Manisha Pandey
मां होना अत्यंत महान बात है। इनफैक्ट महानों में महान, महानतम बात है। किसी औरत के मां न बनने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। कोई औरत ऐसा बोले तो आदमी फेसबुक जैसे पब्लिक प्लेटफॉर्म पर भी अपनी दायीं आंख दबाकर और दांत चियारकर बोलता है कि "साली बांझ है। एक काम क्यों नहीं करती तुम लोग, बांझों का ग्रुप बना लो और बांझपन का उत्सव मनाओ। यही है आपके मुल्क के मर्दों का असली चेहरा और चरित्र।" इक्कीसवीं सदी में भी इस देश में ऐसे शब्द न सिर्फ एग्जिस्ट करते हैं, बल्कि धड़ल्ले से इस्तेमाल किए जाते हैं। और इस देश की व्यवस्था का चरित्र। आहा। क्या कहना। इस देश के मर्द तो मां के सम्मान में मरे ही जाते हैं, देश भी मरा जाता है। अभी कुछ दिन पहले दिल्ली में जंगपुरा मेट्रो स्टेशन पर मेटल डिटेक्टर के सामने एक औरत कुर्सी पर बैठी थी। मैं पहुंची तो कुर्सी से उठ गई और डिटेक्टटर लगाकर मेरी चेकिंग करने लगी। फिर धीरे से बैठ गई। अभी 30 सेकेंड भी नहीं हुए थे कि एक दूसरी औरत आ गई। वो फिर खड़ी हो गई। वो जरा सा बैठने की कोशिश करती कि कोई आ जाता। और उठकर चेकिंग करनी पड़ती। वो ऐसे ही दिन मैं सैकड़ों-हजारों बार खड़ी होती, बैठती होगी। वो चाहकर भी पांच मिनट बैठ नहीं पा रही थी।आप सोच रहे होंगे कि इसमें अजीब क्या है। बैठना क्या इतना जरूरी है।
जी, जरूरी है। सामान्य स्थितियों में न भी हो तो वहां उस वक्त उसके लिए बैठना बहुत जरूरी था। वजह थी उसका फूला हुआ पेट। वो सेवन मंथ्स प्रेग्नेंट थी।
मैं काफी देर तक वहां खड़े होकर उसे देखती रही। फिर उससे पूछा, आप छुट्टी क्यों नहीं ले लेतीं।
"सिर्फ तीन महीने की छुट्टी मिलती है। डिलिवरी के बाद लूंगी।"
"लेकिन आप ऐसा काम क्यों कर रही हैं, जिसमें पूरा दिन खड़े रहना पड़ता है। आपके ऑफिस वाले आपको आराम का काम भी तो दे सकते हैं। जहां कुर्सी-मेज पर बैठकर काम कर सकें।"
वो हंसने लगी। बोली, "ऐसा नहीं होता मैडम। काम है तो करना ही पड़ेगा। अभी कश्मीरी गेट स्टेशन पर तीन लड़कियां हैं। वो भी प्रेग्नेंट हैं। हमारे बॉस लोग ये सब बात नहीं सुनते।"
मैंने मन ही मन सोचा। सिर्फ तुम्हारी ही नौकरी क्या, किसी भी नौकरी में ये रियायत नहीं है। कुछ महीने पहले मैंने प्रगति मैदान वाली सड़क पर सफेद-नीले यूनीफॉर्म में एक ट्रैफिक पुलिस की महिला को कड़कड़ी धूप में सड़क पर खड़े देखा। वो भी प्रेग्नेंट थी। और भयानक धूप और गर्मी में सड़क पर खड़ी ट्रैफिक कंट्रोल कर रही थी। उसके बैठने के लिए तो एक कुर्सी तक नहीं थी।
ये है हमारा देश। और ये इज्जत है होने वाली मांओं की। ज्यादा प्यार, ज्यादा लाड़-दुलार, ज्यादा ख्याल को तो मारो गोली, सामान्य ख्याल तक नहीं किया जाता।
मुंबई में मेरे ऑफिस में एक महाराष्ट्रियन लड़की प्रेग्नेंट थी। आखिरी महीने तक वो रोज दहिसर से चर्नी रोड तक लोकल ट्रेन में ट्रैवल करती रही। मैंने हमेशा देखा कि वो ग्रांट रोड में डॉक्टर को दिखाने भी अकेली ही जाती थी। सुबह घर का सारा काम करके आती थी। उसकी मुरझाती शक्ल देखकर लगता था कि कोई उसका ख्याल नहीं रखता। और एक बात और। तबीयत ठीक न लगने पर या ग्रांट रोड में डॉक्टर को दिखाने के लिए उसने मर्द सहकर्मियों से ज्यादा छुट्टी ली तो साले फैल गए। चिढ़ में कहते थे कि फिर घर बैठो ना। किसने कहा है नौकरी करने को। इतनी छुट्टियां लेती हैं।
ये है इज्जत आपके देश में मांओं की। क्या पति, क्या परिवार, क्या सहकर्मी, क्या सरकार, क्या देश, क्या व्यवस्था, सब औरतों को दो कौड़ी का समझते हैं। मां की न कोई इज्जत है, न परवाह, न ख्याल। प्यार तो बहुत दूर की बात है।
लेकिन फिर भी मां महान है। हम मां की पूजा करते हैं।
थू ऐसी पूजा पर।
हो सकता है आपका सोचना सही हो....लेकिन छुट्टीयां बढ़ाई भी जा सकती है...आराम किया जा सकता है...मां बनने का एहसास इतना आसान नहीं होता...मां भी बनना चाहती है और पैसे भी कमाना...दोनो एक साथ कैसे सम्भव हो सकता है...और आज भी हमारा समाज इतना नहीं गिरा है...जितना की आपकी लेखनी ने गिरा दिया है...ये देश हमारी मां है...और हम आज भी मां की सादर स्नेह से पुजा करे है...आप हर किसी को एक ही तराजु में नही तौल सकते...ये सही है कि बिगड़ा समाज आज भ्रटव्यभीचारी हो गया है...लेकिन इतिहास साक्षी है कि नारी ही नारी की दुश्मन है...नही तो आप उन महिलाओं की बड़ी ही विनम्रता से सहयोग भी कर सकती थी...जिस विनम्रता से इन घटनाओं का जिक्र किया है....।।।
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