Sunday, September 29, 2013

भले वो कास्‍ट में शादी करवाने पर तुली रहें। वो भी जानती हैं, उनकी चलने वाली तो है नहीं


Manisha Pandey
अभी थोड़ी देर पहले पापा का फोन आया था। कहने लगे, "एक खुशखबरी है।"
"खुशखबरी? वॉव। ग्रेट। क्‍या हुआ पापा?"
"तुम्‍हारी मम्‍मी को अभी बैठे-बैठे एक ज्ञान मिला है। वो बोलीं कि सब धर्म बेकार हैं। सब धर्मों का नाश हो जाना चाहिए। मंदिर-मस्जिद में कुछ नहीं रखा। मुझे तो लगता है कि भगवान भी कुछ होता नहीं है। सब मनगढंत बातें हैं।"
"सुधा, तुसी ग्रेट हो। 52 साल लग गए तुमको ये बात समझने में।"
खैर फिर भी पापा बहुत खुश। बोले, "सुन लो, तुम्‍हारी मां क्‍या कह रही हैं। दिमाग पर चढ़ी धूल-मिट्टी की पर्तें उतर रही हैं। मां बदल रही हैं।"
लेकिन इन सबके बीच मां ने फिर हमारी खुशी के गुब्‍बारे में सूई चुभा दी। बोलीं, "लेकिन शादी तो अपनी ही कास्‍ट में होनी चाहिए। अदर कास्‍ट में नहीं।"
मैंने और पापा ने अपना सिर पीट लिया। पापा बोले, "कोई नहीं, इतना समझी हैं तो आगे भी समझ जाएंगी।"
वैसे मां बोलती रहती हैं कि शादी अपनी कास्‍ट में, अपनी कास्‍ट में, अपनी कास्‍ट में। लेकिन सुनता कौन है। न उनके पति सुनते हैं और न बेटियां।

(कोई इसे मेरा मां विरोधी स्‍टेटमेंट न मान ले, इसलिए कह रही हूं कि वैसे अम्‍मा हैं बहुत प्‍यारी। हम सब उनको बेहद प्‍यार करते हैं। भले वो कास्‍ट में शादी करवाने पर तुली रहें। वो भी जानती हैं, उनकी चलने वाली तो है नहीं।)

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