीता का असली प्रेमी कौन था? वो रावण जिसने उसकी हां का इंतज़ार किया या वो राम जिसने उस पर अविश्वास किया?"
सिर्फ़ हिंदू मान्यताओं पर ही छींटाकशी क्यों, इसके जवाब में वह कहती हैं, "हमने ये कहानियां बचपन से सुनी हैं. हमें ये याद हैं और इसलिए हम इसके हर पहलू पर गौर कर सकते हैं."

Monday, July 7, 2014

और मर्दों की दुनिया में कहा जाता है- "औरत ही औरत की दुश्‍मन है।"

कैसे सबसे अच्‍छी दोस्‍त होती है औरतें। कुछ नहीं है औरतों के पास देने के लिए। वो किसी पत्रिका की संपादक नहीं, बड़े प्रकाशनों की सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठी मालिकान नहीं। संस्‍थानों, अकादमियों, समितियों की अध्‍यक्ष नहीं। विश्‍वविद्यालयों की कुलपति नहीं। सत्‍ता के गलियारों में यहां-वहां नहीं घूमा करतीं। कोई ऊंचा, बहुत ऊंचा, सबसे ऊंचा पद नहीं है उनके पास। कम्‍युनिस्‍ट पार्टियों की महासचिव भी नहीं हैं बेचारी। मंत्री, संत्री, कलेक्‍टर के साथ दारू की महफिलों में नहीं नजर आतीं। इसको उठा देने और उसके गिरा देने के षडयंत्रों का हिस्‍सा नहीं हैं औरतें। लोग उन्‍हें झुककर सलाम भी नहीं करते। कुछ भी गुल खिला दें पावरफुल वुमेन, तब भी लोग सिर झुकाएंगे ही, ऐसी माचो मैन भी नहीं हैं। कोई वादा नहीं है उनके पास कि तुमको ये बना दूंगी, वो बना दूंगी। भेजो अपनी कविताएं, मैं छपवा दूंगी। मैं विदेश यात्रा पर भेज दूंगी। संस्‍थानों का कुछ नहीं तो, कम से कम सचिव ही बनवा दूंगी। इस कुर्सी से उस कुर्सी पर पहुंचा दूंगी। घर ही दे दूंगी खरीदकर। ऐश करना। कुछ होने, कुछ बनने, कुछ पाने की महत्‍वाकांक्षाएं पूरी करवा दूंगी।
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कुछ नहीं हैं बेचारी, लेकिन फिर भी सबसे अच्‍छी दोस्‍त हैं। बिटवीन द लाइन वो भी पढ़ लेती हैं, जो कहा ही नहीं गया। "प्रेम ने निचोड़ ली समूची देह, सारा जीवन," सुनकर पुरुष हमारी देह को सुख से भर देने के सीक्रेट माचो मैन अरमानों की कल्‍पना में इतराने लगते हैं और औरतें अकेले अपने कमरे में बैठी रोती हैं, अपने लिए और दूर देश की उन अजनबी औरतों के लिए भी। आंखें देखकर समझ जाती हैं उनकी कहानी। जब सबसे उदास हों दिन, कहीं से नमूदार हो जाती हैं विश्‍वास बनकर। उनका हाथ पकड़ा जा सकता है, बिना इस भय के कि कहीं उनका मकसद आखिरकार आपको बिस्‍तर पर ले जाना तो नहीं। उनके कंधे पर सिर रखकर रोया जा सकता है।
बहनापे के एक अदृश्‍य डोर में बंधी हुई हैं औरतें, 

Friday, February 7, 2014

वैधानिक चेतवानी : इस पोस्ट को पढने से कुछ की भावना आहात हो सकती है


Manisha Pandey
जब मैं इलाहाबाद शहर में बड़ी हो रही थी तो मुझे ऐसा लगता था कि इस धरती पर मेरा जन्‍म इसीलिए हुआ है कि एक दिन मुझे शादी करके दूसरे के घर जाना है और उस दूसरे घर के हिसाब से एडजेस्‍ट करना है, उस दूसरे घर में सबको खुश रखना है, इस घर और उस घर की लाज टाइप किसी चीज को प्रोटेक्‍ट करना है, सबकी नाक बचानी है। इसलिए मुझे उस घर के हिसाब से आज, अभी और इसी घर में सारी तैयारियां शुरू कर देनी चाहिए। जैसेकि उस घर में कैसे चलना चाहिए, कैसा हंसना चाहिए, कैसे बात करनी चाहिए, किससे और कितनी बात करनी चाहिए, कितने डेसीमल में आवाज से गले से बाहर आनी चाहिए, किसके सामने आनी चाहिए और किसके सामने बिलकुल नहीं आनी चाहिए, कितना लजाना चाहिए, कितना दांत दिखाना चाहिए, सबको सिर झुकाकर हां जी, हां जी करना चाहिए, कैसे और क्‍या-क्‍या पकाना चाहिए, खाना पकाते-पकाते आधा बीच में ही नहीं खा लेना चाहिए, खाना बनाते हुए कुछ जूठा नहीं करना चाहिए, हर काम को कितने सलीके से करना चाहिए, जबान नहीं लड़ानी चाहिए, पलटकर जवाब नहीं देना चाहिए, ज्‍यादा घूमने-फिरने का मन नहीं करना चाहिए, ज्‍यादा कूदना नहीं चाहिए, दुपट्टा सलीके से ओढ़ना चाहिए, शरीर को हमेशा खूब ढंककर रखना चाहिए, पीरियड्स के स्‍टेन दिखने नहीं चाहिए, दुनिया में किसी को बताना नहीं चाहिए कि तुम्‍हें पीरियड्स हैं, भाई के दोस्‍तों से बात करने में इंटरेस्‍ट नहीं दिखाना चाहिए, लड़कों और इश्‍क-मुहब्‍बत में तो बिलकुल इंटरेस्‍ट नहीं होना चाहिए, आय लव सेक्‍स तो अपनी अर्थी पर भी मुंह से नहीं निकलना चाहिए, सबकी इज्‍जत करनी चाहिए, चाहे वो आपकी दो कौड़ी की इज्‍जत न करें वगैरह वगैरह वगैरह।
सेव मी। इतना ज्ञान दिया गया है कि अब इस ज्ञान की एक लाइन दादी, नानी, काकी, चाची, बुआ, मौसी, दीदी, भाभी कोई भी बोले तो मैं उत्‍तर प्रदेश में एटम बम गिराने को भी सपोर्ट करूंगी।

Sunday, January 5, 2014

मां बनने की इच्‍छा और जरूरत का सात फेरों से कोई लेना-देना नहीं।


Manisha Pandey
मां बनने की इच्‍छा और जरूरत का सात फेरों से कोई लेना-देना नहीं। ईश्‍वर, धर्म, कोर्ट, कानून, कचहरी, शादी, परिवार, समाज, व्‍यवस्‍था आदि-आदि से भी कोई लेना-देना नहीं। मां बनने की इच्‍छा और जरूरत का लेना-देना है तो सिर्फ हमारे शरीर के हॉर्मोन्‍स से। सात फेरे समाज लगवाए, न लगवाए, हॉर्मोन तो वक्‍त पर अपना काम करते ही हैं।
मैं और मेरी बहुत सारी सहेलियां आज अकेला, आत्‍मनिर्भर जीवन जी रही हैं। शादी नहीं की क्‍योंकि प्रेमी के रूप में हमारे हिस्‍से में ऐसे लड़के आए, जिन्‍हें लगता था कि मर्द होने के नाते उनके पास तमाम विशेषाधिकार सुरक्षित हैं। वो बोलेंगे और हम सुनेंगे। हमारे आजाद व्‍यक्तित्‍व की चमक उन्‍हें डराती थी। उन्‍हें जींस पहनने वाली, अंग्रेजी बोलने वाली, पैसे कमाने वाली, इंटेलेक्‍चुअल लड़की तो चाहिए थी, लेकिन अपने फैसले लेने वाली और उनकी शातिरता पर पलटकर जवाब देने वाली नहीं। कंपैनियन नहीं है, इसलिए हम मां भी नहीं हैं। जिस तरह एक समझदार, संवेदनशील और बहुत डूबकर चाहने वाले साथी के सपनों को मारकर हमने जीना सीखा, उसी तरह मां बनने की इच्‍छा को भी मार डाला। जो मुमकिन नहीं, उसके बारे में क्‍या सोचना। किस-किस से लड़ेंगे, किस-किस को जवाब देंगे।
इतनी हिम्‍मत तो खुद मुझे भी कभी नहीं हुई। 23-24 साल की उमर में अचानक मुझे बहुत डेसपेरेटली लगने लगा था कि मैं मां बनना चाहती हूं। मैंने और मेरी एक दोस्‍त ने इस बारे में बहुत सीरियसली बात की। बहुत सोचा। क्‍या कर सकते हैं। जब मैंने आरियाना फेलाची की किताब लेटर टू ए नेवर बॉर्न चाइल्‍ड पढ़ी तो उसकी नायिका की जगह खुद को रखकर देखा। I am an independent working women, not married. What if I got pregnant. दिल का एक कोना कहता कि मनीषा। द मदर। द मोस्‍ट हैपी वुमेन ऑन दिस अर्थ और तभी दूसरा कोना, जिंदगी की एक लाख सच्‍चाइयों का हथौड़ा मेरे सिर पर पटक देता। क्‍या होगा, जब सबकी तिरछी, टेढ़ी, उठी हुई निगाहें मुझसे सवाल करेंगी। मैं किस-किसको समझाऊंगी कि ये देह मेरी है और इस पर हक है मेरा। मैं अपने फैसले की जिम्‍मेदारी लेती हूं। किस-किससे कहूंगी कि एंगेल्‍स की ओरिजन ऑफ फैमिली, प्रायवेट प्रॉपर्टी एंड स्‍टेट पढ़ो। क्‍या होगा, जब ऑफिस के लोगों को पता चलेगा। हिंदी अखबार के दुबेजी, मिश्राजी लोग टेढ़ी निगाहों से मेरा एक्‍सरे निकालेंगे। मुझे देखकर कनखियों से इशारे करेंगे, बेशर्मी से मुस्‍कुराएंगे। दुनिया के दिए कैरेक्‍टर सर्टिफिकेट से मेरा घर भर जाएगा। सबकी निगाहों में मैं संसार की सबसे चरित्रहीन औरत होऊंगी। मेरा बॉस एक दिन मुझे अपने केबिन में बुलाएगा और बोलेगा, "यू प्‍लीज रिजाइन। वी कैननॉट एक्‍सेप्‍ट दिस। आपकी वजह से ऑफिस का माहौल खराब हो रहा है।" मेरा मकान मालिक बोलेगा, "मैडम आप फ्लैट खाली कर दीजिए। आपकी वजह से समाज में हमारी नाक कटेगी।" मेरे पास तो लाखों रुपए भी नहीं कि दो साल के लिए जर्मनी चली जाऊं। नहीं तो कहीं अंडमान-निकोबार पर जाकर रहूं। दो साल बाद कह दूंगी, बच्‍चा मैंने एडॉप्‍ट किया है।
कोई ऐसा कल्‍पना नहीं थी, जो दिल ने नहीं की। और कोई ऐसी कल्‍पना नहीं थी, जो सच हो सकी। और ये कल्‍पना सिर्फ मेरी नहीं, मेरी अनेकों सहेलियों की है। किसी नवजात बच्‍चे को देखकर आज भी देह में हॉर्मोन डूबने-उतराने लगते हैं। वो खुद को समझाती हैं। चुप बैठी रहती हैं। तकिये पर सिर डाल कुछ देर यूं ही पड़ी रहती हैं। किताबें पढ़ती हैं, कहीं घूमने चली जाती हैं। मेकअप करती हैं, केक खा लेती हैं। भूलने की कोशिश करती हैं कि वो मां बनना चाहती हैं।
उन्‍हें यकीन है कि संसार की सारी अमानवीयताएं खत्‍म होंगी एक दिन। ये सिर्फ एक मेरी इच्‍छा का सवाल नहीं है। ये एक लंबी लड़ाई है, जिसकी कीमत हमें और हमारे बाद आने वाली कई पीढि़यों को अभी चुकानी होगी।
यूं तो हम मां नहीं हैं, लेकिन फिर भी हम माएं हैं।

हम माएं हैं अपने बच्‍चों की। हम मालिक हैं अपनी देह की।

क्‍या होगा, अगर लड़कियां कोर्ट की बात को दो कौड़ी का मानती रहीं और प्रीमैरिटल सेक्‍स से परहेज नहीं किया?
क्‍या होगा, अगर लड़कियां बिना शादी के भी मां बनने का फैसला लेने लगीं?
क्‍या होगा अगर लड़कियां खुद ये तय करने लगीं कि वो कब, कहां, कैसे मां बनेंगी?
क्‍या होगा, अगर बच्‍चा मां के नाम से जाना जाए?
हमारे बच्‍चे के लिए एक समझदार, संवदेनशील, खूब डूबकर प्‍यार करने वाला पिता हो तो बहुत अच्‍छा, लेकिन न हो तो भी बच्‍चा तो होगा ही। क्‍या होगा अगर हम हर कीमत पर मां बनना ही चाहें?
क्‍या होगा अगर लड़कियां अपनी देह से, अपनी इच्‍छाओं, जरूरतों से जुड़े फैसले खुद ही लेने लगीं?
क्‍या होगा, अगर इस धरती पर पैदा होने वाला कोई बच्‍चा नाजायज औलाद नहीं होगा। हर बच्‍चा लीगल है। हर बच्‍चा प्‍यारा है। हर बच्‍चे का हक बराबर है।
....................................
होगा क्‍या, औरत के शरीर पर से आदमी का कंट्रोल खत्‍म। उसकी सत्‍ता तबाह। बच्‍चे के बाप के नाम पर ही तो गुलामी का ये सारा तामझाम फैला रखा है। बाप होता तो अच्‍छा ही था। लेकिन अगर वो इस लायक नहीं तो हम अकेली ही काफी हैं। कोई बाप नहीं हैं।

Saturday, January 4, 2014

जीवन का मकसद दुबेजी-तिवारी-चौबेजी की दुनिया में सुरक्षित होकर रहना नहीं


Manisha Pandey
एक नए पैदा हुए बच्‍चे को लगता है कि मां की गोद ही पूरा संसार है। फिर जब वह गोद से उतरकर घर में चलने-फिरने लगता है तो उसे पता चलता है कि संसार ये चार कमरे, रसोई, आंगन, बगीचा, बालकनी और छत भी है। फिर जब वह स्‍कूल जाना शुरू करता है कि समझता है कि संसार में स्‍कूल है, स्‍कूल के ढेर सारे बच्‍चे हैं, टीचर हैं, मोहल्‍ले के दोस्‍त हैं, स्‍कूल के रास्‍ते में दिखने वाले लोग हैं, मकान हैं, दुकानें हैं। फिर बच्‍चा बड़ा होता जाता है और पता चलता है कि संसार एक बहुत बड़ा सा शहर है, जहां तरह-तरह की चीजें हैं। फिर वो सारे शहर उसके संसार का हिस्‍सा होते जाते हैं, जहां नानी, चाची, बुआ, ताऊ और तमाम रिश्‍तेदारों के यहां शादी-ब्‍याह, जन्‍म और मरण में जाना होता है। या वो शहर, जहां वह नौकरी करने जाता है। जीवन आगे बढ़ता है और अपनी जाति, अपने धर्म, अपने कुटुंब के वही परिचित, दोस्‍त, रिश्‍तेदार और पट्टीदार ही एक मनुष्‍य का सारा संसार होकर रह जाते हैं। बाकी की दुनिया सिर्फ ग्‍लोब पर बारीक अक्षरों में लिखा हुआ कोई नाम भर है।

- अब अपनी जाति, अपने धर्म, अपने कुटुंब, अपने परिवार और रिश्‍तेदार के संकरे कुएं में पूरा जीवन बिता देने वाला इंसान ये कैसे जानेगा कि संसार बहुत बड़ा है, संस्‍कृतियां बहुत सारी। अनगिनत लोग, विचार, जीवन और अनुभवों का विराट संसार। और जीवन का मकसद दुबेजी-तिवारी-चौबेजी की दुनिया में सुरक्षित होकर रहना नहीं, जीवन का मकसद अनुभवों के उस विराट संसार की सैर है।

Tuesday, November 12, 2013

अब कोई उस गधे से पूछे कि लड़के अच्‍छे नहीं हैं तो तुम्‍हारे दोस्‍त क्‍यों हैं। तुम्‍हारे लिए अच्‍छे और बहन के लिए खराब।

Manisha Pandey
जब मैं टेंथ में थी तो मेरी एक दोस्‍त हुआ करती थी। उसका छोटा भाई नौवीं में था।
जब मैं उसके घर जाती तो उसका भाई हम लोगों से काफी बातें करता था, लेकिन अगर उसका कोई दोस्‍त आए तो उसे बिलकुल पसंद नहीं था कि बहन बाहर आकर उन लोगों से बात करे। यहां तक कि बहन को दरवाजा भी नहीं खोलना चाहिए। उनके साथ बैठकर गपियाना तो बहुत दूर की बात है। अगर उसके दोस्‍त छत पर खेल रहे हैं तो उतनी देर वो छत पर नहीं जा सकती। अगर वो ड्रॉइंग रूम में बैठे हैं तो वो ड्रॉइंग रूम बैठना तो दूर, वहां से होकर गुजर भी नहीं सकती। वो लोग गेट पर खड़े हैं तो गेट पर नहीं जा सकती। जितनी देर भाई के दोस्‍त घर में हैं, उसे चुहिया की तरह अपने बिल में दुबककर रहना पड़ता था।
मैं उससे पूछती, अगर तुम उसके दोस्‍तों के सामने नहीं जा सकती तो वो क्‍यों आता है तुम्‍हारी सहेलियों के सामने, मेरे सामने। मुझसे क्‍यों बात करता है।
उसका जवाब होता, "अरे, तुम तो दीदी हो। और फिर लड़के अच्‍छे नहीं होते। इसलिए उनके सामने नहीं जाना चाहिए।"
भाई के पास अपनी बहन को अपने दोस्‍तों से दूर रखने का सॉलिड रीजन था - "वो अच्‍छे लड़के नहीं हैं।"
अब कोई उस गधे से पूछे कि लड़के अच्‍छे नहीं हैं तो तुम्‍हारे दोस्‍त क्‍यों हैं। तुम्‍हारे लिए अच्‍छे और बहन के लिए खराब।
मेरा तो कोई भाई ही नहीं था कि मैं इस तरह डिसक्रिमिनेशन कभी फील कर पाती। लेकिन मैंने अपने रिश्‍तेदारों के यहां, गांव में, कजिन बहनों को ऐसा करते देखा है। ये एक अनसेड रूल है उत्‍तर भारत के बहुसंख्‍यक मूर्ख, चिरकुट घरों का कि जब भाई के जवान दोस्‍त घर में आएंगे तो घर की जवान लड़की उनके सामने नहीं जाएगी। वो चुपचाप अंदर वाले कमरे में बैठेगी।
ये नियम लड़कियों के प्रोटेक्‍शन के लिए है। लड़के अपनी बहनों को संदूक में बंद करके रखना चाहते हैं क्‍योंकि उन्‍हें पता है कि उनके दोस्‍त उनकी बहन को सेक्‍चुअल ऑब्‍जेक्‍ट समझते हैं। उन्‍हें पता है क्‍योंकि अपनी बहन को संदूक में छिपाने वाले लड़के खुद अपने दोस्‍तों की बहनों को सेक्‍चुअल ऑब्‍जेक्‍ट समझते हैं। सबके दिल में चोर है, इसलिए उन्‍हें दूसरा चोर नजर आता है।
अब मेरा कहना ये है कि लड़के कमीने हैं तो उन्‍हें बंद करके रख दो संदूक में। हमें क्‍यों छत पर जाने से रोक रहे हो।
मूर्खता और मक्‍कारी की कोई लिमिट है या नहीं है।

मुझे गांव जाना बिलकुल नहीं अच्‍छा लगता क्‍योंकि वहां मेरे लिए एक हजार नियम हैं।

Manisha Pandey
मुझे गांव जाना बिलकुल नहीं अच्‍छा लगता क्‍योंकि वहां मेरे लिए एक हजार नियम हैं।
यहां नहीं जा सकती, वहां नहीं जा सकती।
दुआरे पर मत बैठो, वहां सब मरद लोग हैं। खेत में मत जाओ। पंपिंग सेट पर नहाने मत जाओ। नहर के पास जाना तो बिलकुल अलाउ नहीं है।
वहां मर्दाने में क्‍या कर रही हो। उधर सब आदमी लोग हैं, वहां मत जाना।
ये मत करो, वो मत करो।
उफ। बस अपनी कजिन्‍स के साथ घर के किसी अंधेरे, सीलन भरे कमरे में बैठे गुटरगूं करते रहो, नहीं तो भाभियों के साथ रसोई में बैठे बेवकूफानी गप्‍प मारो। खुले आसमान के नीचे सोने का मन है तो आंगन है न इतना बड़ा। दुआरे पर जाना जरूरी है।
घुटन होने लगती है। भाड़ में गया गांव। आय एम नॉट इंटरेस्‍टेड।
और मुझे ऐसे किसी रिश्‍तेदार के घर जाने में भी कोई इंटरेस्‍ट नहीं है, जहां लड़कियां घर में आने वाले नए, अपरिचित, अजनबी पुरुषों जैसे भाई या मौसाजी, फूफाजी, जीजाजी और व्‍हॉटएवरजी के दोस्‍तों से बात नहीं कर सकतीं। जहां अजनबी पुरुषों के आते ही लड़कियां छछुंदरों की तरह सरसराकर बिल में घुस जाती हैं और खुसुर-पुसुर किया करती हैं।
मुझे नए लोगों से बात करना बहुत अच्‍छा लगता है। लड़कों से तो और भी अच्‍छा।
इसलिए मुझे ऐसे घरों में जाने में कोई इंटरेस्‍ट नहीं, जो घर के नाम में मुर्गियों के दड़बे और चुहियों के तहखाने हैं।
मेरे घर में आओ। एकदम सॉलिड क्रॉस वेंटिलेशन है। यहां कोई किसी के भी सामने बैठ सकता है, गप्‍पें मार सकता है और मर्दानगी की तो छीछालेदर कर सकता है।
ये इंसानों का घर है, चूहे-बिल्लियों का नहीं।
Deepa Agarwal ये तो गावं की की बात हुई. अब सुनो गोरखपुर शहर की बात-
१] उर्दुबज़ार में बुआजी की तीनो बहुएं घर से नीचे निकलते और आगे जाते वक़्त ,नज़रें नीची,सर पर पल्लू.और चुप चाप निकलतीं थी. हमने कारण पूछा ऐसा क्यूँ ? वो कहतीं थी नीचे दुकाने हैं और मर्द जिनका सम्मान करना होता है नहीं तो वो क्या सोचेगें की ये कैसी बहुएं हैं ?? उफ्फ्फ... अन्दर ही अन्दर हम कन्विन्स नहीं हो पाते थे.
२] कई घरों में देखा ससुर के आते ही बहु को जमीन में बैठना होता था चाहे वहां पर खाली कुर्सी या पलंग ही क्यों ना हो ?? उफ्फ्फ हमने सोचा यदि वो महिला अस्पताल में भारती हो या कार में जाए ससुर भी साथ हो तब भी बेहूदी परंपरा चलेगी ?
३] एक पुरानी पीढ़ी की महिला ने हमसे कहा हाय हाय दीपा तुम अंडा और मांस माछी मत खाया करो. इससे गर्मी आती है ये मर्दों का खाना है मेरे पति ने ये बताया है ? ufff.....
४]किसी पार्टी में जाओ मर्द और औरत के लिए अलग -२ जगह
५] किसी पार्टी में जाओ मर्द के लिए अच्छे स्नक्स विथ नोनवेज और महिलाओं के लिए सादे से वेज स्नेक्स ...
महिलाओं को हमेशा दोयम दर्जे का माना जाता रहा है .....इन बातों और सोच पर बड़ा तरस आता था.

Sunday, October 27, 2013

छोटे शहर सांस नहीं लेने देते


Manisha Pandey
छोटे शहर सांस नहीं लेने देते। आपकी हर एक्टिविटी पर हर वक्‍त लेंस ताने रहते हैं। जिंदगी में क्‍या करना है और कैसे करना है, सबकी एक फिक्‍स आचार संहिता है। उससे जरा भी हिले-डुले तो खैर नहीं। पूरा शहर और कस्‍बा आपको तमाम सर्टिफिकेटों से नवाज देगा। और उनमें भी अधिकांश सर्टिफिकेट कैरेक्‍टर से जुड़े होंगे।
छोटे शहरों में दिल से जीने की इजाजत नहीं। ब्‍वॉयफ्रेंड या गर्लफ्रेंड को किस करने की तो बिलकुल भी नहीं, क्‍योंकि कहीं पड़ोस के मिश्राजी ने देख लिया तो सीधे खबर अब्‍बाजी तक पहुंच जाएगी। अब्‍बाजी को खुद भले तकलीफ न होती, लेकिन इस बात से तकलीफ हो जाएगी कि उनकी बेटी को किस करते मिश्राजी देख चुके हैं। छोटे शहर न सपने देखते हैं, न देखने की इजाजत देते हैं।
ऐसे में क्‍या करें अपने सपनों का हम, जो दौड़-दौड़कर जाने कहां-कहां घूमने के लिए मचल रहे हैं। हमारा भी बस नहीं अपने सपनों पर।

Sunday, October 13, 2013

गुम्कड़ लड़किया


Manisha Pandey
इंडियन मेल स्‍पिसीज (Iindia Male Species) सारी दुनिया में निराली है। ज्ञान दे रहे हैं कि ऐसी भी क्‍या जल्‍दी है घूमने की। शादी के बाद घूम लेना। एक बार पति मिल जाए, उसके बाद जितना जी में आए घूमना।
हद है।
मर्द क्‍या घूमने के लिए शादी होने का इंतजार करते हैं। उसके पहले घर के अंदर बंद रहते हैं। ब्‍याह के बाद बीवी घुमाएगी।
मूर्खता की कोई लिमिट है कि नहीं है। या एकदम ही लिमिटलेस है।
जिन लड़कियों को चौराहे तक अकेले जाने की इजाजत नहीं, स्‍कूल भी भाई छोड़ने और लेने जाता है, जिनका सफर अपने घर से निकलकर बुआ, मौसी और नानी के घर पर खत्‍म हो जाता है, वो लड़कियां ताउम्र पूरी दुनिया घूमने का सपना देखती हैं।

Sunday, October 6, 2013

ये सारी चीजें एक-दूसरे से ऐसे जुड़ी हैं। इस कदर कि इन्‍हें अलग करके देखना मुश्किल है


Manisha Pandey
मैं किसी हवा-हवाई कल्‍पना के आधार पर नहीं कह रही हूं। ये बचपन से लेकर आज तक सैकड़ों लोगों से बातचीत, डिसकशन, मेरे फेसबुक पोस्‍ट पर आए कमेंट और इनबॉक्‍स मैसेजेज के आधार पर निकाला गया नतीजा है, जिसे प्रूव करने के लिए मेरे पास बहुत ठोस प्रमाण हैं।

नतीजा ये है कि ये सभी चीजें आपस में ड़ी हुई हैं।

1- औरतों की आजादी और बराबरी का विरोध करने वाले और फीमेल वर्जिनिटी को आसमान पर बिठाकर उसकी पूजा करने वाले अधिकांश लोग समाज की सो कॉल्‍ड ऊंची, दबंग जातियों के हैं।
2- औरतों की आजादी का विरोध करने वाले अधिकांश ऊंची, दबंग जातियों के लोग अयोध्‍या या देश के किसी भी कोने में मंदिर बनवाए जाने के आइडिया को लेकर लहालोट हो जाते हैं।
3- औरतों की आजादी के विरोधी और मंदिर समर्थक अधिकांश ऊंची, दबंग जातियों के लोग मोदी सपोर्टर हैं।
4- औरतों की आजादी के विरोधी, मंदिर समर्थक और मोदी सपोर्टर अधिकांश ऊंची, दबंग जातियों के लोग आरक्षण और दलितों के अधिकारों के घोर खिलाफ हैं।
5- औरतों की आजादी के विरोधी, मंदिर समर्थक, मोदी सपोर्टर और आरक्षण विरोधी अधिकांश ऊंची, दबंग जातियों के लोग मुसलमानों को छठी का दूध याद दिलाना चाहते हैं।

ये सारी चीजें एक-दूसरे से ऐसे जुड़ी हैं। इस कदर कि इन्‍हें अलग करके देखना मुश्किल है।

Tuesday, October 1, 2013

मुझे आज तक नहीं समझ में आया कि "अरेंज मैरिज" का क्‍या मतलब होता है


Manisha Pandey
मुझे आज तक नहीं समझ में आया कि "अरेंज मैरिज" का क्‍या मतलब होता है। यूरोप में किसी से पूछेंगे कि आपकी "अरेंज मैरिज है या "लव मैरिज" तो पहले तो वो आपके ऊपर हंसेगा और फिर पूछेगा, "व्‍हॉट इज अरेंज मैरिज।" फिर आप बताएंगे कि जैसा हमारे भारतवर्ष में होता है। मम्‍मी-पापा अपने बेटे और बेटी के लिए सुयोग्‍य वर ढूंढते हैं। मम्‍मी-पापा तय करते हैं कि उनका बेटा या बेटी किसके साथ शादी करेगा। मम्‍मी-पापा सबसे पहले तो वर का जाति-धर्म पता करते हैं, फिर उसकी नौकरी-चाकरी, तंख्‍वाह, रंग-रूप। फिर कितना जमीन, मकान, दुकान है। कितना गाय-घोड़ा-बकरी है। वर के घर-खानदान में कितना पुलिस, दरोगा, अधिकारी है। सब जान-समझकर बिटिया का ब्‍याह कर देते हैं या दूसरे की बिटिया का ब्‍याह लाते हैं।

जानते हैं अरेंज मैरिज की इतनी एक्‍सप्‍लेनेशन देने के बाद क्‍या होगा।
खुद ही पूछकर देख लीजिए।
मुझे पता नहीं कि ऐसे उल्‍लू हम ही हैं पूरी दुनिया में इकलौते या और भी हैं।

Sunday, September 29, 2013

चाय पीनी है तो बनानी पड़ेगी। चाय बनाओ, खुद भी पियो, हमें भी पिलाओ।



Manisha Pandey
याद है बचपन में दूरदर्शन पर जो भी हिंदी फिल्‍में आती थीं, उनमें हिरोइन की सुबह कैसी होती थी? पति पैर पसारकार सो रहा है। पत्‍नी आती है। कंधों पर धुले हुए गीले बाल लहरा रहे हैं और उसके हाथ में चाय का ट्रे है। पास आकर बड़े लाड़ से पति को उठाती है। पति भी बदले में कुछ मीठी छेड़खानी करता है और फिर बिस्‍तर पर ही पसरकर चाय पीने लगता है।
और आज की फिल्‍मों की हिरोइनें? शुद्ध देसी रोमांस देखी न? सुबह के आठ बजे हैं। सूरज सिर पर चढ़ आया है और लड़की पैर पसारकर सो रही है। बगल में उसका ब्‍वॉयफ्रेंड भी है। आंख खुलते ही ब्‍वॉयफ्रेंड से लड़की का पहला सवाल- तुम बिस्‍तर ठीक करोगे या चाय बनाओगे। और हां, जाओ जाकर पहले सिगरेट लेकर आओ।

गुड न। दुनिया बदल रही है। अब लड़कियां सुबह-सुबह चाय बनाकर पति-प्रेमी की सेवा में हाजिर करने को तैयार नहीं। चाय पीनी है तो बनानी पड़ेगी। चाय बनाओ, खुद भी पियो, हमें भी पिलाओ। नहीं तो तेल लेने जाओ।

दूसरा-तीसरा प्‍यार है, फिर भी पहले जैसी बहार है

Manisha Pandey
याद है ये गाना- "पहला-पहला प्‍यार है, पहली-पहली बार है"! "हम आपके हैं कौन का"। अरे वही फिल्‍म, जिसमें पूरे टाइम या तो शादी की रस्‍में होती रहती थीं या गाना बजता रहता था।
इस गाने पर मुझे स्‍ट्रॉंग ऑब्‍जेक्‍शन है क्‍योंकि ये उन लोगों के लिए नहीं है, जिनका प्‍यार दूसरा, तीसरा, चौथा, पांचवां है। प्‍यार कोई ऐसी चीज तो है नहीं कि एक बार हो गया तो कहानी खत्‍म। वो तो दोबारा, तिबारा, चौबारा भी हो सकता है।
ये गाना ऐसे नहीं हो सकता क्‍या- "दूसरा-तीसरा प्‍यार है, फिर भी पहले जैसी बहार है"

So keep falling in love always.


Manisha Pandey
प्‍यार हुआ। मजे से चला। नहीं चला। टूट गया। नहीं टूटा। खत्‍म हुआ, नहीं हुआ। सब ठीक है। ऑल गुड। सब चलता है। बस जो नहीं चलता या कम-से-कम नहीं चलना चाहिए वह ये कि टूटे हुए प्‍यार के कारण खुद को दुनिया और जिंदगी से काट लेना। प्‍यार न करने की कसमें खा लेना। प्‍यार से दूर भागना।
ये सब मनोरोग की निशानियां हैं। मनोरोग न भी हो तो हो जाएगा, अगर प्‍यार से दूर भागने की स्थिति बनी रही, अगर जिंदगी लंबे समय तक बेजार नजर आती रही।

जवानी से शुरू होते हैं और बुढ़ापे तक खत्‍म नहीं होते इंडियन हसबैंड के ऑर्डर। तौबा है इनसे तो


Manisha Pandey
इस साल सु्प्रीम कोर्ट द्वारा सीनियर एडवोकेट बनाई गई मीनाक्षी अरोड़ा का मैंने पिछले दिनों इंटरव्‍यू किया था। उन्‍होंने एक इंटरेस्टिंग बात कही कि शादी के 27 सालों में आज तक उनके पति ने कभी उनसे एक गिलास पानी भी नहीं मांगा। जो भी जरूरत हो, खुद उठकर लेते हैं। वो बोलीं कि कई बार अगर मैं खुद किचन में हूं या घर में इधर-उधर टहल रही हूं तो भी मुझसे नहीं कहते। खुद ही उठेंगे। मैं कहूं कि अरे तुम क्‍यों उठे, मुझे ही बोल देते तो उनका जवाब होता है - "You are wife, not my made."

और सबसे इंटरेस्टिंग बात पता है क्‍या है।
उनके पति जर्मन हैं, इंडियन नहीं।
वरना भारतीय पुरुष तो दिन भर अपनी पत्नियों को ऑर्डर ही लगाते रहते हैं।
- ये लाओ
- वो लाओ
- जरा पानी देना
- एक कप चाय मिलेगी
- जरा मेरा चश्‍मा उठा दो
- आज आलू के पराठे खाने का मन है
- जरा नारियल तेल तो देना
- अरे मेरी बनियान कहां रखी है
- तौलिया कहां चला गया
- इनकम टैक्‍स के पेपर दिए थे तुम्‍हें रखने को। कहां हैं।
जवानी से शुरू होते हैं और बुढ़ापे तक खत्‍म नहीं होते इंडियन हसबैंड के ऑर्डर। तौबा है इनसे तो।

भले वो कास्‍ट में शादी करवाने पर तुली रहें। वो भी जानती हैं, उनकी चलने वाली तो है नहीं


Manisha Pandey
अभी थोड़ी देर पहले पापा का फोन आया था। कहने लगे, "एक खुशखबरी है।"
"खुशखबरी? वॉव। ग्रेट। क्‍या हुआ पापा?"
"तुम्‍हारी मम्‍मी को अभी बैठे-बैठे एक ज्ञान मिला है। वो बोलीं कि सब धर्म बेकार हैं। सब धर्मों का नाश हो जाना चाहिए। मंदिर-मस्जिद में कुछ नहीं रखा। मुझे तो लगता है कि भगवान भी कुछ होता नहीं है। सब मनगढंत बातें हैं।"
"सुधा, तुसी ग्रेट हो। 52 साल लग गए तुमको ये बात समझने में।"
खैर फिर भी पापा बहुत खुश। बोले, "सुन लो, तुम्‍हारी मां क्‍या कह रही हैं। दिमाग पर चढ़ी धूल-मिट्टी की पर्तें उतर रही हैं। मां बदल रही हैं।"
लेकिन इन सबके बीच मां ने फिर हमारी खुशी के गुब्‍बारे में सूई चुभा दी। बोलीं, "लेकिन शादी तो अपनी ही कास्‍ट में होनी चाहिए। अदर कास्‍ट में नहीं।"
मैंने और पापा ने अपना सिर पीट लिया। पापा बोले, "कोई नहीं, इतना समझी हैं तो आगे भी समझ जाएंगी।"
वैसे मां बोलती रहती हैं कि शादी अपनी कास्‍ट में, अपनी कास्‍ट में, अपनी कास्‍ट में। लेकिन सुनता कौन है। न उनके पति सुनते हैं और न बेटियां।

(कोई इसे मेरा मां विरोधी स्‍टेटमेंट न मान ले, इसलिए कह रही हूं कि वैसे अम्‍मा हैं बहुत प्‍यारी। हम सब उनको बेहद प्‍यार करते हैं। भले वो कास्‍ट में शादी करवाने पर तुली रहें। वो भी जानती हैं, उनकी चलने वाली तो है नहीं।)

Wednesday, August 21, 2013

कमाऊ पति का ऐशोआराम और आजाद फैसले एक सा‍थ नहीं मिलते।


Manisha Pandey
वैसे अच्‍छे-खासे कमाऊ सॉफ्टवेअर इंजीनियर, कॉरपोरेट स्‍लेव पति की बीवी बनने में काफी ऐश भी है। सुबह उठकर ऑफिस नहीं भागना पड़ता, ऑफिस के दबाव-तनाव नहीं झेलने पड़ते। सुबह नौ बजे से लेकर रात नौ बजे तक हफ्ते में छह दिन अपनी ऐसी की तैसी नहीं करानी पड़ती। पति इतना मोटी कमाई करता हो तो घर के काम भी नहीं करने पड़ते। झाडू, पोंछा, बर्तन, कपड़ा और यहां तक की खाना बनाने के लिए भी मेड होती है। फुट टाइम सर्वेंट। मजे से सीरियल देखो, फेशियल करवाओ, शॉपिंग करो, नए डिजायनर सूट पहनो और वीकेंड में पति की बांह से सटकर मॉल में पिज्‍जा खाओ।
मजे ही मजे हैं।
लेकिन इस मजे की भी कीमत है। अपनी आजादी भूल जाइए, अपने फैसले, अपना जीवन, अपना हक, अपनी मर्जी सब गए तेल लेने।
कमाऊ पति का ऐशोआराम और आजाद फैसले एक सा‍थ नहीं मिलते। दोनों हाथों में लड्डू मुमकिन नहीं।
इसलिए तय करना होगा - ये या वो। इस पार या उस पार।
कोई एक ही चीज मिलेगी।
"या कॉरपोरेट की नौकरी या कॉरपोरेट के खिलाफ लड़ाई।"

Thursday, June 27, 2013

क्‍या कहा? मैं ऊंची जाति की औरत हूं। सवर्ण हूं। वाह वाह। क्‍या बात है।


Manisha Pandey
क्‍या कहा? मैं ऊंची जाति की औरत हूं। सवर्ण हूं। वाह वाह। क्‍या बात है। आइए, आपके माथे पर मोर मुकुट पहना दूं। कहां से आएं हैं आप? मंगल ग्रह से? मुझे तो कभी नहीं लगा कि मैं किसी भी मामले में ऊंची-वूंची टाइप कुछ हूं। अपने घर में हमेशा अपने भाइयों से कमतर ही रही। छुटपन में भी जब मेरे सब भाई ऊधम मचाते, खेलते-कूदते रहते, मुझसे घर का काम करवाया जाता। उनकी पढ़ाई कीमती थी और मुझे स्‍कूल भेजकर भी वो एहसान कर रहे थे। मेरे भाई पूरा शहर नापते रहते थे और मुझे घर में सिलाई-कढ़ाई-बुनाई और अच्‍छी बहू बनने के गुण सिखाए जाते थे। मेरे भाई अपने स्‍कूल में क्‍लासमेट के साथ इश्‍क फरमाते और मैं लड़कों की परछाईं तक से वंचित सिर्फ प्रेम की कल्‍पनाओं और घटिया टाइप की प्रेम कविताओं में जीती थी। भाइयों से जबान लड़ाती तो बड़ी मां मुझे थप्‍पड़ रसीद करती थीं। बड़े होकर जाना कि छातियां तो मेरी भी वैसी ही हैं, जैसी किसी दलित या मुसलमान औरत की होती हैं और मर्दों की निगाहें उसे वैसी ही भूखी नजरों से ताड़ा करती हैं, जैसे किसी दलित या मुसलमान औरत की छातियों को ताड़ती हैं। मेरा शरीर संसार के हर धर्म, जाति, नस्‍ल की औरत की तरह ही था और हर धर्म, जाति, नस्‍ल के मर्द, सब एक जैसे थे। होऊंगी मैं फलाना सवर्ण, सो कॉल्‍ड अपर कास्‍ट, लेकिन आपकी दुनिया में मैं सिर्फ औरत हूं और दो कौड़ी की औकात नहीं है औरतों की।
और मुझे तो हंसी आती है उन औरतों की मूढ़ बुद्धि पर, जो खुद को तथाकथित ऊंची जाति का मानकर इतराया करती हैं। गदहिया हैं वो सब।
दुनिया की सब औरतों की एक ही जाति है। सब सताई गई हैं। सब लतियाई गई हैं। सब दलित हैं। सब वंचित हैं।
मर्द जरूर हर जाति, हर धर्म, हर वर्ग, हर नस्‍ल, हर समुदाय के एक हैं औरतों के मामले में। सब मर्द हैं।
और हम सब औरतें।

इस कहानी में सिर्फ नाम और पहचान बदल दी गई है। बाकी एक-एक बात बिलकुल सच है।


Manisha Pandey
एक डच महिला के साथ महान गौरवशाली संस्‍कृति वाले हमारे देश में गैंग रेप हुआ। देश की राजधानी की एक एम्‍बैसी में उसके केस की सुनवाई चल रही थी। वकील ने लड़की से पूछा, "क्‍या आप गैंग रेप करने वाले लोगों को आइडेंटीफाई कर सकती हैं।"
लड़की बोली, "नहीं।"
"क्‍यों?"
लड़की की Eye Side कमजोर थी। वह चश्‍मा लगाती थी। उन लोगों ने उसका चश्‍मा तोड़ डाला था। चारों तरफ अंधेरा था। रात का समय। वह नहीं पहचान पार्इ। लेकिन उस लड़की ने एक बात और कही थी। वह बोली,
"नहीं। मैं उन्‍हें आइडेंटीफाई नहीं कर सकती। मैंने उन्‍हें नहीं देखा। उस वक्‍त मैंने अपनी आंखें बंद कर ली थीं और सोच रही थी कि मैं नीदरलैंड में हूं। उस वक्‍त मैं उस क्षण के बारे में नहीं सोचना चाहती थी। मैं ये कल्‍पना कर रही थी कि मैं वहां हूं ही नहीं। मैं अपने देश में हूं। अपने घर में। अपने ब्‍वॉयफ्रेंड के साथ।"
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फिल्‍म बैंडिट क्‍वीन का एक दृश्‍य है, जब बहमई के ठाकुर अपनी मर्दाना एकता के साथ इकट्ठे हुए हैं एक औरत को उसकी औकात बताने के लिए। जबर्दस्‍ती फूलन देवी के साथ हिंसक सामूहिक बलात्‍कार करने के लिए। जब एक-एक करके वह उस झोपड़ी में जा रहे हैं और आ रहे हैं, उस वक्‍त एक धुंधला सा आकार दिखता है। फूलन देखती है कि विक्रम मल्‍लाह उसके सिरहाने खड़ा है। वह उसका हाथ थाम रहा है, उसके सिर पर हाथ फेर रहा है, उसका माथा चूम रहा है। एक-एक करके ठाकुर आ रहे हैं और जा रहे हैं। सब साबित कर रहे हैं कि वे मर्द है और जब चाहें, जैसे चाहें, जहां चाहें, औरत को उसकी दो कौड़ी की औकात बता सकते हैं। उस समय, उस सबसे यातना भरे समय में फूलन उस आदमी के बारे में सोच रही है, जिससे उसे जिंदगी में प्‍यार और इज्‍जत मिली थी। असल में तो विक्रम मल्‍लाह वहां है ही नहीं। वह मर चुका है। यह सिर्फ फूलन की कल्‍पना है।

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क्‍या ये अजीब है कि दोनों औरतों की कल्‍पना में इतना साम्‍य है। दोनों अपने जीवन के सबसे दुखद क्षण में सबसे सुंदर क्षण के बारे में सोच रही हैं। जीवन जब सबसे गहरी पीड़ा से गुजर रहा है, मुहब्‍बत भरा एक हाथ उन्‍हीं के हाथ को कसकर थामे हुए है।

लेकिन मैंने ये बताने के लिए ये दोनों कहानियां नहीं सुनाईं कि जिंदगी हर क्षण उम्‍मीद है। कि सामूहिक बलात्‍कार के समय एक औरत अपनी आंखें बंद करके सोचती है कि उसे प्रेम करने वाले पुरुष ने उसका हाथ कसकर थाम रखा है। वह सोचती है कि वह दरअसल वहां है ही नहीं। वह सोचती है कि सब पहले की तरह सुंदर है। ये तो मैं जानती ही हूं। मैं भी तो एक औरत हूं।

मैं बताना दरअसल कुछ और चाहती हूं।

उस दिन दिल्‍ली की एम्‍बैसी में जब उस डच लड़की ने यह बयान दिया तो वहां मौजूद वकील, जिसकी निगाहें अब तक उस डच औरत की छातियों पर गड़ी हुई थीं, को हंसी आ गई। उसने बहुत घूरती, अश्‍लील नजर से उसे देखा और बोला, "ये कैसे हो सकता है मैडम कि आपने उन्‍हें देखा ही न हो। आइडेंटीफाई किए बगैर केस कमजोर हो जाएगा। पहचान तो करनी पड़ेगी।" फिर वह धीरे से अपने कुलीग से बोला, "आंखें बंद करके मजे ले रही थी।" वकील साहब इतने से नहीं माने। बाद में बाहर निकलकर ट्रांसलेटर लड़की से बोले, “अरे मैडम, इन लोगों से बात मत करिए। ये विदेशी औरतें बहुत गंदी होती हैं। इनका क्या, ये तो किसी के भी साथ सो जाती हैं।” और सिर्फ वह वकील ही क्‍यों, उस केस की वकालत कर रहे और उस वक्‍त कोर्टरूम में मौजूद सारे मर्दों को उस लड़की के बयान पर हंसी ही आई थी। जो लोग कनखियों से उसकी छातियों का एक्‍सरे निकाल रहे थे, वही उस दिन उसे न्‍याय दिलाने के लिए वहां बैठे थे।

कोर्ट रूम में उस डच लड़की को समझ में नहीं आया कि हिंदी में कहा क्‍या गया था। वहां मौजूद ट्रांसलेटर ने उस वाक्‍य का कभी अनुवाद नहीं किया। और मुझे शक है कि उस डच लड़की का वह बयान भी दर्ज नहीं किया गया था। "क्‍या आप आइडेंटीफाई कर सकती हैं?" के जवाब में उन्‍होंने बस इतना ही लिखा होगा, "नहीं।"

मैं कभी आरटीआई लगाकर उस दर्ज बयान की कॉपी जरूर निकलवाऊंगी।