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भगवान जैसे निर्जीव चीज की सेवा करने के नाम पर पुजारियों और मठाधिशों की
सेवा के लिए शुरू की गई ‘देवदासी प्रथा’ घोषित रूप से भले ही समाप्त हो गई
हो, लेकिन देवदासियां आज भी हैं। इस बात को बल हाल ही में रितेश शर्मा की
एक डॉक्युमेंट्री फिल्म ‘द होली वाइव्स’ से मिला है। दिल्ली में प्रदर्शित
की गई इस फिल्म में देवदासी प्रथा जैसी उस कुरीति पर सवाल उठाए गए, जिस पर
मेनस्ट्रीम मीडिया में आजकल मुश्किल से ही कोई बहस होती है। यह फिल्म बताती
है किस तरह इस दौर में जहां महिला अधिकारों को लेकर हल्ला मचाया गया,
घरेलू हिंसा विरोधी कानून बने और महिला अधिकारों पर कई बहसें हुईं, बावजूद
इसके कर्नाटक, राजस्थान और मध्यप्रदेश के कई इलाके ऐसे हैं, जहां इन
कानूनों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। वह भी धर्म के नाम पर और पूरी तरह
सार्वजनिक तौर पर।
अपनी फिल्म के निर्माण के दौरान रितेश उन इलाकों
में गए, जहां महिलाओं को धर्म और आस्था के नाम पर वेश्यावृत्ति के दलदल में
धकेला जाता है और कई बार बलात्कार तक का शिकार होना पड़ता है। लेकिन,
जीविकोपार्जन और सामाजिक-पारिवारिक दबाव के चलते ये महिलाएं इस धार्मिक
कुरीति का हिस्सा बनने को मजबूर हैं। अपने प्रारंभिक दौर में देवदासी प्रथा
के अंतर्गत ऊंची जाति की महिलाएं जो पढ़ी-लिखी और विदुषी हुआ करती थीं,
मंदिर में खुद को समर्पित करके देवता की सेवा करती थीं और देवता को खुश
करने के लिए मंदिरों में नाचती थीं। समय ने करवट ली और इस प्रथा में शामिल
महिलाओं के साथ मंदिर के पुजारियों ने यह कहकर शारीरिक संबंध बनाने शुरू कर
दिए कि इससे उनके और भगवान के बीच संपर्क स्थापित होता है। धीरे-धीरे यह
उनका अधिकार बन गया, जिसको सामाजिक स्वीकार्यता भी मिल गई। उसके बाद राजाओं
ने अपने महलों में देवदासियां रखने का चलन शुरू किया। मुगल काल में, जबकि
राजाओं ने महसूस किया कि इतनी संख्या में देवदासियों का पालन-पोषण करना
उनके वश में नहीं है, तो देवदासियां सार्वजनिक संपत्ति बन गईं।
आज
भी कहीं वैसवी, कहीं जोगिनी, कहीं माथमा तो कहीं वेदिनी नाम से देवदासी
प्रथा देश के कई हिस्सों में कायम है। कर्नाटक के 10 और आंध्र प्रदेश के 14
जिलों में यह प्रथा अब भी बदस्तूर जारी है। देवदासी प्रथा को लेकर कई
गैर-सरकारी संगठन अपना विरोध दर्ज करा चुके हैं। इन संगठनों का मानना है कि
अगर यह प्रथा आज भी बदस्तूर जारी है, तो इसकी मुख्य वजह इस कार्य में लगी
महिलाओं की सामाजिक स्वीकार्यता है। इससे बड़ी समस्या इनके बच्चों का
भविष्य है। ये ऐसे बच्चे हैं, जिनकी मां तो ये देवदासियां हैं, लेकिन जिनके
पिता का कोई पता नहीं है। ये तमाम समस्याएं उठाने वाली रितेश की इस फिल्म
को मानवाधिकारों के हनन का ताजा और वीभत्स चित्रण मानते हुए
राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर प्रदर्शित किया जा रहा है। रितेश हालांकि
मानते हैं कि फिल्म के प्रदर्शन से ज्यादा जरूरी है कि इस विषय पर हमारे
देश की कानून व्यवस्था कोई ठोस कदम उठाए, जिससे न केवल इस कुप्रथा का
उन्मूलन हो, बल्कि ऐसी महिलाओं और उनके बच्चों को भी पुनर्वासित किया जा
सके, जो इस कुप्रथा की गिरफ्त में हैं।
देवदासी हिन्दू धर्म में ऐसी
स्त्रियों को कहते हैं, जिनका विवाह मन्दिर या अन्य किसी धार्मिक
प्रतिष्ठान से कर दिया जाता है। समाज में उन्हें उच्च स्थान प्राप्त होता
है और उनका काम मंदिरों की देखभाल तथा नृत्य तथा संगीत सीखना होता है।
परंपरागत रूप से वे ब्रह्मचारी होती हैं, पर अब उन्हे पुरुषों से संभोग का
अधिकार भी रहता है। यह एक अनुचित और गलत सामाजिक प्रथा है। इसका प्रचलन
दक्षिण भारत में प्रधान रूप से था। बीसवीं सदी में देवदासियों की स्थिति
में कुछ परिवर्तन आया। पेरियार तथा अन्य नेताओं ने देवदासी प्रथा को समाप्त
करने की कोशिश की। कुछ लोगों ने अंग्रेजों के इस विचार का विरोध किया कि
देवदासियों की स्थिति वेश्याओं की तरह होती है।
कुछ दिनों पहले
मैंने किसी न्यूज़ चैनल पर वेल्लोर की खबर चलते देखी। खबर कुछ ऐसी थी कि
12-13 साल की बच्चियों को देवदासी चुना गया और उन्हें अगले कुछ सालों तक
देव और देवियों यानी भगवान की सेवा में अपना जीवन व्यतित करना है। समाज में
इन बालिकाओं का दर्जा जरुर कुछ श्रेष्ठ हो जायेगा, पर देवदासी प्रथा के
तहत उनकी आज़ादी छिन चुकी है, इस बात से अनजान ये बच्चियां सिर्फ इस बात से
खुश थीं कि अब उन्हें मंदिर की स्वामिनी का दर्जा और देखरेख का अधिकार
प्राप्त हो गया है। वहां रहने के दौरान वस्त्र और अच्छा खाना खाने को
मिलेगा, साथ ही उस गरीबी से भी छुटकारा भी मिलेगा, जिसके साथ वह पैदा हुई
हैं। कमर के उपरी हिस्से तक निर्वस्त्र इन बच्चियों के सर पर मटकियां रख कर
जुलुस भी निकाला गया। भीड़ का नेतृत्व करती इन किशोरियों का बालमन जब
परिपक्व होगा, बढ़ती उम्र और मातृत्व की लालसा चरम पर होगी और ये यादें साथ
होंगी, तो क्या वो एक सम्मानित जीवन की नीव रख पाएंगी? कैसे जी पाएंगी वो
इन कड़वी यादों के साथ? दूसरी ओर एक खुशहाल जिंदगी न मिल पाने पर, समाज
द्वारा नकार दिए जाने पर क्या वेश्यावृति की ओर इनके कदम नहीं मुडेंगे? न
चाहते हुए भी उन्हें वेश्यावृति के गहरे दलदल मे ढकेल दिया जाएगा।
हम
थोड़ा पीछे इतिहास के आइने में देखें, तो यह समझना आसान हो जाएगा कि छठी
और 10वीं शत्ताब्दी में इसका क्या स्वरुप था और बाद में यह कितना विकृत हो
गया था। राजाओं और सामंतों के लिए यह भोग विलास और समाज मे अपनी प्रतिस्ठा
की पहचान बन चुका था। इस प्रथा को सबसे ज्यादा बढावा दिया चोलों (चोल वंश
के राजा) ने। सदियां गुजरने के बाद भी प्रथा ज्यों की त्यों चली आ रही है,
बदले तो सिर्फ हमारे बाहरी आवरण। इस कुप्रथा की जड़ें इतनी गहरी हैं कि वो
इन बच्चियों के सुनहरे वर्तमान और भविष्य पर भारी हैं। जो मैंने देखा और जो
अनुभव किया, उसमें दो चीजे थीं। पहली यह कि बच्चियों को निर्वस्त्र कर के
घुमाया जा रहा था। दूसरा, लोगो का हुजूम, जो इन नाबालिग बच्चियों का
उत्साहवर्द्धन कर रहा था और प्रशासन को कोई खबर नहीं थी।
गौरतलब है
कि कर्नाटक में प्रशासन ने 1982 में और आन्ध्र प्रदेश में 1988 में इस
प्रथा पर रोक लगा दी थी। पर 2006 में हुए सर्वे में यह बात निकल कर सामने
आई कि इस परम्परा का निर्विरोध पालन होता चला आ रहा है। उन समुदायों की
भावना प्रगतिशील देश की कल्पना पर भारी पड़ रही है। और, उन्हें कोई मतलब
नहीं है कि इस बुराई को अपने साथ ढोते रहना कितना गलत है। समय-समय पर
फिल्मकारों ने इस विषय की गंभीरता को उठाने की कोशिश की है, लेकिन हमारे
यहां की जनता, जो मलिका और प्रियंका चोपड़ा को अधनंगी देखने की आदि हो चुकी
है, ने नकार दिया। फिल्म ‘प्रणाली’ इसका बेहतरीन उदहारण है कि कैसे
देवदासी बनी नायिका अपने ख़ोल से बाहर आ कर मातृत्व सुख और अपने बच्चे को
सामाजिक अधिकार दिलाने के लिए समाज के ठेकेदारों से लड़ती है।
सदियों
से चली आ रही परम्परा का अब ख़तम होना बहुत ही जरुरी है। देवदासी प्रथा
हमारे इतिहास का और संस्कृति का एक पुराना और काला अध्याय है, जिसका आज के
समय में कोई औचित्य नहीं है। इस प्रथा के खात्मे से कहीं ज्यादा उन
बच्चियों के भविष्य की नींव का मजबूत होना बहुत आवश्यक है, जिनके ऊपर हमारे
आने वाले भारत का भविष्य है। उनके जैसे परिवारों की आर्थिक स्थिति सुधरनी
बहुत जरुरी है।
इसके इतर एक अच्छी खबर यह है कि पुरी के प्रसिद्ध
श्री जगन्नाथ मंदिर में 800 साल पुरानी देवदासी परंपरा खत्म होने के कगार
पर है और यहां विशेष अनुष्ठानों के लिए केवल दो ही देवदासियां हैं। इस बात
का पहले से ही आभास होने पर मंदिर प्रशासन ने परंपरा को जीवंत रखने के लिए
90 के दशक की शुरुआत में नई देवदासियों को जोडऩे का प्रयास किया था, लेकिन
इस पद्धति के खिलाफ देशभर में हुए विरोध प्रदर्शन के चलते और महिलाओं के
इसमें रुचि नहीं दिखाने से ये कोशिशें नाकाम रहीं। 12वीं सदी के इस मंदिर
में 36 अलग-अलग सेवाएं देवदासियों द्वारा की जाती हैं। स्थानीय तौर पर
इन्हें ‘महरी’ कहा जाता है।
एक शोधकर्ता रवि नारायण मिश्रा ने कहा
कि देश में यह एक मात्र विष्णु मंदिर है, जहां महिलाओं को नृत्य और गायन के
अलावा विशेष अनुष्ठान करने की भी इजाजत होती है। महरी सेवा एकमात्र सेवा
है, जिसमें महिलाओं की एक बड़ी भूमिका होती है। पुजारी रवींद्र प्रतिहारी
कहते हैं कि एक महिला के बिना इस अनुष्ठान को नहीं किया जा सकता। जगन्नाथ
मंदिर प्रशासन के उप प्रशासक भास्कर मिश्रा ने कहा कि इस बार नंदोत्सव के
दौरान महिलाओं की सेवा नहीं ली जा सकी। उन्होंने कहा कि भगवान कृष्ण के
जन्मोत्सव में देवदासियां उनकी मां की भूमिका में होती हैं। भास्कर मिश्रा
ने कहा कि 80 साल पहले इस मंदिर में दर्जनों देवदासियां थीं, लेकिन अब केवल
दो शशिमणि और पारसमणि रह गई हैं। उन्होंने कहा कि 85 वर्षीय शशिमणि के
बाएं पैर में फ्रैक्चर होने के कारण वह बिस्तर पर हैं, वहीं पारसमणि ने भी
लंबे समय से मंदिर आना बंद कर दिया है। मंदिर के पास अपने कमरे में बिस्तर
पर ही रहने को मजबूर शशिमणि कहती हैं कि वह अब सेवा नहीं कर सकतीं, जो वह
आठ साल की उम्र से करती आ रहीं हैं। उन्होंने कहा, ‘मैं आठ साल की उम्र में
महरी बन गई थी। मैं उस समय से मंदिर के अनुष्ठानों में भाग ले रही हूं।’
शशिमणि ने कहा कि लोग देवदासियों का सम्मान करते हैं। उन्होंने कहा कि
देवदासियों को भगवान जगन्नाथ की ‘जीवित पत्नी’ माना जाता है। उन्होंने कहा,
वह (भगवान जगन्नाथ) मेरे पति हैं और मैं उनकी पत्नी। इस बारे में कोई
विवाद नहीं है।’
उल्लेखनीय है कि महाराष्ट्र की देवदासियों ने इस
साल स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर मुंबई में अपना अर्धनग्न प्रदर्शन किया। वे
सरकार के सामने पहले ही अपनी मांगें कई बार रख चुकी हैं तथा विरोध
प्रदर्शन कर चुकी हैं। उन्हें उम्मीद है कि अब इस अनोखे अर्धनग्न प्रदर्शन
से सरकार दबाव में आ जायेगी और उनकी सुनवाई हो सकेगी। यह एक अलग ही प्रश्न
है, जो हमारे समाज की संरचना पर विचार करने के लिए मजबूर करता है कि इस
जमाने में भी देवदासी प्रथा जीवित क्यों है? यह प्रथा, जिसमें माना जाता है
कि इन महिलाओं का विवाह भगवान से हुआ है और वे उन्हीं की सेवा के लिए
मंदिर के प्रांगण में रहती है, की हकीकत का सभी को पता है। यह बात किसी से
छिपी नहीं है कि ये महिलायें निराश्रित और बदहाल होती हैं। इन्हें भगवान
जैसे निर्जीव चीज की सेवा की आड़ में पुजारियों और मठाधीशों की सेवा करनी
पड़ती है।
यह शुद्ध रूप से धर्मक्षेत्र की वेश्यावृत्ति है, जिसे
धार्मिक स्वीकृति हासिल है। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने इन देवदासियों,
जिन्हें जोगिनियां भी कहा जाता है, के बच्चों की स्थिति का संज्ञान लिया और
आंध्र प्रदेश सरकार से पूछा कि उसने इन बच्चों के कल्याण के लिए क्या किया
है? 2007 में सुप्रीम कोर्ट को एक पत्र मिला था, जिसमें इन बच्चों की
दुर्दशा को बयान किया गया था, जिसे कोर्ट ने जनहित याचिका मान लिया था।
मानवाधिकार आयोग के 2004 की एक रिपोर्ट में इन देवदासियों के बारे में
बताया गया है कि देवदासी प्रथा पर रोक के बाद वे देवदासियां नजदीक के इलाके
में या शहरों में चली गई, जहां वे वेश्यावृत्ति के धंधें में लग गई। 1990
के एक अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक 45।9 प्रतिशत देवदासियां एक ही जिलें में
वेश्यावृत्ति करती हैं तथा शेष अन्य रोजगार जैसे खेती-बाड़ी या उद्योगों
में लग गईं। 1982 में कर्नाटक सरकार ने और 1988 में आंध्र प्रदेश सरकार ने
देवदासी प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन कर्नाटक के 10 और आंध्र
प्रदेश के 15 जिलों में अब भी यह प्रथा कायम है।
इस प्रथा को कई
सारे दूसरे स्थानीय नामों से भी जाना जाता है। राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी
अपनी तरफ़ से पहल कर इन महिलाओं के बारे में जानकारी एकत्र करने के लिए
राज्य सरकारों से सूचना मांगी। इसमें तमिलनाडु आदि कई राज्यों ने कहा कि
उनके यहां यह प्रथा समाप्त हो चुकी है। उड़ीसा में बताया गया कि केवल पुरी
मंदिर में एक देवदासी है, लेकिन आंध्र प्रदेश ने 16,624 देवदासियों का
आंकड़ा पेश किया। महाराष्ट्र सरकार ने कोई जानकारी नहीं दी। जब महिला आयोग
ने उनके लिए भत्ते का एलान किया, तब आयोग को 8793 आवेदन मिले, जिसमें से
2479 को भत्ता दिया गया। बाकी 6314 में पात्रता सही नहीं पायी गई।