Saturday, April 28, 2012

हवा में उड़ गया जो दुपट्टा

दिलीप मंडल

एक बस, पंद्रह -सोलह लड़कियां और एक के पास भी दुपट्टा नहीं। दिल्ली की बसों में आपको यह दृश्य अमूमन हर रोज दिख जाएगा। मुंबई की लोकल ट्रेनों में चलने वाली लड़कियां पहनावे के इस बदलाव को पहले ही पूरा कर चुकी हैं। भारतीय महिलाओं के परंपरागत पहनावे साड़ी का भी कामकाजी माहौल में लगभग अंत हो चुका है।

शहरी कामकाजी महिलाओं की साड़ी न पहनने या दुपट्टे के बगैर घर से निकलने की आजादी (या कहें सुविधा) का युगांतकारी महत्व है। यह एक प्रतीक भी है। जो पहनावा पांवों में बंधता हो, तेजी से भागने में अड़चन हो, उसे पहनने की मजबूरी खत्म हुई ,यह अच्छी बात है। शौक के लिए तो जो पसंद आए वह पहना जा सकता है, लेकिन कपड़ा मजबूरी बन जाए तो उतार फेंकना ही चाहिए। इसे बदलते वक्त का एक और प्रतीक माना जाना चाहिए। भारतीय शहरी पुरुषों ने धोती की जगह पैंट को लगभग डेढ़ सदी पहले ही अपना लिया था।

देश में इंडस्ट्री के आने का भी इसमें योगदान है, क्योंकि फैक्ट्री में धोती पहनकर काम करना संभव नहीं था। लेकिन औरतों के जीवन में यह बदलाव अब आ रहा है। बस, मेट्रो या ट्रेन पकड़ने के लिए भागने की मजबूरी और भीड़ में सफर करने की जरूरत के बीच दुपट्टा किसी मुसीबत की तरह है। इस वजह से कुछ समय तक तो दुपट्टा बांधने का तरीका बदलकर काम चलाया गया। कई लड़कियां उसमें गांठ बांध लेती थीं या सेफ्टी पिन लगा लेती थीं। फिर इसकी जरूरत भी कम होती चली गई। सहूलियत वाले कपड़े आम हो गए।

पहनावे को अक्सर संस्कृति से जुड़ी चीज माना जाता है। लेकिन कहीं सुविधा, तो कहीं मजबूरी का उस पर निर्णायक असर पड़ा है। दौड़ने-भागने के लिए साड़ी के मुकाबले सलवार-कुर्ता ज्यादा सुविधाजनक है और आज यह देश भर में कामकाजी महिलाओं की पसंदीदा पोशाक में शामिल है। दक्षिण से लेकर पूर्वी भारत तक के परंपरागत परिवारों में महिलाएं सलवार-कुर्ता पहनने लगी हैं। इसकी तुलना इडली-डोसा या चाउमिन के अखिल भारतीय फैलाव से की जा सकती है।

स्कूटी और कार चलाती लड़कियों की बढ़ती तादाद भी कोई छोटी बात नहीं है। देश में हर साल लगभग 8 लाख गियरलैस स्कूटरों की बिक्री होती है। दोपहिया गाड़ियों में यह कैटिगरी 10 फीसदी से भी ज्यादा रफ्तार से बढ़ रही है। गियरलैस स्कूटर के खरीदारों में ज्यादातर महिलाएं हैं और उनमें भी खासकर नॉन मेट्रो शहर की लड़कियां। लड़कियों के लिए यह अपने मूवमेंट पर कंट्रोल का मामला है। स्कूटरेट की बढ़ती बिक्री को देखकर एक ऑटो कंपनी ऐसे स्टोर चला रही है जहां सिर्फ लड़कियां काम करती हैं। यानी महिला खरीदार के लिए महिला सेल्सपर्सन और महिला मैनेजर तक। जो टू वीलर कंपनियां अब तक मोटर साइकल पर फोकस कर रही थीं उन्होंने भी इस सेगमेंट में नए लॉन्च किए हैं। जाहिर है, बाजार समाज की बदलती जरूरतों को लेकर सचेत है और ऐसे में ऑटो कंपनियां लड़कियों के लिए नए-नए मॉडल बाजार में लाती रहेंगी।

महिलाओं की जिंदगी में तरह-तरह से आ रही आजादी क्या भारतीय समाज को पूरी तरह से बदल देगी? इस सवाल का अभी निर्णायक तौर पर कोई जवाब देना मुमकिन नहीं है। भारतीय समाज की परंपरागत संस्थाएं जिंदा रहने की अपनी अद्भुत क्षमता के लिए जानी जाती हैं। परंपरागत भारतीय समाज में औरतों की घर, समाज और देश के बारे में फैसले लेने की हैसियत नहीं रही है। प्राचीन युग में महिलाओं का उच्च स्थान बताने के लिए जिन गार्गी और लोपामुद्रा की चर्चा की जाती है, वे इस नियम का अपवाद ही थीं। उन्हें सामान्य नियम नहीं माना जा सकता। परंपरागत भारतीय समाज में सबसे वंचित समूहों में दलितों के साथ महिलाएं ही रही हैं। कुल मिलाकर औरतों की आजादी एक आधुनिक विचार है और भारत इस मामले में अभी दुनिया के विकसित देशों से काफी पीछे है।

महिलाओं के हर क्षेत्र में आगे आने की सबसे ताजा मिसाल स्पेन है। वहां की नई कैबिनेट में 9 महिलाएं और 8 पुरुष हैं। वहां की उप प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री महिलाएं हैं। स्पेन की रक्षा मंत्री कार्मे चाकोन पद ग्रहण करते समय गर्भवती थीं और जब उन्होंने फौज की सलामी ली तो बहुत से लोगों को यह अटपटा लगा। लेकिन समाज के हर क्षेत्र में महिलाओं को आगे लाने और काम करने की जगहों पर भेदभाव खत्म करना वहां की सरकार का प्रमुख अजेंडा है। ऐसी स्थिति तक पहुंचने के लिए भारत को लंबा सफर तय करना होगा।

लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय समाज में भी स्त्रियों का स्थान शहरीकरण के साथ बेहतर हो रहा है। उत्पादन प्रक्रिया में उनकी हिस्सेदारी तो खेती और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भी रही है, लेकिन वहां उनके श्रम का अलग से मोल नहीं लगाया जाता। वह परिवार के सामूहिक श्रम का हिस्सा बन जाता है और चूंकि परिवार पर नियंत्रण पुरुष का होता है, इसलिए परिवार में काम करने वाली औरत की मेहनत का मालिक भी पुरुष ही होता है। शहरों में और खासकर आधुनिक उत्पादन संबंधों में औरत को उनकी मेहनत का मेहनताना अलग से मिलता है। यह अलग से मिलने वाला मेहनताना उनकी आर्थिक आजादी का रास्ता खोल रहा है।

इस आर्थिक आजादी को हासिल करने की ललक लड़कियों में इस कदर है कि वे पढ़ाई में लड़कों से ज्यादा मेहनत कर रही हैं। सीबीएसई हो या कोई भी परीक्षा बोर्ड, साल दर साल लड़कियों का पास फीसदी बेहतर बना हुआ है। टॉपर्स में भी लड़कियों की तादाद ज्यादा है। और अब तो पुरुषों का गढ़ माने जाने वाले इंजीनियरिंग संस्थानों में भी लड़कियों की हिस्सेदारी तेजी से बढ़ी है। कई कंपनियों के बोर्ड रूम में महिलाएं दिखने लगी हैं और आईसीआईसीआई बैंक में तो टॉप के पदों पर महिलाओं की तादाद पुरुषों से ज्यादा है।

ऐसे बदलते समय में जो समाज लड़कियों के रास्ते में अड़चनें पैदा करेगा, वह पिछड़ जाएगा। आधी आबादी को उत्पादन प्रक्रिया और निर्णय लेने की प्रक्रिया से अलग रखकर कोई समाज विकास नहीं कर सकता। दुपट्टे को आधुनिकता की हवा में उछालती, स्कूटर चलाती, बोर्ड रूम में फैसले लेती और रक्षा मंत्री बनकर सलामी लेती ये शख्सियतें हमारे समाज को यही सबक सिखा रही हैं।

( लेखक टीवी जर्नलिस्ट हैं) 

http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/3111650.cms

3 comments:

  1. वैसे भारत में राष्ट्रपति बनने वाले पुरुष का उस अवधि में बाप बनना भी नहीं सुना!

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  2. दिलीप मंडल हमेशा की तरह. बढ़िया आलेख.

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  3. आपका लेख देखा ... पर एक सवाल मन में है ... की बस आपने positive points लिखे ... जबकि हर बात के कुछ positive points होते है और कुछ negative points ... पर मुझे लगता है की जब आप अपनी बात को रखते है , तो आप चाहते ही नही की पढने वाले को पूरी जानकारी मिले , आप चाहते है की पढने वाला बस वही पढ़े जो आप पढ़ना चाहते हो ... दुपट्टे से जुडी और भी कई बाते है , जैसे इसका इस्तेमाल क्या होता है / था ? और दुपट्टा छोड़ने पर क्या गलत बाते हुई ... और अगर आप ये सुब नही बताना चाहते तो में कहूँगा , की आप UPA सरकार के agent VINOD है जिसे समाज में confusion फैलाने के लिए छोड़ रखा है !

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