अभी तक यह बात सिद्ध हो चुकी है कि एक समय था जब भारत के प्रत्येक गाँव के दो हिस्से होते थे। एक गाँव के भीतर बसे हुए लोगों का हिस्सा, और दूसरा गाँव की सीमा पर छितरे लोगों का हिस्सा। दोनों के सामाजिक आचार, व्यवहार में किसी प्रकार की बाधा न थी। गो को पवित्र घोषित करने और गोमांस भक्षण निषिद्ध करने से छितरे लोग अछूत बन गये। मगर ये कब हुआ यह प्रश्न विचारणीय है।
वेदों में चर्मणा(८.८.३८) जैसे अन्त्यज का उल्लेख है मगर ऐसा कोई इशारा नहीं कि उन्हे अछूत समझा जाता था या अपवित्र। तो वैदिक काल में कोई अस्पृश्यता नहीं थी और जहाँ तक धर्म सूत्र काल का प्रश्न है हम देख चुके हैं कि तब अपवित्रता की धारणा थी किन्तु अस्पृश्यता नहीं।
अब प्रश्न उठता है कि क्या मनु के समय में अस्पृश्यता थी? मनु स्मृति में एक श्लोक है(१०.४) जिसमें मनु का कहना है कि केवल चार ही वर्ण है पाँचवा है ही नहीं। स्पष्ट है कि यह श्लोक किसी जाति के चातुर्वर्ण के भीतर रहने या न रहने के विवाद के सम्बन्ध में कहा गया है। मुश्किल यह है कि मनु उस जाति का उल्लेख नहीं करते।
रूढ़िगत हिन्दू की व्याख्या है कि इस पाँचवे वर्ण का अर्थ अछूतों से है। इस मत की लोकप्रियता के कारण ही आज हिन्दू, सवर्ण और अवर्ण में विभाजित हैं। अगर ये व्याख्या सच है तो सिद्ध होता है कि मनु के समय में भी अस्पृश्यता थी। मगर मेरा मत है कि यह व्याख्या गलत है। चाण्डाल के प्रति मनु का भाव अपवित्रता से जुड़ा है और इस श्लोक का सम्बन्ध दासों से है। अध्याय ७ में अस्पृश्यता के व्यवसायजन्य सिद्धान्त के सम्बन्ध में जो नारद स्मृति के उद्धरण दिये गये हैं वे दासों की बात करते हैं। और उन श्लोकों में नारद स्मृति दासों का उल्लेख पाँचवे वर्ण के रूप में करती है। यदि नारद स्मृति दासों में पांचवे वर्ण का अर्थ दास हो सकता है तो कोई कारण नहीं कि मनु स्मृति में पाँचवें वर्ण का अर्थ दास न हो। तो यह कहा जा सकता है कि मनु स्मृति में भी अस्पृश्यता नहीं थी। अब प्रश्न है कि मनु स्मृति का काल क्या है?
प्रोफ़ेसर बूहलर के मत से मनुस्मृति ईसा की दूसरी शताब्दी में अस्तित्व में आई। श्री दफ़्तरी का तर्क है कि मनु स्मृति १८५ ईसा पूर्व के बाद लिखी गई। उनका तर्क है कि मौर्य वंश के बौद्ध नरेश बृहद्रथ की हत्या उनके ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र ने की थी और मनुस्मृति का इस घटना से सीधा सम्बन्ध है। यह घटना एक राजनैतिक क्रांति थी, एक खूनी क्रांति। जिसका उद्देश्य था बौद्धों का तख्ता पलटना और इअके सूत्र संचालक थे ब्राह्मण।
मगर बौद्ध नरेशों के खिलाफ़ यह क्रांति लाकर ब्राह्मणवाद ने दो पुराने पवित्र नियमों का उल्लंघन किया था। पहला कि ब्राह्मण द्वारा शस्त्र स्पर्श भी पाप है और दूसरा कि राजा का शरीर पवित्र था और राज हत्या पाप। विजयी ब्राह्मणवाद को अपने पापों के समर्थन में एक पवित्रग्रंथ की आवश्यक्ता थी जो सभी के लिए प्रमाण स्वरूप हो।
अब देखें मनुस्मृति को। मनुस्मृति चातुर्वर्ण को देश का विधान बनाने के अलावा, पशु बलि को उचित ठहराती है, और यह भी तय करती है कि कब ब्राह्मण द्वारा राजा की हत्या अधर्म नहीं होती। इस मामले में मनु स्मृति ने वह काम किया जो पहले किसी स्मृति ने नहीं किया था। पुष्यमित्र की राजनैतिक क्रांति का एक विशुद्ध नवीन सिद्धान्त द्वारा दार्शनिक समर्थन। पुष्यमित्र और मनुस्मृति के इस सम्बन्ध से प्रगट होता है कि मनुस्मृति १८५ ई.पू. के बाद अस्तितव में आई और ये भी कि तब तक अस्पृश्यता नहीं थी। यह अस्पृश्यता के जन्म की ऊपरी सीमा कही जा सकती है।
अस्पृश्यता के जन्म की निचली सीमा निर्धारण करने में हमें मदद करते हैं चीनी यात्रियों के प्रसंग। फ़ाहियान ४०० ई. में भारत आये, उन्होने लिखा; "देश भर में चाण्डालों के अतिरिक्त न तो कोई किसी जीव की हत्या करता है न कोई सुरापान, न लहसुन प्याज़ खाता है। चाण्डालों को कुपुरुष कहा जाता है। वे दूसरों से अलग रहते हैं। यदि वे बस्ती या बाज़ार में प्रवेश करते हैं तो वे अपने आपको पृथक करने के लिए लकड़ी के टुकड़े से विशेष प्रकार की आवाज़ करते हैं। लोगों को उनके आगमन का पता चल जाता है और वे उनसे बच कर चलते हैं।"
ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि फ़ाहियान के काल में छुआछूत अस्तित्व में था। मगर जो कुछ कहा गया है वो सिर्फ़ चाण्डालों के विषय में है। ब्राह्मण चाण्डालों को अपना परम्परागत शत्रु समझते हैं इसलिये स्वाभाविक लगता है कि वे चाण्डालों के लिए नीच शब्दों का प्रयोग करें और उनके प्रति विषवमन या मिथ्याप्रचार करें। मेरी यह बात कोरी कल्पना नहीं है। बाण की कादम्बरी की कथा एक चाण्डाल कन्या द्वारा पाले गये तोते ने राजा शूद्रक को सुनाई है।
बाण ने चाण्डाल बस्ती का जो वर्णन किया है वह भयानक है । वहाँ शराबखोरी, वेश्यावृत्ति, पशुबलि, रक्त चर्बी, कुत्ते, हड्डियां कुल मिलाकर साक्षात नरक। ऐसी बस्ती से चाण्डाल कन्या राजा शूद्रक के दरबार में जाती है। वहाँ राजा उस कन्या के ऐश्वर्यशाली सौन्दर्य से मोहित अभिभूत हो जाता है, यह अफ़्सोस करते हुए भी कि हाय यह चाण्डाल क्यों हुई।
कई सवाल उठते हैं क्यों बाण जैसे वात्स्यायन ब्राह्मण को चाण्डाल बस्ती का ऐसा वीभत्स वर्णन कर चुकने के बाद चाण्डाल कन्या का सौन्दर्य वर्णन करने में संकोच नहीं हुआ? यदि चाण्डाल अछूत थे तो कैसे एक अछूत कन्या राजमहल में इस प्रकार जा सकती थी? फिर बाण उस अछूत कन्या को चाण्डाल राजकुमारी कहता है, क्या चाण्डाल शासक परिवार भी थे? बाण की कादम्बरी ६०० ई. के आसपास लिखी गई। इसका अर्थ है कि ६०० ई. तक चाण्डाल अछूत नहीं समझे जाते थे। इसलिये फ़ाहियान का वर्णन ब्राह्मणों द्वारा अपवित्रता को लेकर की गई अति या अस्पृश्यता की सीमा को स्पर्श करता हुआ कहा जा सकता है मगर पूरी तरह अस्पृश्यता नहीं।
दूसरा चीनी यात्री ह्वेनसांग ६२९ ई. में भारत आया और सोलह वर्ष तक रहा। वह लिखता है; "..कसाई, धोबी, नट, नर्तक, वधिक, और भंगियों के लिये बस्ती एक निश्चित चिह्न द्वारा अलग कर दी गई है। वे शहर से बाहर रहने के लिए मजबूर किए जाते हैं। और जब कभी उन्हे किसी के घर के पास से गुज़रना हो तो बायीं ओर बहुत दब के निकलते हैं।"
फ़ाहियान ने जो वर्णन किया वह केवल चाण्डालों से सम्बन्ध रखता है और ह्वेनसांग का वर्णन दूसरी जातियों के बारे में भी है। इसलिये संभव है कि ह्वेनसांग के काल तक अस्पृश्यता का जन्म हो चुका था। तो ऊपर कहे गये के आधार पर हम कह सकते हैं कि दूसरी शताब्दी में अस्पृश्यता नहीं थी मगर सातवीं शताब्दी तक इसका जन्म हो चुका था। तो ये अस्पृश्यता के जन्म की ऊपरी वा निचली सीमाएं हैं।
हमने देखा है कि अस्पृश्यता का सीधा समबन्ध गोमांसाहार से है। मनु के काल तक न तो गोमांसाहार का निषेध हुआ था और न ही गोवध अपराध बना था। डा. भण्डारकर ने स्पष्ट किया है कि चौथी शताब्दी में गुप्त नरेशों द्वारा गोवध को प्राणदण्डनीय अपराध घोषित किया गया। इसलिए अब ये विश्वास से कहा जा सकता है बौद्ध धर्म और ब्राह्मण धर्म के आपसी संघर्ष के परिणामस्वरूप अस्पृश्यता ४०० ईसवी के आस पास पैदा हुई है।
वेदों में चर्मणा(८.८.३८) जैसे अन्त्यज का उल्लेख है मगर ऐसा कोई इशारा नहीं कि उन्हे अछूत समझा जाता था या अपवित्र। तो वैदिक काल में कोई अस्पृश्यता नहीं थी और जहाँ तक धर्म सूत्र काल का प्रश्न है हम देख चुके हैं कि तब अपवित्रता की धारणा थी किन्तु अस्पृश्यता नहीं।
अब प्रश्न उठता है कि क्या मनु के समय में अस्पृश्यता थी? मनु स्मृति में एक श्लोक है(१०.४) जिसमें मनु का कहना है कि केवल चार ही वर्ण है पाँचवा है ही नहीं। स्पष्ट है कि यह श्लोक किसी जाति के चातुर्वर्ण के भीतर रहने या न रहने के विवाद के सम्बन्ध में कहा गया है। मुश्किल यह है कि मनु उस जाति का उल्लेख नहीं करते।
रूढ़िगत हिन्दू की व्याख्या है कि इस पाँचवे वर्ण का अर्थ अछूतों से है। इस मत की लोकप्रियता के कारण ही आज हिन्दू, सवर्ण और अवर्ण में विभाजित हैं। अगर ये व्याख्या सच है तो सिद्ध होता है कि मनु के समय में भी अस्पृश्यता थी। मगर मेरा मत है कि यह व्याख्या गलत है। चाण्डाल के प्रति मनु का भाव अपवित्रता से जुड़ा है और इस श्लोक का सम्बन्ध दासों से है। अध्याय ७ में अस्पृश्यता के व्यवसायजन्य सिद्धान्त के सम्बन्ध में जो नारद स्मृति के उद्धरण दिये गये हैं वे दासों की बात करते हैं। और उन श्लोकों में नारद स्मृति दासों का उल्लेख पाँचवे वर्ण के रूप में करती है। यदि नारद स्मृति दासों में पांचवे वर्ण का अर्थ दास हो सकता है तो कोई कारण नहीं कि मनु स्मृति में पाँचवें वर्ण का अर्थ दास न हो। तो यह कहा जा सकता है कि मनु स्मृति में भी अस्पृश्यता नहीं थी। अब प्रश्न है कि मनु स्मृति का काल क्या है?
प्रोफ़ेसर बूहलर के मत से मनुस्मृति ईसा की दूसरी शताब्दी में अस्तित्व में आई। श्री दफ़्तरी का तर्क है कि मनु स्मृति १८५ ईसा पूर्व के बाद लिखी गई। उनका तर्क है कि मौर्य वंश के बौद्ध नरेश बृहद्रथ की हत्या उनके ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र ने की थी और मनुस्मृति का इस घटना से सीधा सम्बन्ध है। यह घटना एक राजनैतिक क्रांति थी, एक खूनी क्रांति। जिसका उद्देश्य था बौद्धों का तख्ता पलटना और इअके सूत्र संचालक थे ब्राह्मण।
मगर बौद्ध नरेशों के खिलाफ़ यह क्रांति लाकर ब्राह्मणवाद ने दो पुराने पवित्र नियमों का उल्लंघन किया था। पहला कि ब्राह्मण द्वारा शस्त्र स्पर्श भी पाप है और दूसरा कि राजा का शरीर पवित्र था और राज हत्या पाप। विजयी ब्राह्मणवाद को अपने पापों के समर्थन में एक पवित्रग्रंथ की आवश्यक्ता थी जो सभी के लिए प्रमाण स्वरूप हो।
अब देखें मनुस्मृति को। मनुस्मृति चातुर्वर्ण को देश का विधान बनाने के अलावा, पशु बलि को उचित ठहराती है, और यह भी तय करती है कि कब ब्राह्मण द्वारा राजा की हत्या अधर्म नहीं होती। इस मामले में मनु स्मृति ने वह काम किया जो पहले किसी स्मृति ने नहीं किया था। पुष्यमित्र की राजनैतिक क्रांति का एक विशुद्ध नवीन सिद्धान्त द्वारा दार्शनिक समर्थन। पुष्यमित्र और मनुस्मृति के इस सम्बन्ध से प्रगट होता है कि मनुस्मृति १८५ ई.पू. के बाद अस्तितव में आई और ये भी कि तब तक अस्पृश्यता नहीं थी। यह अस्पृश्यता के जन्म की ऊपरी सीमा कही जा सकती है।
अस्पृश्यता के जन्म की निचली सीमा निर्धारण करने में हमें मदद करते हैं चीनी यात्रियों के प्रसंग। फ़ाहियान ४०० ई. में भारत आये, उन्होने लिखा; "देश भर में चाण्डालों के अतिरिक्त न तो कोई किसी जीव की हत्या करता है न कोई सुरापान, न लहसुन प्याज़ खाता है। चाण्डालों को कुपुरुष कहा जाता है। वे दूसरों से अलग रहते हैं। यदि वे बस्ती या बाज़ार में प्रवेश करते हैं तो वे अपने आपको पृथक करने के लिए लकड़ी के टुकड़े से विशेष प्रकार की आवाज़ करते हैं। लोगों को उनके आगमन का पता चल जाता है और वे उनसे बच कर चलते हैं।"
ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि फ़ाहियान के काल में छुआछूत अस्तित्व में था। मगर जो कुछ कहा गया है वो सिर्फ़ चाण्डालों के विषय में है। ब्राह्मण चाण्डालों को अपना परम्परागत शत्रु समझते हैं इसलिये स्वाभाविक लगता है कि वे चाण्डालों के लिए नीच शब्दों का प्रयोग करें और उनके प्रति विषवमन या मिथ्याप्रचार करें। मेरी यह बात कोरी कल्पना नहीं है। बाण की कादम्बरी की कथा एक चाण्डाल कन्या द्वारा पाले गये तोते ने राजा शूद्रक को सुनाई है।
बाण ने चाण्डाल बस्ती का जो वर्णन किया है वह भयानक है । वहाँ शराबखोरी, वेश्यावृत्ति, पशुबलि, रक्त चर्बी, कुत्ते, हड्डियां कुल मिलाकर साक्षात नरक। ऐसी बस्ती से चाण्डाल कन्या राजा शूद्रक के दरबार में जाती है। वहाँ राजा उस कन्या के ऐश्वर्यशाली सौन्दर्य से मोहित अभिभूत हो जाता है, यह अफ़्सोस करते हुए भी कि हाय यह चाण्डाल क्यों हुई।
कई सवाल उठते हैं क्यों बाण जैसे वात्स्यायन ब्राह्मण को चाण्डाल बस्ती का ऐसा वीभत्स वर्णन कर चुकने के बाद चाण्डाल कन्या का सौन्दर्य वर्णन करने में संकोच नहीं हुआ? यदि चाण्डाल अछूत थे तो कैसे एक अछूत कन्या राजमहल में इस प्रकार जा सकती थी? फिर बाण उस अछूत कन्या को चाण्डाल राजकुमारी कहता है, क्या चाण्डाल शासक परिवार भी थे? बाण की कादम्बरी ६०० ई. के आसपास लिखी गई। इसका अर्थ है कि ६०० ई. तक चाण्डाल अछूत नहीं समझे जाते थे। इसलिये फ़ाहियान का वर्णन ब्राह्मणों द्वारा अपवित्रता को लेकर की गई अति या अस्पृश्यता की सीमा को स्पर्श करता हुआ कहा जा सकता है मगर पूरी तरह अस्पृश्यता नहीं।
दूसरा चीनी यात्री ह्वेनसांग ६२९ ई. में भारत आया और सोलह वर्ष तक रहा। वह लिखता है; "..कसाई, धोबी, नट, नर्तक, वधिक, और भंगियों के लिये बस्ती एक निश्चित चिह्न द्वारा अलग कर दी गई है। वे शहर से बाहर रहने के लिए मजबूर किए जाते हैं। और जब कभी उन्हे किसी के घर के पास से गुज़रना हो तो बायीं ओर बहुत दब के निकलते हैं।"
फ़ाहियान ने जो वर्णन किया वह केवल चाण्डालों से सम्बन्ध रखता है और ह्वेनसांग का वर्णन दूसरी जातियों के बारे में भी है। इसलिये संभव है कि ह्वेनसांग के काल तक अस्पृश्यता का जन्म हो चुका था। तो ऊपर कहे गये के आधार पर हम कह सकते हैं कि दूसरी शताब्दी में अस्पृश्यता नहीं थी मगर सातवीं शताब्दी तक इसका जन्म हो चुका था। तो ये अस्पृश्यता के जन्म की ऊपरी वा निचली सीमाएं हैं।
हमने देखा है कि अस्पृश्यता का सीधा समबन्ध गोमांसाहार से है। मनु के काल तक न तो गोमांसाहार का निषेध हुआ था और न ही गोवध अपराध बना था। डा. भण्डारकर ने स्पष्ट किया है कि चौथी शताब्दी में गुप्त नरेशों द्वारा गोवध को प्राणदण्डनीय अपराध घोषित किया गया। इसलिए अब ये विश्वास से कहा जा सकता है बौद्ध धर्म और ब्राह्मण धर्म के आपसी संघर्ष के परिणामस्वरूप अस्पृश्यता ४०० ईसवी के आस पास पैदा हुई है।
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