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Sunday, October 16, 2011

भूखें रहें | मासूम रहें | जिज्ञासु रहें | गलतियां करें…

http://mohallalive.com/2011/10/06/you-ve-got-to-find-what-you-love/
एपल के जरिये दुनिया को तकनीकी उद्यमिता का सबसे चमकदार चश्‍मा दिखाने वाले स्‍टीव जॉब्‍स अब हमारे बीच नहीं हैं। छह साल पहले स्‍टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के छात्रों के बीच उन्‍होंने एक व्‍याख्‍यान दिया था। वह व्‍याख्‍यान जिंदगी और जज्‍बा के बीच एक बेहद मजबूत पुल की तरह है। मूल अंग्रेजी में उसका टेक्‍स्‍ट यहां है, ‘You’ve got to find what you love,’ Jobs says जागृति यात्रा के निदेशक स्‍वप्निल कांत दीक्षित ने मोहल्‍ला लाइव के लिए जॉब्‍स के इस जरूरी व्‍याख्‍यान का हिंदी अनुवाद किया है। यह हम सब युवा उद्यमियों की ओर से स्‍टीव जॉब्‍स को श्रद्धांजलि की तरह भी है : मॉडरेटर
धन्यवाद!
मुझे गर्व है कि मैं आपके साथ हूं, आपकी दीक्षा के दिन। दुनिया के सबसे बेहतरीन विश्वविद्यालयों में से एक में। सच कहूं तो, मैंने कभी कॉलेज की पढ़ाई पूरी ही नहीं की। कॉलेज के दीक्षांत समारोह के इतना नजदीक मैं पहले नहीं गया। आज मैं आपको अपने जीवन की तीन कहानियां सुनाऊंगा। बस इतना ही, कुछ खास नहीं। महज तीन कहानियां।
पहली कहानी है, बिंदुओं को जोड़ कर देखने के बारे में। रीड कॉलेज को अपने पहले ही छह महीनों में मैंने छोड़ दिया, मगर मैं वहीं पड़ा रहा, अगले करीब 18 महीनों तक, उसे पूरी तरह छोड़ने के पहले। तो आखिर मैंने बीच में ही ये क्यों छोड़ा? ये मेरे जन्म से जुड़ी बात है। मेरी असली मां एक युवा, अविवाहित स्नातक छात्र थीं, और उन्होंने फैसला लिया मुझे गोद देने का। वो इस बात पर अड़ी थीं कि मुझे गोद लेने वाले स्नातक पढ़े-लिखे लोग हों, तो सारा इंतजाम पुख्ता था कि मुझे जन्म लेते ही एक वकील और उनकी पत्नी अपना लेंगे। बस गड़बड़़ इतनी ही हुई कि जब मैं प्रकट हुआ तो उन्होंने ये फैसला लिया कि उन्हें तो एक लड़की चाहिए। तो मेरे अभिभावकों को, जो कि वेट-लिस्ट में थे, रात में ही फोन कर के पूछा गया : “हमारे पास एक नवजात नर शिशु है – क्या आप उसे गोद लेंगे?” उन्होंने कहा : “क्यों नहीं”। मेरी असली मां को बाद में पता चला कि मेरी मां ने कॉलेज की पढ़ाई पूरी नहीं की थी। उन्होंने गोद देने के कागजातों पर दस्तखत करने से इंकार कर दिया। उन्होंने कई महीनों बाद इसकी इजाजत दी, जब मेरे माता-पिता ने वादा किया कि मुझे कॉलेज भेजा ही जाएगा। ये मेरे जीवन की शुरुआत थी। और करीब 17 साल बाद, मैं वास्तव में कॉलेज गया। मगर बड़ी मासूमियत से मैंने ऐसा कॉलेज चुना, जो लगभग स्टेनफोर्ड जितना महंगा था, और मेरे कामगार माता-पिता की सारी गाढ़ी कमाई मेरे कॉलेज की फीस में जा रही थी।
छह महीने बीतने पर, मुझे लगा कि इस शिक्षा से खास फायदा नहीं है। मुझे कुछ नहीं पता था कि मैं अपने जीवन के साथ क्या करूंगा और ये भी नही पता था कि ये जानने में कॉलेज कैसे मेरी मदद करेगा। और उसके बावजूद भी मैं, अपने माता-पिता के जीवन भर की कमाई लुटा रहा था। तो मैंने कॉलेज छोड़ने का फैसला लिया और विश्वास किया कि सब ठीक हो जाएगा। उस समय ये डरावना फैसला था, मगर पलट कर देखने से लगता है ये मेरे द्वारा लिये गये सबसे बेहतरीन फैसलों में था।
जिस क्षण मैंने कॉलेज छोड़ा, मैंने उन क्लासों में जाना बंद कर दिया जिनमें मेरी कोई रुचि नहीं थी, और उन सब क्लासों में बैठने लगा, जो मुझे रुचिकर लगती थीं।
ये उतना भी हसीन सफर नहीं था। मेरे पास हॉस्‍टल में कमरा नहीं था, तो मैं दोस्तों के कमरों में फर्श पर सोता था, कोक की खाली बोतलें 5 पैसे में वापस कर के, उससे खाना खरीदता था, और हर रविवार की रात को 7 मील पैदल चलकर हरे-कृष्ण मंदिर में हफ्ते में एक बार ढंग का खाना खाता था।
मुझे ये बहुत अच्छा लगता था। और जो भी मैंने सिर्फ अपनी जिज्ञासा और रुचि के लिए सीखा, वो बाद में जा कर अमूल्य सिद्ध हुआ। चलिए, आपको एक उदाहरण देता हूं…
रीड कॉलेज में उस समय शायद पूरे देश का सबसे अच्छा सुलेख (कैलिग्राफी) कोर्स चलता था। सारे कैंपस में हर पोस्टर, हर खांचे पर लगा हर लेबल बेहतरीन तरीके से हाथ से सुलेखित था। क्योंकि मैं पढ़ाई छोड़ चुका था, और मुझ पर क्लास जाने का दबाव नहीं था, मैंने फैसला किया कि मैं इस कोर्स के जरिये सुलेख लिखना सीखूंगा। मैंने सेंस और सेंस-सेरिफ आदि टाइपफेस सीखे, और अलग-अलग अक्षरों के बीच जगह को बढ़ाना और घटाना सीखा, और कैसे अच्छा सुलेख और टाइपोग्राफी अच्छी बनती है, ये सीखा। वो सुंदर था, ऐतिहासिक था और कलात्मकता से ऐसे ओत-प्रोत जो विज्ञान नहीं समझा सकता, और मैंने स्वयं को उससे बंधा पाया। और इस सब से कभी भी मेरे जीवन में काम आने की कोई आशा नहीं थी। मगर दस साल बाद, जब हम अपना पहला मैकिन्‍टोष कंप्‍यूटर बना रहे थे, वो सब मेरे काम आया। और हमने वो सारी बाते मैक में निहित कर दीं। ये पहला ऐसा कंप्‍यूटर था, जिसमें सुंदर टाइपोग्राफी थी। यदि मैंने वो एक कोर्स अपने कॉलेज में नहीं किया होता, तो मैक में कभी भी तमाम टाइप-फेस और अनुपात में सजे सुंदर फोंट नहीं होते। और क्योंकि विन्डोज ने मैक की नकल ही की है, ये संभव है कि कभी पीसी पर भी वो नहीं ही होते। यदि मैंने कॉलेज बीच में नहीं छोड़ा होता, तो कभी भी मैं सुलेख की उस क्लास में नहीं जा पाया होता, और पर्सनल कंप्‍यूटर में शायद ये रोचक टाइपोग्राफी नहीं होती, जो आपको दिखती है।
जाहिर है जब मैं कॉलेज में था, इन बिंदुओं को जोड़ कर देख पाना असंभव था। लेकिन वो साफ-साफ समझ आ रहा था, उस समय के दस साल बाद।
देखिए, आप भविष्य में जुड़ने वाले बिंदुओं को नहीं जोड़ पाएंगे लेकिन मुड़ कर देखने पर आप उन्हें आसानी से जोड़ सकते हैं। लिहाजा आपको ये विश्वास रखना होगा कि भविष्य में ये बिंदु कैसे न कैसे जुड़ ही जाएंगे। आपको किसी चीज में विश्वास रखना होगा – चाहे उसे अंदर की आवाज कहें, तकदीर कहें, जीवन, कर्म, जो भी कहें। क्योंकि ये मान कर चलना कि ये बिंदु जुड़ेंगे, आपको अपने दिल को काम करने का आत्म-विश्वास देगा। तब भी जब कि आप सबसे अलग रास्ते पर जाएं। और यही आपके जीवन में फर्क लाएगा।
मेरी दूसरी कहानी है प्रेम और क्षति के बारे में। मैं बहुत नसीबवाला था – मुझे जल्दी पता लग गया कि मैं क्या करना चाहता था। वोज और मैंने एप्पल की शुरुआत अपने माता-पिता के गैरिज से की थी, जब मैं 20 साल का था। हमने मेहनत की, और दस साल में एप्पल सिर्फ हम दोनों की कंपनी, जो एक गैरिज में थी, से बढ़ कर 2 बिलियन डॉलर और 4000 कर्मचारियों की हो गयी थी। सिर्फ एक साल पहले ही हमने अपना सबसे अच्छा उत्पाद – मैकिन्टोष – निकाला था, और मैं तुरंत ही 30 वर्ष का हुआ था…
…और फिर मुझे कंपनी से निकाल फेंका गया।
आप उस कंपनी से कैसे निकाले जा सकते हैं, जो आपने शुरू की हो? हुआ ये था कि एप्पल की बढ़त के साथ हमने किसी को कंपनी में रखा था, ये सोच कर कि वो बहुत होनहार है। करीब एक साल तक सब कुछ ठीक चला। पर उसके बाद भविष्य की हमारी योजनाओं में फर्क आने लगा और हम एक दूसरे से पूर्णतः असहमत हो गये। जब ऐसा हुआ, तो हमारे निदेशकों के बोर्ड ने उसका साथ दिया।
मैं तीस साल का था और कंपनी से बाहर था। और बहुत ही शोर-शराबे के साथ बाहर। मेरे वयस्‍क जीवन का एकमात्र केंद्र-बिंदु मेरे जीवन से बाहर था, और ये मेरे लिए सदमा था। मुझे अगले कुछ महीनों तक तो समझ ही नहीं आया कि मैं क्या करूं। मुझे लगा कि मैंने उद्यमियों की पीढ़ियों को शर्मसार कर दिया है। कि जैसे ही रिले-रेस का डंडा मेरे हाथ आया, मैंने उसे गिरा दिया। मैं डेविड पकार्ड (एचपी के संस्थापक) और बॉब नोयेस से मिला और इतने खराब प्रदर्शन के लिए माफी मांगी। मेरी असफलता जग-जाहिर हो गयी थी। मैं बदनाम था। मुझे लगा कि मैं सिलिकोन-वैली से भाग जाऊं…
…मगर धीरे-धीरे मेरे अंदर एक बीज स्फुटित हुआ। मैं अब भी उसे प्यार करता था, जो मैं करता था। एप्पल में हुए घटनाक्रम ने मेरे और मेरे काम के बीच के लगाव को जरा भी कम नहीं किया था। मेरा तिरस्कार किया गया था, मगर अब भी मुझे इश्क था। और मैंने फैसला किया कि मैं फिर से शुरुआत करूंगा।
मैं तब ये नहीं देख पा रहा था, मगर एप्पल से निकाल दिये जाने से अच्छा मेरे जीवन में आज तक कुछ हुआ ही नहीं। सफलता में चूर होने के भारी-भरकम बोझ की जगह नौसिखिया होने की ताजगी ने ले ली थी, हर बात के बारे में कम सुनिश्चितता। इसने मुझे मेरे जीवन के सबसे रचनात्मक दौर में प्रवेश दिया। अगले पांच साल में, मैंने “नेक्स्ट” नाम की कंपनी शुरू की, फिर एक और “पिक्सार” नाम की कंपनी, और मुझे उस औरत से इश्क भी हुआ, जो बाद में मेरी पत्नी बनने वाली थी। पिक्सार ने कंप्‍यूटर पर रची गयी विश्व की पहली कार्टून फिल्म बनायी – टॉय स्टोरी, और आज वो विश्व की सबसे सफल कंप्‍यूटर एनिमेशन की कंपनी है। आश्चर्यजनक घटनाक्रम में, एप्पल ने नेक्स्ट को खरीद लिया, और मैं वापस एप्पल आ गया, और जो तकनीकें हमनें नेक्स्ट में विकसित की थीं, वो एप्पल के दुबारा जीवंत होने के लिए जिम्मेदार हैं। और लौरीन और मेरे पास एक सुंदर सुखी परिवार है।
मेरा यकीन है कि ऐसा कुछ न हुआ होता, यदि मैं एप्पल से निकाला न गया होता।
दवा का स्वाद अत्यंत कड़वा था, मगर शायद मरीज को उसकी निहायत जरूरत थी। कभी-कभी जीवन आपके सर को चट्टानों तले कुचलता है। उस समय अपना विश्वास मत छोड़िए। मैं आश्वस्त हूं कि केवल एक कारण से मैंने हार नहीं मानी – ये कि मुझे अपने काम से प्यार था। आपको ढूंढ़़ना होगा कि आप किसे प्यार करते हैं। ये बात आपके काम और आपके प्रेमियों पर बराबर लागू होती है। आपका काम आपके जीवन का एक बड़ा हिस्सा होगा, और इसलिए संतुष्ट रहने का एकमात्र तरीका है वो करना, जो आपको महान काम लगता हो। और महान काम करने का एकमात्र तरीका है, वो करना जिस से आपको प्रेम हो। यदि वो आपको अभी तक नहीं मिला है, तो ढूंढ़ते रहिए। ठहरिए मत। आशा मत छोड़िए। दिल के बाकी मामलों की तरह, आपको पता लग जाएगा जब वो आपको मिलेगा। और किसी भी महान दोस्ती की तरह, साल दर साल ये और बेहतर और बेहतर होता जाता है। तो ढूंढ़िए जब तक वो आपको न मिले। ठहरिए मत।
मेरी तीसरी कहानी है, मृत्यु के बारे में। जब मैं 17 साल का था, तो मैंने कह ये सूत्र पढ़ा था : “यदि हर दिन को जीवन के आखिरी दिन मान कर जियोगे, तो एक दिन जरूर तुम सही होगे।” उसने मुझ पर गहरी छाप छोड़ी… और तब से, पिछले 33 साल से, मैंने हर सुबह खुद को शीशे में देख कर पूछा है : “अगर ये मेरे जीवन का आखिरी दिन हो, तो क्या मैं वही करना चाहूंगा, जो मैं आज करने जा रहा हूं?” और जब भी लगातार कई दिनों तक इसका नकारात्मक जवाब मिलता है, मुझे पता लग जाता है कि कुछ बदलना जरूरी है। ये याद रखना कि मैं जल्द ही मर जाऊंगा, सबसे महत्वपूर्ण तरीका है जीवन के बड़े फैसले लेने का। क्योंकि लगभग सब कुछ – आपसे की जाने वाली आशाएं, सारा गर्व, असफलता का सारा डर, शर्मिंदगी से भय … ये सब मृत्यु के सामने बेमानी हो जाता है, और वही बचता है जो सबसे जरूरी है। ये याद रखना कि कि आपको एक दिन मरना ही होगा, सबसे अच्छा तरीका है जो मुझे पता है इस सोच द्वारा छले जाने का कि आप के पास खोने को कुछ है। दरअसल, आप तो पहले ही नंगे हैं। कोई कारण ही नहीं है अपने दिल की बात नहीं मानने का।
करीब एक साल पहले पता लगा कि मुझे कैंसर है। सुबह 7:30 पर एक जांच हुई, और उसने मेरी पाचक-ग्रंथि में एक ट्यूमर दिखाया। मुझे तो ये तक नहीं पता था कि पाचक-ग्रंथि होती क्या है। डॉक्टरों ने मुझे बताया कि इस तरह के कैंसर का कोई इलाज नहीं है, और मैं ज्यादा से ज्यादा तीन से छह महीने जीवित रहूंगा। मेरे डॉक्टर ने मुझे घर जा कर अपने काम-काज ठीक करने को कहा, जिसका मतलब है – मरने के लिए तैयार हो जाओ। इसका मतलब है कि कोशिश करो अपने बच्‍चों को वो सब बताने की, जो आप अगले दस साल में बताना चाहता थे, अब सिर्फ कुछ महीनों में ही। इस का मतलब है कि वो सब काम कर डालो, जिससे कि आपके परिवार को आपकी मृत्यु से कम-से-कम कष्ट हो। इसका मतलब है अलविदा कह लो।
मैं सारे दिन इस फैसले के साथ ही जिया। उस शाम को मेरी बायोप्सी हुई, और उन्होंने एक एन्डोस्कोप मेरे गले में उतारा, मेरे पेट से होते हुए, मेरी आंतों में, और मेरी पाचक-ग्रंथि के ट्यूमर में से कुछ सेल निकाले। मुझे बेहोश कर दिया गया था, मगर मेरी पत्नी, जो वहां थीं, ने मुझे बताया कि जब उन्होंने सूक्ष्म-दर्शी से उन सेलों को देखा, तो डॉक्टरों को रोना आ गया क्योंकि मेरा कैंसर पाचक-ग्रंथि के उन गिने-चुने कैंसरों में से था, जिसका इलाज संभव था। मेरी शल्य-क्रिया हुई, और भाग्य से, मैं अब ठीक हूं। मृत्यु के इतने करीब मैं कभी नहीं गया, और मैं चाहता भी नहीं अगले कुछ दशकों तक मैं और करीब जाऊं।
इस आपदा को झेल कर मैं आज आपसे और भी निश्चितता से कह सकता हूं कि मृत्यु एक उपयोगी मगर केवल सुनने में अच्छा लगने वाली संरचना है : कोई भी मरना नहीं चाहता। यहां तक कि जो लोग स्वर्ग जाना चाहते हैं, लेकिन वहां जाने के लिए मरना नहीं चाहते। और इसके बावजूद, मृत्यु हम सबकी साझी मंजिल है। कभी भी कोई भी इस से बच नहीं सका है। और ये ठीक भी है, क्योंकि मृत्यु शायद जीवन का महानतम अविष्कार है। ये जीवन का बदलाव लाने वाला मुनीम है। ये प्राचीन को हटा कर नवीन के लिए जगह बनाता है। इस समय आप ही नवीन हैं, मगर जल्द ही एक दिन आएगा, जब आप प्राचीन होंगे और आपको हटा दिया जाएगा।
इतनी नाटकीयता के लिए माफी चाहता हूं, मगर ये शाश्वत सत्य है। आपका जीवनकाल सीमित है; उसे दूसरे किसी की जिंदगी जीने में व्यर्थ न कीजिए। सिद्धांतों में मत फंसिए – जो कि दूसरों की सोच का निष्‍कर्ष है। दूसरों के मतों के शोर द्वारा अपनी अंदरूनी आवाज का कत्ल मत होने दीजिए। और सबसे जरूरी, अपने दिल और अपने मन की बात करने की हिम्मत रखिए। दिल और मन को पता होता है कि आप सच में क्या बनना चाहते हैं। बाकी सब द्वितीय है।
जब मैं युवा था, द होल अर्थ कैटालाग नाम का एक प्रकाशन होता था, जो कि मेरी पीढ़ी के लिए बाइबल जैसा था। उसे स्टीवार्ट ब्रांड नाम के एक व्यक्ति ने बनाया था, यहीं पास में ही – मैनलो पार्क में, और उसने अपने काव्यात्मक अंदाज से इसमें जान फूंक दी थी। ये 60 के दशक के अंत में हुआ था, पर्सनल कंप्‍यूटर वगैरह आने के पहले, और इसे टाइपराइटरों, कैंचियों और पोलारायड कैमरों की मदद से रचा गया था। ये गूगल के पेपरबैक रूप की तरह था, गूगल के आने के करीब 35 साल पहले : ये आदर्शवादी था, और पटा पड़ा था जादुई तरीकों, और महान आइडियों से। स्टीवार्ट और उसकी टीम ने द होल अर्थ कैटालाग के कई संस्करण निकाले, और फिर जब वक्त आ गया, तो उसका एक आखिरी संस्करण निकाला। ये सत्तर के दशक के बीच हुआ, और मैं आपकी ही उम्र का था। उस आखिरी संस्करण के पीछे गांव की एक सड़क की सुबह ली गयी तस्वीर थी, जैसी सड़क पर आप स्वयं को पाएंगे यदि आप बहुत उत्साही हों। उसके नीचे ये शब्द लिखे थे : “भूखे रहें। मासूम रहें।” (Stay Hungry… Stay Foolish… जिज्ञासु रहें, गलतियां करें।) जाते जाते वो ये ही विदाई – संदेश दे कर गये थे। भूखे रहें। मासूम रहें। और मैं अपने लिए सिर्फ यही दुआ करता हूं। और आपके दीक्षांत समारोह पर, मैं आपके लिए भी यही दुआ करता हूं। भूखे रहें। मासूम रहें। (जिज्ञासु रहें। गलतियां करें।)
आप सब का बहुत धन्यवाद।

Friday, October 7, 2011

ठुकरा दिया था माता-पिता ने

नई दिल्ली, राष्ट्रीय जागरण : संपत्ति और कॉरपोरेट जगत में सफलता के बावजूद स्टीव जॉब्स की छवि सिलिकन वैली के विद्रोही नायक जैसी रही। उनके काम करने का तरीके ऐसे थे कि कई बार काम करना मुश्किल हो जाता, मगर लोगों के बीच कौन सा उपकरण लोकप्रिय होगा इसकी समझ ने एप्पल को दुनिया के सबसे जाने-माने नामों में से एक बना दिया। स्टीवन पॉल जॉब्स का जन्म 24 फरवरी 1955 को सैन फ्रांस्सिको में हुआ था। मां जोआन शिबल थीं और सीरियाई मूल के पिता का नाम अब्दुल फतह जंदाली था। उनके मां-बाप ने बेटे को कैलिफोनियाई युगल पॉल और क्लारा जॉब्स को गोद दे दिया। उन्हें गोद देने के कुछ ही महीनों बाद स्टीव के असली मां-बाप ने शादी कर ली और उनकी एक बेटी मोना भी हुई, मगर मोना को अपने भाई के जन्म के बारे में तब तक नहीं पता चला जब तक वह वयस्क नहीं हुई। जॉब्स ने 1976 में वोजनिया की 50 मशीनें एक स्थानीय कंप्यूटर स्टोर को बेच दीं और उस ऑर्डर की कॉपी के साथ इलेक्ट्रॉनिक्स डिस्ट्रीब्यूटर को कहा कि वह उन्हें कलपुर्जे दे दें, जिसकी रकम अदायगी कुछ समय बाद हो पाएगी। जॉब्स ने एप्पल-1 नाम से मशीन लॉन्च की और यह पहली ऐसी मशीन थी जिससे उन्होंने किसी से धन उधार नहीं लिया और न ही उस बिजनेस का हिस्सा किसी को दिया। उन्होंने अपनी कंपनी का नाम अपने पसंदीदा फल पर एप्पल रखा। पहले एप्पल से हुआ लाभ बेहतर संस्करण का एप्पल-टू बनाने में लगा दिया गया जो कि 1977 के कैलिफोर्निया के कंप्यूटर मेले में दिखाया गया। नई मशीनें महंगी थीं, इसलिए जॉब्स ने स्थानीय निवेशक माइक मारकुला को मनाया कि वह ढाई लाख डॉलर का कर्ज दें और वोज्नियाक को साथ लेकर उन्होंने एप्पल कंप्यूटर्स नाम की कंपनी बनाई। जॉब्स ने 1985 में कंपनी में दोबारा वापसी की और बिना समय गंवाए उस समय के मुख्य कार्यकारी को हटा दिया और एप्पल के नुकसान को देखते हुए कई उत्पादों का निर्माण बंद कर दिया गया। जॉब्स ने इसके बाद कभी पलटकर नहीं देखा।
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=49&edition=2011-10-07&pageno=10#id=111723016531938602_49_2011-10-07

स्टीव ने बदल डाली प्रौद्योगिकी की दुनिया

न्यूयॉर्क, एजेंसी : कॉलेज की पढ़ाई बीच में छोड़ने से लेकर प्रौद्योगिकी कंपनी एप्पल की बुनियाद रखने और इसे 350 अरब डॉलर का साम्राज्य बनाने वाले अमेरिकी उद्यमी स्टीव जॉब्स ने पर्सनल कंप्यूटर, संगीत और मोबाइल फोन की दुनिया को बदलकर रख दिया। महज 56 साल के जीवनकाल में उनके द्वारा छोड़ी गई सूचना प्रौद्योगिकी और व्यवसाय दर्शन की विरासत लंबे समय तक याद की जाएगी। जॉब्स पिछले सात साल से पैंक्रियाज कैंसर से जूझ रहे थे। एनिमेशन कंपनी पिक्सर की बेशुमार सफलता के पीछे भी उनका हाथ रहा। इस कंपनी ने टॉय स्टोरी और फाइंडिंग नीमो जैसे लोकप्रिय उत्पाद पेश किए। स्टीव जॉब्स की जबर्दस्त मेहनत और दूरदर्शिता के कारण एप्पल के उत्पादों को बाजार में विशिष्ट ख्याति मिली। 24 फरवरी 1955 को जन्मे स्टीवन पॉल जॉब्स को पॉल और क्लैरा जॉब्स ने गोद लिया था। उनके असली माता-पिता का नाम जॉन कैरल शीबल और अब्दुलफतह जंदाली था। जंदाली सीरिया से आए छात्र थे, जो बाद में राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर बने। वित्त और रियल एस्टेट में काम करने वाले जॉब्स बाद में अपने मूल कारोबार मशीनें ठीक करने से जुड़ गए। अपने परिवार के साथ सैन फ्रांसिस्को पैनिंजुला से माउंटेन व्यू और 1960 में लॉस ऐल्टास चले गए। बचपन से ही स्टीव की रुचि इलेक्ट्रॉनिक्स में थी। आठवीं कक्षा की पढ़ाई के दौरान एक दिन कुछ पुर्जे जोड़कर फ्रीक्वेंसी काउंटर बना रहे थे। कुछ देर बाद उन्हें महसूस हुआ कि उसका कोई हिस्सा नहीं मिल रहा है। इसके बाद उन्होंने पूरे विश्वास के साथ ह्यलेट-पैकार्ड के सह-संस्थापक विलियम ह्यूलेट को फोन कर दिया। द न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक इसी 20 मिनट की बातचीत के आधार पर ह्यूलेट ने बालक स्टीव जॉब्स के लिए कुछ उपकरण जुटाकर एक थैला तैयार किया। ह्यूलेट स्टीव से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने जॉब्स को गर्मी की छुट्टियों के दौरान नौकरी की पेशकश कर दी। जॉब्स जब क्यूपर्टिनो के होमस्टीड में हाईस्कूल की पढ़ाई कर रहे थे, तो उनकी मुलाकात स्टीफेन वोज्निएट से हुई। उनके साथ मिलकर उन्होंने 1976 में एप्पल की स्थापना की। जॉब्स ने 1972 के दौरान पोर्टलैंड के रीड कॉलेज में दाखिला लिया, लेकिन एक सत्र के बाद पढ़ाई छोड़ दी। हालांकि, वह वहां ऑडिटिंग की पढ़ाई के लिए 18 महीने और रुके रहे। स्टैनफोर्ड में वर्ष 2005 में एक व्यख्यान में जाब्स ने कहा था कि उन्होंने कॉलेज छोड़ने का फैसला इसलिए किया, क्योंकि वहां पढ़ाई जारी रखने से उनके माता-पिता की बची कमाई खत्म हो जाती। वह वर्ष 1974 में सिलिकॉन वैली वापस लौटे और वीडियोगेम विनिर्माता कंपनी एटारी में तकनीशियन की नौकरी कर ली। कुछ ही महीने बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी और अपने कॉलेज के दोस्त डैनियल कोटके के साथ भारत की आध्यात्मिक यात्रा पर निकल पड़े। यह मित्र भी बाद में एप्पल के शुरुआती कर्मचारियों में शामिल हुआ। जॉब्स लौट कर फिर एटारी कंपनी में काम करने लगे। वह वोज्निएक के साथ होमब्रियु कंप्यूटर क्लब की बैठकों में हिस्सा लेना शुरू किया। वोज्निएक उस समय एचपी में बतौर इंजीनियर काम कर रहे थे। वह क्लब शौकिया लोगों का समूह था। क्लब के सदस्य 1975 में कैलिफोर्निया के मेन्लो पार्क में स्टैनफोर्ड लिनियर ऐक्सेलरेटर सेंटर में मिलते थे। स्टैनफोर्ड के इर्द-गिर्द की इकाइयों में उस समय पर्सनल कंप्यूटरों का विकास हो रहा था। वोज्निएक ने होमब्रियु में अपने दोस्तों को दिखाने के लिए पहले एप्पल कंप्यूटर एप्पल-1 का डिजाइन तैयार किया था। इसको देखकर जॉब्स ने एप्पल-1 के व्यावसायिक उत्पादन पर जोर दिया। वर्ष 1976 के जॉब्स और वोज्निएक ने अपने पास से 1,300 रुपये में कारोबार शुरू किया। कारखाने के नाम पर उनके पास जॉब्स परिवार का गैराज था। इसके बाद उन्हें इंटेल के पूर्व कार्यकारी एसी मरक्कुला की मदद मिली। उन्होंने दोनों को 2,50,000 डॉलर का कर्ज दिया। मूल एप्पल-1 कंप्यूटर का तकनीकी पक्ष वोज्निएक ने संभाला और उसको बाजार में कामयाब बनाने की जिम्मेदारी संभाली जॉब्स ने। इसके तुरंत बाद कंपनी ने क्यूपर्टिनो में एक छोटा दफ्तर खोला। यहीं से शुरू हुआ एप्पल का सफर एक बड़ी और सफल कंपनी के तौर पर तब्दील हुआ।

भिक्षु बनने का इच्छुक बना आइ-व‌र्ल्ड का आइकॉन

नई दिल्ली, एजेंसी : तीन सेब (एप्पल) ने दुनिया बदल दी। एक ने हव्वा (ईव) को लुभाया, दूसरे ने न्यूटन को जगाया और तीसरा सेब स्टीव जॉब्स के हाथ में आया और उन्होंने बदल डाली आइटी उपकरणों की परिभाषा। आधुनिक प्रौद्योगिकी जगत के सुपरस्टार स्टीव जॉब्स युवा अवस्था के दौरान निर्वाण की तलाश में भारत आए थे। जॉब्स महज 18 वर्ष की उम्र में अपने दोस्त डैन कोटके के साथ हरियाणा में रोहतक के नीम करौली बाबा से मिलने पहुंचे। दोनों अमेरिकी लड़कों ने कॉलेज की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर आध्यात्म की तलाश में गुरुओं की भूमि का रुख किया था। हालांकि, बहुत जल्द ही स्टीव को भारत अपनी कल्पना से कहीं ज्यादा गरीब नजर आया। वह देश की वास्तविक स्थिति और पवित्रता के प्रचार के बीच की असंगति से दंग रह गए। देखा जाए तो 70 के दशक की शुरुआत में भारत दौरे से असंतुष्ट होकर वापस लौटने के कारण ही स्टीवन प्रौद्योगिकी जगत पर ध्यान केंद्रित कर सके और आखिरकार एप्पल कंपनी की स्थापना की। 2000 के दशक में जब वह भारत में कंप्यूटर संयंत्र स्थापित करने के बारे में सोच रहे थे, तो उन्हें लगा कि यहां कारोबार करना सस्ता नहीं रह गया है। मैकेंटोस कंप्यूटर, आइपॉड, म्यूजिक प्लेयर्स, आइफोन और आइपैड टैबलेट पीसी जैसे उत्पाद पेश करने वाले स्टीव विलक्षण व्यक्ति थे। उनकी जीवनी द लिटल किंगडम-द प्राइवेट स्टोरी ऑफ एप्पल कंप्यूटर में जॉब्स ने कहा है कि यह पहला मौका था, जब मुझे लगने लगा था कि विश्व को बेहतर बनाने के लिए कार्ल मा‌र्क्स और नीम करौली बाबा ने मिलकर जितना किया है, शायद थॉमस एडिसन ने अकेले उससे ज्यादा किया है। किताब में जाब्स को यह कहते हुए पेश किया गया कि हमें ऐसी जगह नहीं मिल सकती थी, जहां महीने भर में निर्वाण प्राप्त किया जा सके। जब तक वह कैलिफोर्निया वापस लौटे अतिसार के चलते पहले से ज्यादा दुबले थे। लौटने पर उनके बाल छोटे-छोटे थे और वह भारतीय परिधान पहने हुए थे। वर्षो बाद 2006 में बात चली कि एप्पल अपने मैक और अन्य उत्पादों के विनिर्माण में मदद के लिए बेंगलूर में 3,000 कर्मचारियों वाला एक केंद्र स्थापित करने पर विचार कर रहा है। कहा गया कि कंपनी ने 30 लोगों को नियुक्त भी किया है, लेकिन अमल नहीं हो सका। कंपनी को भारत में कदम रखना इतना सस्ता नहीं लगा, जितना उसने सोचा था।ं

Thursday, October 6, 2011

तीन सेबों ने पूरी दुनिया बदल दी......


हते हैं कि तीन सेबों ने पूरी दुनिया बदल दी। जन्नत के वर्जित सेब ने, आइजक न्यूटन के सामने गिरे सेब ने और स्टीव जॉब्स के सेब यानी एप्पल ने। सेब को फल से मशीन बना देने वाले जॉब्स शायद दुनिया के सबसे मशहूर बिजनेसमैन होंगे।
एप्पल कंप्यूटर को दुनिया के सामने लाने वाले लोग स्टीव जॉब्स को एक कामयाब बिजनेसमैन, एक बेहतरीन आविष्कारक, एक निरंकुश लीडर और एक जिद्दी इंसान के तौर पर जानते हों लेकिन उनसे जुड़े लोग बताते हैं कि वह किसी बच्चे से कम नहीं थे। किसी नये प्रोडक्ट को लेकर जॉब्स का लगाव लड़कपन की हद तक चला जाता था और उन्हें चैन तभी आता, जब उस प्रोडक्ट की कामयाबी पक्की हो जाती।
कई महान अमेरिकी कंपनियों की तरह जॉब्स ने भी एप्पल की शुरुआत अपने गैरेज में की थी। नाम एप्पल जरूर रखा गया और इसका निशान भी जन्नत के प्रतिबंधित फल की तरह दिखता है, जिसकी एक बाइट ली जा चुकी है। एप्पल का पहला लोगो भी एक सेब का पेड़ था, जिसके नीचे आइजक न्यूटन बैठे दिखते थे। बाद में जब लोगो बदला तो जॉब्स के पसंदीदा म्यूजिक बैंड बीटल्स के साथ उनका झगड़ा भी हुआ। एप्पल का लोगो बीटल्स की कंपनी के लोगो से मिलता जुलता था। पर बाद में सब सुलझ गया।
अलग सोच वाले जॉब्स
खिरी छोर से शुरुआत करने वाले जॉब्स का काम बिलकुल अलग हुआ करता। जब दुनिया ब्लैक एंड व्हाइट कंप्यूटर को बेहतर बनाने के चक्कर में फंसी थी, उन्होंने इसे रंगीन बना दिया। जब की बोर्ड को बेहतर बनाने पर बहस चल रही थी, उन्होंने कंप्यूटर में माउस डाल दिया और जब कंप्यूटर की दुनिया कीबोर्ड और मॉनिटर में सामंजस्य बनाने के उलझन में फंसी थी, उन्होंने कीबोर्ड को मॉनिटर में ही घुसा दिया।
सीरियाई मुस्लिम पिता और अमेरिकी मां के बेटे स्टीव जॉब्स को कभी भी अपने असली मां बाप का प्यार नहीं मिल पाया। छोटी उम्र में ही उन्हें जॉब्स दंपति ने गोद ले लिया और 10-11 साल की उम्र में जब उन्होंने नासा के कार्यालय में पहली बार कंप्यूटर देखा, तो उसमें उन्हें अपना भविष्य दिख गया। पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर 21 साल की उम्र में उन्होंने एक और स्टीव, स्टीव वोजनियाक के साथ गैरेज में कंप्यूटर बनाना शुरू कर दिया और पहले दिन से ही एक पक्के सेल्समैन की तरह इसे बेचने पर ध्यान देने लगे।
अध्‍यात्‍म का रुख
बीच में ऐसा भी वक्त आया, जब उन्होंने कंप्यूटर छोड़ अध्‍यात्‍म की सोची और आध्‍यात्‍मिक गुरु नीम करोली बाबा से मिलने भारत का रुख कर लिया। लेकिन जब वह भारत पहुंचे, तो पता चला कि बाबा गुजर चुके हैं। फिर उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया और कभी लंबे बाल रखने वाले स्टीव जॉब्स भारत से सिर मुंडवा कर लौटे। जॉब्स भले ही अध्‍यात्‍म की धारा से लौट आये हों लेकिन कंप्यूटर की पूरी दुनिया उन्हें अपना आध्‍यात्‍मिक गुरु मानती है।
1980 का दशक आते आते एप्पल उस वक्त के कंप्यूटर चैंपियन आईबीएम को टक्कर देने लगा और सिर्फ 27 साल की उम्र में जॉब्स की तस्वीर पहली बार टाइम के पहले पन्ने पर छपी। लेकिन उनका जीवन भी अद्भुत विरोधाभास रहा। उन्होंने जिस कंपनी की नींव रखी, उसी ने उन्हें बर्खास्त कर दिया। उन्हें जॉन स्कली ने पिंक स्लिप पकड़ा दी, जिन्हें वह खुद पेप्सी से एप्पल में लाये थे। बहुत जल्दी अमेरिका की बड़ी मैगजीनों के पहले पन्ने पर उनकी तस्वीर दोबारा छपी। इस बार हेडलाइन छपा, “फॉल ऑफ स्टीव जॉब्स।”
हालांकि जॉब्स खुद इसे अपनी जिंदगी का एक बेहतरीन पड़ाव मानते हैं। उन्होंने कभी कहा था, “एप्पल से मुझे निकाला जाना मेरे जीवन के सबसे सुंदर अनुभवों में एक रहा है।”
स्टीव का वनवास
जॉब्स की जॉब चली गयी। लेकिन कंप्यूटर नहीं छूटा। नेक्स्ट के नाम से नयी कंपनी बना ली, जिसने कामयाबी भी हासिल की। पर एप्पल से भावनात्मक जुड़ाव बना रहा। एप्पल ने 1990 के दशक में नेक्स्ट को खरीद लिया और जब खुद एप्पल दिवालियेपन की कगार पर पहुंच गयी, तो उन्हें उम्मीद सिर्फ जॉब्स में ही दिखी। उन्हें दोबारा बुला लिया गया। 12 साल के वनवास के बाद 1996 में जॉब्स अपने दिल के करीब एप्पल में लौट आये। उसके बाद जो कुछ हुआ, दुनिया जानती है।
सिर्फ एक डॉलर की तनख्वाह लेने वाले जॉब्स ने मैकिनटॉश कंप्यूटर और आईपॉड जैसे प्रोडक्ट्स बना कर इलेक्ट्रॉनिक दुनिया को अपना दीवाना बना दिया। मार्केट में हर मोर्चे पर उनकी जीत हो रही थी लेकिन निजी जीवन में वह कुदरत से हार रहे थे। दुर्लभ व्यक्ति एक दुर्लभ कैंसर का शिकार हो गया, जिसने उसकी सेहत को खाना शुरू कर दिया। पूरी बाजू वाली काली टीशर्ट और जींस पहन कर सामने आने वाले जॉब्स के चेहरे पर अचानक झुर्रियां नजर आने लगीं। बदन कमजोर दिखने लगा। लीवर भी बदलवाना पड़ा। लेकिन कंप्यूटर का जुनून खत्म नहीं हुआ। जून, 2011 में वह आखिरी बार सामने आये।
आईफोन की दुनिया
प्पल ने 2007 में खुद को पर्सनल कंप्यूटर के खांचे से निकाल लिया और कभी कीबोर्ड को मॉनिटर में घुसा देने वाले जॉब्स ने पूरा का पूरा कंप्यूटर टचस्क्रीन वाले आईफोन में डाल दिया। दुनिया का पहला स्मार्टफोन पैदा हो चुका था, जिसने मोबाइल की दुनिया को दो हिस्सों में बांट दिया। एक आईफोन वाली दुनिया, दूसरी बिना आईफोन वाली।
लेकिन उन्हें अपनी सेहत का आभास हो गया था। जनवरी में ही वह लंबी छुट्टी पर चले गये और दो महीने पहले इस्तीफा दे दिया था। उस वक्त उन्होंने लिखा था कि एप्पल के बेहतरीन दिन अभी आने बाकी हैं। शायद उन्हें इस बात का अहसास था कि उनके बगैर कंपनी को मुश्किल होगी। कंपनी भी इस बात को जानती थी। इसीलिए दो दिन पहले जब आईफोन 5 के लॉन्च होने का इंतजार था, एप्पल ने सिर्फ इसे किसी तरह टाल दिया।
स्टीव का जीवन 56 साल की उम्र में भले ही रुक गया हो लेकिन वह अमर हो गये हैं। तभी तो कांग्रेसी मेरी बोन मैक उन्हें 21वीं सदी का थॉमस एडीसन बता रही हैं। उन्होंने आईफोन लॉन्च करते हुए, जो कहा, वह लाइन एक पूरी पीढ़ी के कानों में गूंजती रहेगी।