Saturday, January 4, 2014

जीवन का मकसद दुबेजी-तिवारी-चौबेजी की दुनिया में सुरक्षित होकर रहना नहीं


Manisha Pandey
एक नए पैदा हुए बच्‍चे को लगता है कि मां की गोद ही पूरा संसार है। फिर जब वह गोद से उतरकर घर में चलने-फिरने लगता है तो उसे पता चलता है कि संसार ये चार कमरे, रसोई, आंगन, बगीचा, बालकनी और छत भी है। फिर जब वह स्‍कूल जाना शुरू करता है कि समझता है कि संसार में स्‍कूल है, स्‍कूल के ढेर सारे बच्‍चे हैं, टीचर हैं, मोहल्‍ले के दोस्‍त हैं, स्‍कूल के रास्‍ते में दिखने वाले लोग हैं, मकान हैं, दुकानें हैं। फिर बच्‍चा बड़ा होता जाता है और पता चलता है कि संसार एक बहुत बड़ा सा शहर है, जहां तरह-तरह की चीजें हैं। फिर वो सारे शहर उसके संसार का हिस्‍सा होते जाते हैं, जहां नानी, चाची, बुआ, ताऊ और तमाम रिश्‍तेदारों के यहां शादी-ब्‍याह, जन्‍म और मरण में जाना होता है। या वो शहर, जहां वह नौकरी करने जाता है। जीवन आगे बढ़ता है और अपनी जाति, अपने धर्म, अपने कुटुंब के वही परिचित, दोस्‍त, रिश्‍तेदार और पट्टीदार ही एक मनुष्‍य का सारा संसार होकर रह जाते हैं। बाकी की दुनिया सिर्फ ग्‍लोब पर बारीक अक्षरों में लिखा हुआ कोई नाम भर है।

- अब अपनी जाति, अपने धर्म, अपने कुटुंब, अपने परिवार और रिश्‍तेदार के संकरे कुएं में पूरा जीवन बिता देने वाला इंसान ये कैसे जानेगा कि संसार बहुत बड़ा है, संस्‍कृतियां बहुत सारी। अनगिनत लोग, विचार, जीवन और अनुभवों का विराट संसार। और जीवन का मकसद दुबेजी-तिवारी-चौबेजी की दुनिया में सुरक्षित होकर रहना नहीं, जीवन का मकसद अनुभवों के उस विराट संसार की सैर है।

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