Thursday, February 7, 2013

हिंदुस्तान के छोटे शहर सामंतवाद के लिजलिजे गटर हैं।


Manisha Pandey
इलाहाबाद के मेरे बहुत सारे दोस्त मुंबई, दिल्ली जैसे शहरों में आकर बस गए हैं, लेकिन आज भी मौका मिलते ही इलाहाबाद की मनोहारी यादों का गाना गाने लगते हैं। क्या कमाल का शहर है हमारा। अबे यार, यूनिवर्सिटी के दिन भी क्याग दिन थे। कितनी ऐश करी है हमने। लल्ला चुंगी की चाय, कटरा चौराहे की चाट, नेतराम की जलेबी। रात में तीन बजे जीएन झा हॉस्टल से निकलकर प्रयाग स्टेशन जाते थे चाय पीने। कितनी बकैती करते थे। रसूलाबाद के गंगा तट पर रात दो बजे बैठकर दारू पीते थे। मेरी जान, मेरा शहर, मेरा इलाहाबाद। मेरी मुहब्बबतों का शहर, मेरी बकैतियों का शहर।"
उनके चेहरे ये बोलते हुए जितनी तरंगों, जितनी उमंगों से रौशन होते हैं, मेरा दिल उतने ही डर, दुख, गुस्से और नफरत में डूब जाता है। इलाहाबाद थू, यूपी का ऑक्सफोर्ड थू।
मैंने तो कभी नहीं की ये सारी बकैतियां तुम्हारे शहर में मेरे दोस्त। कभी लल्ला चुंगी पर चाय नहीं पी, कभी रात में तीन बजे सूनसान सड़कों पर टहलते प्रयाग स्टेशन चाय पीने नहीं गई, कभी कटरा चौराहे पर दिल खोलकर हंसी नहीं, कभी यूनिवर्सिटी में चिल्लाकर किसी दोस्त को आवाज भी नहीं लगाई, "अबे ओय, कहां बकैती झाड़ रहा है बे।" तुम्हारी जान से प्यारी यूनिवर्सिटी में लड़के मुझ पर धीरे से गंदी टिप्पणी करते थे, साइकोलॉजी डिपार्टमेंट के सामने साले सीने पर हाथ मारकर चले जाते थे, हॉलैंड हॉल के सामने से पैदल गुजरती तो कहते, "शादी करोगी रानी।" तुम्हारे प्यारे शहर ने मुझे हमेशा डराया है, दुख दिए हैं। मुझे अपने आप से, अपने होने से, अपने शरीर से नफरत करना सिखाया है।
होगा तुम्हारा प्यारा शहर। तुम लौट-लौटकर जाया करो वहां। मैं कभी नहीं जाऊंगी। मैं नहीं थी तुम्हारी मुहब्बतों, तुम्हारी बकैतियों का हिस्सा कभी। मैं इस महानगर की भीड़ में गुम ही अच्छी। यहां रोज-रोज कोई मुझे छेड़ता तो नहीं है कम से कम।

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