Wednesday, April 25, 2012

दलित हिन्दू समाज में क्यों बने हुए हैं?

Written by कुलदीप नैय्यर
आस्ट्रेलिया के एक संपादक ने जब भारतीय प्रेस से सवाल किया कि पत्रकारिता के क्षेत्र में कोई दलित, अछूत शीर्ष स्थान पर क्यों नहीं है, तो मैं परेशान हो गया. मैं इसे एक गलती मानता हूं, जिसे बहुत पहले ठीक कर लिया जाना चाहिए था. मुझे लगता कि अब आगे कोई और देर किए बिना इसे ठीक कर लिया जाएगा. लेकिन जब कुछ दिन पहले दलितों के गांधी डॉ. भीमराव अम्बेडकर की 121वीं जयंती पर जरा भी ध्यान नहीं दिया गया तो मुझे लगा कि दलितों के खिलाफ भेदभाव एक पूर्वाग्रह है जिसे समाप्त होने में दशकों लग जाएगा. दलित हिन्दू समाज के सबसे निचले पायदान पर हैं और उनके खिलाफ बहुत पहले से ही दुराग्रह बना हुआ है. इस दुराग्रह को बनाए रखने में कोई शर्मिन्दगी नहीं महसूस की गई है.
 डॉ. आम्बेडकर को याद करने के तौर पर प्रमुख अखबारों में सिर्फ केन्द्र सरकार द्वारा प्रायोजित एक पेज का विज्ञापन छपा. संसद के सेन्ट्रल हॉल में उनकी प्रतिमा के पास एक छोटा सा कार्यक्रम भी हुआ. यह कार्यक्रम आम आदमी की पहुंच के बाहर था. मैंने टेलीविजन चैनलों को डॉ. आम्बेडकर पर कोई कार्यक्रम दिखाते नहीं देखा और न ही उनकी सेवाओं को याद करते हुए किसी अखबार में संपादकीय या कोई लेख देखा. डॉ. आम्बेडकर भारतीय संविधान के निर्माता हैं. हमारी संसदीय व्यवस्था उनकी देन है. ऐसा संविधान में प्रतिष्ठापित है. मुझे याद है कितनी बुलन्दी के साथ उन्होंने हिन्दू समाज के अभिशाप अस्पृश्यता के खिलाफ प्रावधान की वकालत संसद में की थी. और दुराग्रह समाप्त होने को लेकर भरोसा जताया था. फिर भी अगड़ी जाति के लोगों ने उनके इस भरोसे को गलत साबित कर दिया है.
अनुसूचित जातियों यानि दलितों के लिए आरक्षण का प्रावधान संविधान में है. हालांकि यह प्रावधान उनके विरोध के बावजूद किया गया था. आम्बेडकर आरक्षण के खिलाफ थे. आरक्षण की तुलना उन्होंने बैसाखी से की थी. लेकिन उस वक्त तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और कांग्रेस के दूसरे नेता उन पर भारी पड़े और दस सालों के लिए आरक्षण की व्यवस्था उन्हें स्वीकारनी पडी. उस वक्त डा. आम्बेडकर ने ऐसा नहीं सोचा था कि एक ओर राजनीतिक दल तो दूसरी ओर दलितों के बीच के निहित स्वार्थ वाले, खासकर क्रीमीलेयर वाले लोग, आरक्षण की इस व्यवस्था को चुनावी लाभ के लिए लंबे समय तक खींचते चले जाएंगे. चुनावी लाभ का लोभ इतना बड़ा है कि संसद में बिना किसी बहस के आरक्षण का यह प्रावधान दशक दर दशक बढ़ाया जाता रहा है. हिन्दू समाज को डॉ. आम्बेडकर और उनके अनुयायियों का आभारी होना चाहिए कि इन लोगों ने बौध्द धर्म स्वीकार कर लिया. भेदभाव से छुटकारा पाने के लिए उन्होंने अपने अनुयायियों के साथ इस्लाम धर्म कबूल कर लेने की बात कही तो महात्मा गांधी ने उनसे ऐसा नहीं करने का आग्रह किया और यहां तक कि आमरण अनशन पर बैठ जाने की धमकी दी. डॉ. आम्बेडकर गांधी की इच्छा के आगे झुक गए लेकिन फिर से हिन्दू धर्म स्वीकारने से इंकार कर दिया.
लेकिन धर्मान्तरण से भी दलितों को कोई लाभ नहीं हुआ. इस्लाम, ईसाई या सिख धर्म में भी उनके साथ कमोबेश हिन्दू समाज जैसा ही व्यवहार होता रहा है. हालांकि इस्लाम, ईसाई या सिख धर्म समानता की बात करते हैं. लेकिन दलित जहां कहीं भी गए, उन्हें भेदभाव और असहायता का दंश झेलना पड़ा. इस तरह हिन्दुत्व के बाहर भी दलितों को जाति व्यवस्था की बुराईयों से मुक्ति नहीं मिली. सच्चर कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में इंगित किया है कि इस्लाम धर्म कबूल करने के बाद भी दलितों को अमानवीय व्यवहारों का सामना करना पड़ा है.
गांधीजी ने दलितों को हरिजन यानी ईश्वर के पुत्र का नाम दिया. लेकिन इसमें संरक्षणात्मक प्रवृत्ति नजर आती है, जिसे दलितों ने तिरस्कार के साथ खारिज कर दिया था. भारत की कुल आबादी में 17 प्रतिशत दलित हैं. लेकिन मुझे यह बात समझ में नहीं आती कि तमाम तरह के अपमानों को सहने के बावजूद वे हिन्दू समाज में क्यों बने हुए हैं? उन्होंने कभी बगावत नहीं की और न ही उस हिन्दू समाज को क्षति पहुंचाने वाला कोई काम किया, जो उन्हें आदमी भी नहीं मानता.
कुछ साल पहले कुछ दलितों ने कांशीराम के नेतृत्व में अपनी राजनीतिक पार्टी बहुजन समाज पार्टी बनाई. इससे उन्हें राजनीतिक पहचान तो मिली, लेकिन सामाजिक पहचान नहीं मिली. उत्तरप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने अपनी तमाम भ्रष्टाचार और सत्तावादी प्रवृत्तियों के बावजूद दलितों के बीच यह भाव तो जगाया कि वे थाना में जाकर अपनी शिकायतें दर्ज करा सकते हैं. समाज के दूसरी जाति के लोगों की तरह दलितों को भी कुर्सियां दी जाने लगीं. गृहमंत्री पी.चिदम्बरम ने दलितों को सत्ता का लाभ लेने के लिए बड़ी पार्टियों में शामिल होने की सलाह दी है. लेकिन इसका कुछ खास मायने नहीं है. आखिरकार दलित 45 वर्षों तक तो कांग्रेस के साथ थे ही. इसके बावजूद उनकी स्थिति ज्यों की त्यों बनी रही.
आज भी दलित सिर पर मैला ढोते हैं. सरकार इस पर रोक लगाने की बात करती है. यह बात पचास साल पहले ही शुरू की गई थी. उस वक्त भी गृह मंत्रालय ने निर्देश जारी किए थे. लेकिन उस वक्त से आज तक स्थिति में बहुत थोड़ा ही बदलाव आया है, क्योंकि सरकार इस प्रचलन को सिर्फ कानून बनाकर रोकने का प्रयास करती रही है. मुझे तो लगता है कि अगर दलित खुद सिर पर मैला ढोने से इंकार कर दें, तो उनकी स्थिति ज्यादा बेहतर हो सकती है. लेकिन वे इतने गरीब हैं कि वे अपनी आजीविका पर लात मारने की हिम्मत नहीं कर सकते.
इसी तरह दलितों के खिलाफ अपराध कम नहीं हुआ है. जिन इलाकों में अत्याचार की घटनाएं ज्यादा होती हैं, वहां इस समाज के लोगों को हथियार देने का प्रस्ताव है. इससे स्पष्ट है कि सरकार दलितों और उनकी संपत्ति को सुरक्षा प्रदान करने में विफल रही है, दुर्भाग्यवश, पुलिस भी वैसे जमींदारों और निहित स्वार्थ वालों के पक्ष में खड़ी हो जाती है, जो दलितों को ठीक उसी तरह अपना गुलाम समझते हैं जिस तरह राजा-महाराजा समझा करते थे. सरकारी आंकड़ों से इस बात का खुलासा होता है कि दलितों के दमन से जुड़े बहुत सारे मामले लंबित हैं. अगर केन्द्र सरकार दलितों के खिलाफ अत्याचारों को लेकर गंभीर रहती है तो मामलों के शीघ्र निपटान के लिए वह विशेष अदालत या फास्ट ट्रैक कोर्ट जैसी व्यवस्था करती. लेकिन आश्चर्य की बात है कि पटना हाईकोर्ट ने भोजपुर जिले के बथानी टोला में 21 दलितों की हत्या के सभी 23 अभियुक्तों को बरी कर दिया है.
अब यह बात साफ हो जानी चाहिए कि किसी सरकारी प्रयास से अपृश्यता समाप्त नहीं होने वाली. दरअसल मानसिकता बदले बगैर कामयाबी नहीं हासिल की जा सकती. बच्चे जिस परम्परा और धर्म के नाम पर बड़े हो रहे हैं, वह दुराग्रहपूर्ण है. जब तक समाज को पक्षपाती रवैया छोड़ने को मजबूर नहीं किया जाता तब तक यह स्थिति नहीं बदलने वाली.
देश को सामाजिक क्रांति की जरूरत है. लेकिन ऐसी क्रांति के लिए कोई आन्दोलन हो रहा हो, यह मुझे दिख नहीं रहा. उदाहरणस्वरूप लड़कियों को बोझ मानने का प्रचलन है. कितनी बच्चियां गर्भ में या जन्म के बाद मार दी जाती हैं, इसे गिनना संभव नहीं है. यह कोई तसल्ली देने वाली बात नहीं है कि ऐसी वारदातें तो ज्यादातर सिर्फ उत्तर भारत और खासकर पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और उत्तरप्रदेश में ही होती हैं. मानसिकता बदलने और दामन के धब्बे को खत्म करने के लिए निरंतर प्रयास करने का असर बड़े पैमाने पर व्याप्त इन बुराइयों को समाप्त करने पर पड़ सकता है. लेकिन ऐसा करने को कोई राजनीतिक दल तैयार नहीं है, और न ही एक्टिविस्ट तैयार हैं, क्योंकि उनकी नजर आर्थिक बदलाव पर है. सामाजिक समस्याओं पर ध्यान देने वाला कोई नहीं है.
साभारः देशबंधु
लेखक देश के चोटी के पत्रकार हैं.

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