Showing posts with label सूर्पनखा प्रगतिशील संस्कृति की रोल मॉडल हैं. Show all posts
Showing posts with label सूर्पनखा प्रगतिशील संस्कृति की रोल मॉडल हैं. Show all posts

Sunday, March 10, 2013

सूर्पनखा प्रगतिशील संस्कृति की रोल मॉडल हैं


Published On: Wed, Oct 5th, 2011

सूर्पनखा की नाक काटने वाले लक्ष्‍मण का भी दहन करें!

♦ विजयेंद्र सिंह
राम और लक्ष्मण दंडका की संप्रभुता का उलंघन करते हैं। सूर्पनखा गण-कन्या थी। उसका अपना गण-राज्य था। बिना अनुमति के किसी राज्य में प्रवेश करना तो सीमा का उलंघन ही था। इस अमर्यादित आचरण के लिए राम- लक्ष्मण दोनों भाई जिम्मेवार थे। सूर्पनखा का न्याय कितना बेहतर था कि सजा के रूप में राम का हाथ मांगा, प्यार मांगा। राम झूठ बोलते हैं और कहते हैं कि मेरे साथ तो सीता है, लक्ष्मण अकेला है ..। और टाइम पास के लिए लक्ष्मण की ओर जाने को कहते हैं। बहुत भद्दा दृश्य है। राम का सामंती और मर्दवादी चेहरा उभर कर सामने आता है। एकदम स्त्री विरोधी चरित्र? प्रणय की ही तो बात की थी सूर्पनखा ने, कौन सा अपराध कर दिया था? कम से कम सीता की तरह बेवकूफ औरत तो सूर्पनखा नहीं ही थी। सीता की नापसंद और पसंद का क्या अर्थ था? सीता से ज्यादा मूल्यवान तो वह निर्जीव धनुष था, जो उसे तोड़ता उसके साथ सीता बांध दी जाती। सीता का व्यक्तित्व एक वस्तु से ज्यादा कुछ था ही नहीं? संयोग से दशरथ का बेटा धनुष तोड़ता है अन्यथा अपराधी भी धनुष तोड़ता तो सीता को उनके साथ जाना होता?
सूर्पनखा प्रगतिशील संस्कृति की रोल मॉडल हैं। आधुनिक स्त्री को इस पर गर्व करना चाहिए। लोहिया ने भी कहा था कि सीता के बजाय द्रौपदी स्त्री मुक्ति की आवाज है।
लक्ष्मण ने सूर्पनखा की ही नाक नहीं काटी, बल्कि स्त्री-जाति पर नकेल कसने की साजिश थी वो? सूर्पनखा उस समय गंधर्व-संस्कृति का हवाला देती है। उनके सपनों का समाज आज बनता दिख रहा है। आज गंधर्व-रीति से भी समाज बहुत आगे आ गया है। सहजीवन ही नहीं, बल्कि समलैंगिकता से भी आगे की बात हो चुकी है। सूर्पनखा के योगदान को भुलाना उचित नहीं होगा? यथास्थितिवादियों की दृष्टि में सूर्पनखा अराजकतावादी हो सकती हैं, पर इस समझ का क्या करना है?
दलित को बदसूरत बना कर पेश करना एक आदत है। उनकी स्वतंत्रता का मजाक उड़ाने के लिए ही तो तुलसी को महान बनाया गया। आज जबकि सूर्पनखा हर घर की मॉडल है, आज संप्रभुओं की हर बेटियां सूर्पनखा की राह पर है, संप्रभु स्त्री स्वतंत्र हो तो सुष्मिता और दलित करे तो सूर्पनखा? राम की संस्कृति हार रही है। इसे हारना ही है। गुस्सा रावण पर उतारा जा रहा है। खिसियाई बिल्ली खंभा नोचे? रावण ने मेहनत कर सोने की लंका बनायी थी, कोई अयोध्या को लूट कर नहीं। आज भी दलित-वंचितों की लंका जल रही है। उनकी गाढ़ी कमाई पर रामवंशियों की गिद्ध दृष्टि आज भी लगी है। रावण को जलाने वालों का चेहरा पहचानो। ये सभी भारत का भविष्य जलाने वाले हैं। राम का भी अपराध कम नहीं। आओ नये दहन की शुरुआत करें।
(विजयेंद्र सिंह। जर्नलिस्‍ट-एक्टिविस्‍ट। दिल्‍ली से प्रकाशित दैनिक स्‍वराज खबर के प्रधान संपादक।
सनातनी और धार्मिक पीठों में दलितों के नेतृत्‍व के लिए संघर्षरत।
उनसे babavijayendra@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)