Thursday, February 7, 2013

मुंबई जाने के बाद मुझे पहली बार अपने इंसान होने का एहसास हुआ। पब्लिक स्पेस में इज्जत और आजादी का एहसास हुआ।


Manisha Pandey
मुंबई जाने के बाद मुझे पहली बार अपने इंसान होने का एहसास हुआ। पब्लिक स्पेस में इज्जत और आजादी का एहसास हुआ। जो कपड़ा अच्छा लगे पहनो, जैसे चाहो रहो, जहां चाहे जाओ, जो चाहे करो, कोई अपनी नाक घुसाने वाला नहीं। कोई परवाह नहीं करता। कोई टिप्पचणी नहीं करता। कोई शरीर का एक्सरे नहीं निकालता। कोई गंदी नजर से नहीं देखता। कोई भीड़ या एकांत का फायदा उठाकर सीने पर हाथ नहीं मारता। कोई अपनी पैंट खोलकर नहीं खड़ा होता। मुंबर्इ ने मुझे आजादी और आत्म विश्वास का एहसास दिया। पहली बार लगा कि सड़क, मैदान, टेन, बस, स्टेशन, प्लेटफॉर्म, बाजार हर जगह मेरे लिए बराबर का स्पेस है। मैं भी इंसान हूं।
इलाहाबाद में जैसे सड़कों पर निकलने वाली लड़कियां कंपनी गार्डन की बेंच थीं, पब्लिक प्रॉपर्टी थीं। सिर्फ रेप ही नहीं करते थे, बाकी उन्हें सब करने का हक था। छूने का, गंदी टिप्पणी करने का, एकांत पाते ही अपनी पैंट खोल देने का। कुछ भी करने का।
ऐसा समाज हमारे किस काम का, जहां घर से बाहर निकलते ही लड़कियां सारे सामंती मर्दों के लिए खेल का खुला मैदान हो जाती हैं। जिन लड़कियों की नियति उन्हें वहां से नहीं निकाल सकती, उनके लिए दुख मनाओ, लेकिन जिसके भी पास मौका है मेरी सहेलियों, भाग निकलो। मुंबई जाओ, दिल्ली जाओ, पुणे जाओ, बैंगलौर जाओ। कहीं भी और जाओ। महानगर की भीड़ में गुम हो जाओ। लेकिन छोटे शहरों, कस्बों में न रहो। सामंतवाद के गटर हैं हिंदुस्तान के छोटे शहर। भाग निकलो।

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