Saturday, January 19, 2013

बलात्कार के लिए उकसाता है सिनेमा!


♦ विनोद अनुपम
womenमुंबई हो या नासिक, लडकी तो लडकी है, पटेगी ही, पटाने वाला चाहिए।…. जब हिन्दी सिनेमा के प्रतिष्ठित अधेड़ अभिनेता अनिल कपूर अपने प्रशंसकों के सामने अपनी आने वाली फिल्म का यह डायलाग बोलते हुए मंच पर लाइव अवतरित होते हैं तो कोई शंका नहीं बच जाती कि महिलाओं को लेकर हिन्दी सिनेमा के नजरिए में कोई तब्दीली नहीं हुई है। वास्तव में हिंदी सिनेमा में महिला पहले भी मात्र ‘पटने’ वाली वस्तु थी, अभी भी महिला प्रधान फिल्मों के लाख शोर के बावजूद उसकी अहमियत बस ‘पटने’ भर तक की ही रखी जाती है। डर्टी पिक्चर, हिरोइन, फैशन, हेट स्टोरी, जिस्म-2, काकटेल जैसी फिल्मों में परदे पर महिलाएं तो दिखती हैं, लेकिन उनकी ताकत नहीं दिखती, उनके प्रति संवेदना नहीं दिखती, उनके प्रति सम्मान नहीं दिखता, दिखती है उनकी वही औकात, जो हिंदी सिनेमा ने तय कर रखी है। यदि गिनती के कुछ अपवादों को छोड दें तो हिन्दी की शत-प्रतिशत फिल्मों का कथानक महिला को किसी न किसी तरह हासिल करने पर कंेद्रित रहा है। यह किसी न किसी तरह, पैसा, प्यार, भय, छेड़खानी से लेकर बलात्कार तक कुछ भी हो सकता है।
सिनेमा ने यह स्थापित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है कि असली पुरुषत्व महिला को समर्पित करवाने में, जबकि नारी जीवन की सार्थकता समर्पित हो जाने में है। 90 के दशक में आयी अनिल कपूर, जूही चावला अभिनीत ‘बेनाम बादशाह’ शायद आज भी कुछ दर्शकों को याद हो, जिसमें शहर के दादा बने अनिल कपूर जूही चावला के साथ बलात्कार करते हैं, और जूही चावला किसी कानूनी कार्रवाई के बजाय उसके पीछे शादी करने के लिए लग जाती है, और अंततः नायिका के समर्पण से प्रसन्न नायक शादी कर भी लेता है। ऐसी एक नहीं सैकडों हिन्दी फिल्में हैं जिसमें बलात्कार को मात्र भूल के रुप में सामाजिक स्वीकार्यता देने की कोशिश की गई है। आज भले ही बलात्कार के लिए फांसी की सजा की मांग की जा रही हो, लेकिन सच यही है कि वास्तविक जीवन में भी बलात्कार को छेड़खानी का विस्तार ही माना जाता है, इसीलिए इस क्रूर अपराध के लिए नामालूम सी सजा का ही प्रावधान भी भारतीय दंड संहिता में किया गया है। आश्चर्य नहीं कि आज भी एक भरी-पूरी जिंदगी को समाप्त कर देने के अपराध की गंभीरता को स्वीकार करने में हिल-हवाले निःसंकोच जारी हैं। जब समाज ने बलात्कार के अपराध की गंभीरता समझने की कोशिश नहीं की तो सिनेमा से भला क्या उम्मीद की जा सकती है।
सिनेमा के परदे पर बलात्कार दिखाने का यदि कोई औचित्य हो सकता है तो सिर्फ यही कि इस समस्या के प्रति दर्शक मानवीय दृष्टि से विचार करने को विवस हो सकें। 1978 में मानिक चटर्जी ने रेखा, विनोद मेहरा को लेकर एक फिल्म बनायी थी,’घर’। जिसमें नवदंपत्ति बने रेखा और विनोद मेहरा का नाइट शो में फिल्म देख कर लौटते हुए गुंडों से सामना हो जाता है, वे विनोद मेहरा को पीटकर बेहोश कर देते हैं और रेखा को सामूहिक बलात्कार झेलना पड़ता है। नायक इसे हादसा मानकर भूलना चाहता है लेकिन नायिका उस शर्मिंदगी को नहीं भूल पाती। एक बलात्कार पीडि़ता पत्नी के दर्द और पति के सहयोग की विलक्षण कहानी कहती थी ‘घर’, जिसमें नायक गुंडों से पिटने के बावजूद बहाहुर दिखता था। इस फिल्म ने सिर्फ समस्या को दिखाया भर नहीं था उसे महसूस करने को विवश भी किया था। लेकिन घर जैसी कुछ गिनी-चुनी फिल्मों को छोड़ दिया जाय तो शायद ही कोई फिल्म इस कसौटी पर खरी उतर सके।
बलात्कार वाकई कहानी का हिस्सा हो सकता है। संक्रमण का दंश झेलती हमारी संस्कृति और उदारीकरण-वैश्वीकरण के दौर से गुजरते समाज के युवा वर्ग में सब कुछ पा लेने की अंतहीन ललक बढी है, जो अंततः उन्हें कुंठा के गर्त में धकेल देता है, और बलात्कार जैसे हादसे सामने आते हैं। वर्षों पहले मुंबई लोकल ट्रेन में घटी एक घटना पर मेहुल कुमार ने 90 के दशक में ‘जागो’ बनाई थी, इस तरह की कहानियां यदि दिखाई जा रही है तो इस पर आपत्ति की भी नहीं जा सकती। घाव यदि है तो उसे दिखाना भी जरुरी है। लेकिन उसके दिखाने की सीमा है। हर जगह, हर वक्त घाव का खुला प्रदर्शन उसे नासूर ही बना देती है। क्रूरता और विकृति की यह पराकाष्ठा ही मानी जा सकती थी कि एक स्कूल जाने वाली नाबालिग बच्ची के साथ बलात्कार का दृश्य पूरे इत्मिनान से फिल्माया जाता है, तीन बलात्कारी और तीनों के विस्तारित दृश्य दर्शकों के सामने परोसे जाते हैं, परोसे इस अर्थ में कि दर्शकों की नजर से कुछ छूट न जाये।
सिनेमा यह कह कर बरी नहीं हो सकता कि दर्शकों की पसंद की चीजें परोसना उसकी बाध्यता है, या आमिर खान की तरह यह सफाई भी काफी नहीं हो सकती कि कहानियां तो समाज से ही ली जा रही हैं। सिनेमा को समझना होगा कि ‘काकटेल’ और ‘जिस्म’ के परे भी नहीं, परे ही भारतीय समाज है। जिसके प्रति उसकी बडी जवाबदेही है क्योंकि लोग रहेंगे तभी सिनेमा रहेगा। यदि हमारे सौंदर्यबोध पर इसी तरह आक्रमण की कोशिशें जारी रहें तो कल लोग सीधे सनी लियोन को सनी लियोन की ही फिल्म में देखना पसंद करेंगे, महेश भट्ट की फिल्म में नहीं।
प्रकाश झा के ‘चक्रव्यूह’ की चाहे लाख आलोचना करें लेकिन नि-संकोच कहा जा सकता है कि हिन्दी सिनेमा के लिए इसका बलात्कार दृश्य किसी पाठ से कम नहीं। प्रकाश झा न तो इसे विद्रूपता से फिल्माते हैं, न ही रोचकता प्रदान करते हैं, यह मात्र एक दुर्घटना की तरह दर्शकों तक पहुंचती है। कह सकते हैं, हिन्दी सिनेमा में बलात्कार का यह एकमात्र दृश्य होगा, जिसमें बलात्कार होते नहीं दिखाया जाता, बावजूद इसके बलात्कार के दर्द से दर्शक रु-ब-रु होते हंै। इसके बरक्स ‘भ्रष्टाचार’ से लेकर ‘हेट स्टोरी’ तक के बलात्कार के विस्तारित दृश्यों में दर्द कहीं गुम सा हो जाता है। निश्चय ही फिल्मकार का उद्देश्य भी यही होता है।
‘भ्रष्टाचार’ के बलात्कार दृश्य को, परदे पर बलात्कार को रोचक बनाने के घृणित उदाहरण के रुप में याद किया जा सकता है, अंधी युवती की भूमिका में शिल्पा शिरोडकर के साथ पालिटिशयन बने अनुपम खेर का बलात्कार दृश्य खासतौर पर रिवाल्विंग बेड पर स्लोमोशन में फिल्माया गया था। कुछ इस तरह कि दर्शक अपने को बलात्कार में शामिल महसूस कर सकें। यह अतिरेक अवश्य है लेकिन यह भी सच है कि बलात्कार जब भी विषय बना हिन्दी सिनेमा ने ऐसी ही कोशिशे की हैं। चाहे वह बी आर चोपडा कि ‘इंसाफ का तराजू’ ही क्यों न हो। कतई आश्चर्य नहीं कि बलात्कार दृश्य के नाम पर ‘बैंडिट क्वीन’ के शेखर कपूर से लेकर ‘जख्मी औरत’ के अवतार भोगल तक एक ही हमाम में दिखाई देते हैं। वास्तव में फिल्म की कहानी की जरुरत कभी भी बलात्कार दिखाने की नहीं हो सकती। ऐसे विस्तारित दृश्य बलात्कारी के प्रति गुस्सा और भुक्तभोगी के प्रति हमदर्दी जगाने के बजाय उनमें आनंद की अनुभूति ही पैदा करते हैं। और कहीं न कहीं परदे पर दिखते बलात्कारियों के पौरुष के साथ अपने को जोड कर देखने को भी तैयार करते हैं।
वास्तव में 70 के दशक के बाद की कोई फिल्म याद करना वाकई कठिन है, जिसमें महिला को उसके शरीर से अलग कर देखने की कोशिश की जा सकी हो। बलात्कार तो हिंदी सिनेमा में महिलाओं के असम्मानजनक प्रस्तुति का सिर्फ अंश भर है। आमतौर पर हिंदी सिनेमा में प्रेम की शुरुआत छेडखानी से होती है। जाहिर है जब परदे पर नायिकाओं को नायक की मर्दानगी पर मर मिटते देखा जाता है तो क्यों न युवाओं में फ्रस्ट्रेशन हो कि ये मेरे साथ ऐसा क्यों न हो रहा। आज अचानक जब कथित प्रेम के अस्वीकार के बाद चेहरे पर तेजाब फेंकने से लेकर हत्या, बलात्कार तक की खबरंे आम हो गई हैं तो कहीं न कहीं सिनेमा की उत्प्रेरक की भूमिका से कोई इंकार नहीं कर सकता।
वास्तव में यह सच है कि हालिया वर्षों में परदे पर बलात्कार की सीधी प्रस्तुति कम हो गई है, लेकिन बलात्कार की प्रवृति को जिस अभिजात्य अंदाज में फिल्माने की नई शुरुआत सिनेमा ने की है, वह अधिक घातक दिख रहा है। ‘हिरोइन’ और ‘डर्टी पिक्चर’ से लेकर ‘काकटेल’ और ‘जिस्म-2’ तक अपने दर्शकों को सीधा यह संदेश दे रही हैं कि महिलायें सहज उपलब्ध हैं, बगैर किसी वर्जना के बस आपके चाहने की देर है। जब महेश भट्ट जैसे फिल्मकार दर्शकों को ‘सुख पहुंचाने’ के लिए पोर्न स्टार तक को लाने में संकोच नहीं कर रहे तो समझा जा सकता है कि हिंदी सिनेमा अपने लिए कैसे दर्शक तैयार करने की कोशिष कर रहा है। सिनेमा यह कह कर बरी नहीं हो सकता कि दर्शकों की पसंद की चीजें परोसना उसकी बाध्यता है, या आमिर खान की तरह यह सफाई भी काफी नहीं हो सकती कि कहानियां तो समाज से ही ली जा रही हैं। सिनेमा को समझना होगा कि ‘काकटेल’ और ‘जिस्म’ के परे भी नहीं, परे ही भारतीय समाज है। जिसके प्रति उसकी बडी जवाबदेही है क्योंकि लोग रहेंगे तभी सिनेमा रहेगा। यदि हमारे सौंदर्यबोध पर इसी तरह आक्रमण की कोशिशें जारी रहें तो कल लोग सीधे सनी लियोन को सनी लियोन की ही फिल्म में देखना पसंद करेंगे, महेश भट्ट की फिल्म में नहीं।
vinod anupam(विनोद अनुपम फिल्म समीक्षक और संस्कृतिकर्मी हैं। पटना में रहते हैं। इन्हें फिल्म समीक्षा के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त हो चुका है।)

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