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Tuesday, September 23, 2014

बारात नहीं लुटेरो का समहू

यह जो विवाह-प्रथा है, वह तब शुरू हुई थी जब लोग कृषिकर्मी और पशुपालक थे । पास-पास बस्तियाँ थीं । आबादी बहुत कम थी । मगर यह पद्धति पुष्ट हुई मध्ययुग में, जब यह पूरी तरह सामन्ती हो गयी । पृथ्वीराज ने युद्ध करके संयोगिता से शादी की थी न । सामन्ती युग में बारात, याने फौज होती थी । युद्ध करके कन्या प्राप्त की जाती थी और उस घर की सम्पति लूटी जाती थी । यह बड़े-बड़े सामन्त करते थे । पर उनकी नकल साधारण आदमी भी करने लगे । दूल्हा घोड़े पर बैठा है, बगल में तलवार है, बाराती हमलावर की तरह व्यवहार करते है । लड़की के घर को शत्रु-राज्य मानते हैं । दूल्हा घड़ा छोड़ता है, तलवार से रस्सी काटता है । दहेज के रूप में लूट का माल और लड़की लेकर बारात लौट जाती है ।
साधो, बारात का यह सामन्ती ठाठ मुसलमानों और हिन्दुओं की पद्धतियों में समन्वय से आया है बारात निकालने का तरीका मुसलमान लेकर आये थे । बारात में दुल्हे की शान में 'सेहरा' गाया जाता है । इसमें भारतीयों का असर पड़ा तो मुसलमानों की विवाह-पद्धति भी बदलती गयी । अभी भी जिनसे मुँह की मक्खी नहीं उड़ती वे तलवार लटकाते हैं और कांपते हुए घोड़े पर बैठते हैं । घोड़े की जगह अब खुली कार ने ले ली है, जो माँगे की होती है । सामन्तवाद में वधु के घर की जो लूट थी, वह पूँजीवाद में दहेज हो गयी ।