माथे तिलक , हाथ जयमाला ,जग ठगने कुं स्वांग बन्याया ! मार्ग छांडी कुमारग साँची, प्रीती बिनु राम न पाया !! (रेदास ) |
हे धूर्त चपटी
तुम्हारा चन्दन का टीका
मेरी कलम से ज्यादा
उपयोगी नहीं ,
मुझे पता है
तुम्हारे जनेऊ में
मरी हुई जुओं की
गंध आती है
जिनमे जीवन का नहीं
मौत का भय दिखता है ,
मेरे देह का पसीना
और गंध
तुम्हारे सड़े हुए जनेऊ से
लाख गुना बहतर है ,
आओ , मेरे पसीने से
अपने बदन को रगडो
और महसूस करो
कि बू की कोई भाषा नहीं होती
और गंध का कोई वजूद नहीं होता .............मुकंद दा एक विद्रोही कवि
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