Sunday, October 16, 2011

भूखें रहें | मासूम रहें | जिज्ञासु रहें | गलतियां करें…

http://mohallalive.com/2011/10/06/you-ve-got-to-find-what-you-love/
एपल के जरिये दुनिया को तकनीकी उद्यमिता का सबसे चमकदार चश्‍मा दिखाने वाले स्‍टीव जॉब्‍स अब हमारे बीच नहीं हैं। छह साल पहले स्‍टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के छात्रों के बीच उन्‍होंने एक व्‍याख्‍यान दिया था। वह व्‍याख्‍यान जिंदगी और जज्‍बा के बीच एक बेहद मजबूत पुल की तरह है। मूल अंग्रेजी में उसका टेक्‍स्‍ट यहां है, ‘You’ve got to find what you love,’ Jobs says जागृति यात्रा के निदेशक स्‍वप्निल कांत दीक्षित ने मोहल्‍ला लाइव के लिए जॉब्‍स के इस जरूरी व्‍याख्‍यान का हिंदी अनुवाद किया है। यह हम सब युवा उद्यमियों की ओर से स्‍टीव जॉब्‍स को श्रद्धांजलि की तरह भी है : मॉडरेटर
धन्यवाद!
मुझे गर्व है कि मैं आपके साथ हूं, आपकी दीक्षा के दिन। दुनिया के सबसे बेहतरीन विश्वविद्यालयों में से एक में। सच कहूं तो, मैंने कभी कॉलेज की पढ़ाई पूरी ही नहीं की। कॉलेज के दीक्षांत समारोह के इतना नजदीक मैं पहले नहीं गया। आज मैं आपको अपने जीवन की तीन कहानियां सुनाऊंगा। बस इतना ही, कुछ खास नहीं। महज तीन कहानियां।
पहली कहानी है, बिंदुओं को जोड़ कर देखने के बारे में। रीड कॉलेज को अपने पहले ही छह महीनों में मैंने छोड़ दिया, मगर मैं वहीं पड़ा रहा, अगले करीब 18 महीनों तक, उसे पूरी तरह छोड़ने के पहले। तो आखिर मैंने बीच में ही ये क्यों छोड़ा? ये मेरे जन्म से जुड़ी बात है। मेरी असली मां एक युवा, अविवाहित स्नातक छात्र थीं, और उन्होंने फैसला लिया मुझे गोद देने का। वो इस बात पर अड़ी थीं कि मुझे गोद लेने वाले स्नातक पढ़े-लिखे लोग हों, तो सारा इंतजाम पुख्ता था कि मुझे जन्म लेते ही एक वकील और उनकी पत्नी अपना लेंगे। बस गड़बड़़ इतनी ही हुई कि जब मैं प्रकट हुआ तो उन्होंने ये फैसला लिया कि उन्हें तो एक लड़की चाहिए। तो मेरे अभिभावकों को, जो कि वेट-लिस्ट में थे, रात में ही फोन कर के पूछा गया : “हमारे पास एक नवजात नर शिशु है – क्या आप उसे गोद लेंगे?” उन्होंने कहा : “क्यों नहीं”। मेरी असली मां को बाद में पता चला कि मेरी मां ने कॉलेज की पढ़ाई पूरी नहीं की थी। उन्होंने गोद देने के कागजातों पर दस्तखत करने से इंकार कर दिया। उन्होंने कई महीनों बाद इसकी इजाजत दी, जब मेरे माता-पिता ने वादा किया कि मुझे कॉलेज भेजा ही जाएगा। ये मेरे जीवन की शुरुआत थी। और करीब 17 साल बाद, मैं वास्तव में कॉलेज गया। मगर बड़ी मासूमियत से मैंने ऐसा कॉलेज चुना, जो लगभग स्टेनफोर्ड जितना महंगा था, और मेरे कामगार माता-पिता की सारी गाढ़ी कमाई मेरे कॉलेज की फीस में जा रही थी।
छह महीने बीतने पर, मुझे लगा कि इस शिक्षा से खास फायदा नहीं है। मुझे कुछ नहीं पता था कि मैं अपने जीवन के साथ क्या करूंगा और ये भी नही पता था कि ये जानने में कॉलेज कैसे मेरी मदद करेगा। और उसके बावजूद भी मैं, अपने माता-पिता के जीवन भर की कमाई लुटा रहा था। तो मैंने कॉलेज छोड़ने का फैसला लिया और विश्वास किया कि सब ठीक हो जाएगा। उस समय ये डरावना फैसला था, मगर पलट कर देखने से लगता है ये मेरे द्वारा लिये गये सबसे बेहतरीन फैसलों में था।
जिस क्षण मैंने कॉलेज छोड़ा, मैंने उन क्लासों में जाना बंद कर दिया जिनमें मेरी कोई रुचि नहीं थी, और उन सब क्लासों में बैठने लगा, जो मुझे रुचिकर लगती थीं।
ये उतना भी हसीन सफर नहीं था। मेरे पास हॉस्‍टल में कमरा नहीं था, तो मैं दोस्तों के कमरों में फर्श पर सोता था, कोक की खाली बोतलें 5 पैसे में वापस कर के, उससे खाना खरीदता था, और हर रविवार की रात को 7 मील पैदल चलकर हरे-कृष्ण मंदिर में हफ्ते में एक बार ढंग का खाना खाता था।
मुझे ये बहुत अच्छा लगता था। और जो भी मैंने सिर्फ अपनी जिज्ञासा और रुचि के लिए सीखा, वो बाद में जा कर अमूल्य सिद्ध हुआ। चलिए, आपको एक उदाहरण देता हूं…
रीड कॉलेज में उस समय शायद पूरे देश का सबसे अच्छा सुलेख (कैलिग्राफी) कोर्स चलता था। सारे कैंपस में हर पोस्टर, हर खांचे पर लगा हर लेबल बेहतरीन तरीके से हाथ से सुलेखित था। क्योंकि मैं पढ़ाई छोड़ चुका था, और मुझ पर क्लास जाने का दबाव नहीं था, मैंने फैसला किया कि मैं इस कोर्स के जरिये सुलेख लिखना सीखूंगा। मैंने सेंस और सेंस-सेरिफ आदि टाइपफेस सीखे, और अलग-अलग अक्षरों के बीच जगह को बढ़ाना और घटाना सीखा, और कैसे अच्छा सुलेख और टाइपोग्राफी अच्छी बनती है, ये सीखा। वो सुंदर था, ऐतिहासिक था और कलात्मकता से ऐसे ओत-प्रोत जो विज्ञान नहीं समझा सकता, और मैंने स्वयं को उससे बंधा पाया। और इस सब से कभी भी मेरे जीवन में काम आने की कोई आशा नहीं थी। मगर दस साल बाद, जब हम अपना पहला मैकिन्‍टोष कंप्‍यूटर बना रहे थे, वो सब मेरे काम आया। और हमने वो सारी बाते मैक में निहित कर दीं। ये पहला ऐसा कंप्‍यूटर था, जिसमें सुंदर टाइपोग्राफी थी। यदि मैंने वो एक कोर्स अपने कॉलेज में नहीं किया होता, तो मैक में कभी भी तमाम टाइप-फेस और अनुपात में सजे सुंदर फोंट नहीं होते। और क्योंकि विन्डोज ने मैक की नकल ही की है, ये संभव है कि कभी पीसी पर भी वो नहीं ही होते। यदि मैंने कॉलेज बीच में नहीं छोड़ा होता, तो कभी भी मैं सुलेख की उस क्लास में नहीं जा पाया होता, और पर्सनल कंप्‍यूटर में शायद ये रोचक टाइपोग्राफी नहीं होती, जो आपको दिखती है।
जाहिर है जब मैं कॉलेज में था, इन बिंदुओं को जोड़ कर देख पाना असंभव था। लेकिन वो साफ-साफ समझ आ रहा था, उस समय के दस साल बाद।
देखिए, आप भविष्य में जुड़ने वाले बिंदुओं को नहीं जोड़ पाएंगे लेकिन मुड़ कर देखने पर आप उन्हें आसानी से जोड़ सकते हैं। लिहाजा आपको ये विश्वास रखना होगा कि भविष्य में ये बिंदु कैसे न कैसे जुड़ ही जाएंगे। आपको किसी चीज में विश्वास रखना होगा – चाहे उसे अंदर की आवाज कहें, तकदीर कहें, जीवन, कर्म, जो भी कहें। क्योंकि ये मान कर चलना कि ये बिंदु जुड़ेंगे, आपको अपने दिल को काम करने का आत्म-विश्वास देगा। तब भी जब कि आप सबसे अलग रास्ते पर जाएं। और यही आपके जीवन में फर्क लाएगा।
मेरी दूसरी कहानी है प्रेम और क्षति के बारे में। मैं बहुत नसीबवाला था – मुझे जल्दी पता लग गया कि मैं क्या करना चाहता था। वोज और मैंने एप्पल की शुरुआत अपने माता-पिता के गैरिज से की थी, जब मैं 20 साल का था। हमने मेहनत की, और दस साल में एप्पल सिर्फ हम दोनों की कंपनी, जो एक गैरिज में थी, से बढ़ कर 2 बिलियन डॉलर और 4000 कर्मचारियों की हो गयी थी। सिर्फ एक साल पहले ही हमने अपना सबसे अच्छा उत्पाद – मैकिन्टोष – निकाला था, और मैं तुरंत ही 30 वर्ष का हुआ था…
…और फिर मुझे कंपनी से निकाल फेंका गया।
आप उस कंपनी से कैसे निकाले जा सकते हैं, जो आपने शुरू की हो? हुआ ये था कि एप्पल की बढ़त के साथ हमने किसी को कंपनी में रखा था, ये सोच कर कि वो बहुत होनहार है। करीब एक साल तक सब कुछ ठीक चला। पर उसके बाद भविष्य की हमारी योजनाओं में फर्क आने लगा और हम एक दूसरे से पूर्णतः असहमत हो गये। जब ऐसा हुआ, तो हमारे निदेशकों के बोर्ड ने उसका साथ दिया।
मैं तीस साल का था और कंपनी से बाहर था। और बहुत ही शोर-शराबे के साथ बाहर। मेरे वयस्‍क जीवन का एकमात्र केंद्र-बिंदु मेरे जीवन से बाहर था, और ये मेरे लिए सदमा था। मुझे अगले कुछ महीनों तक तो समझ ही नहीं आया कि मैं क्या करूं। मुझे लगा कि मैंने उद्यमियों की पीढ़ियों को शर्मसार कर दिया है। कि जैसे ही रिले-रेस का डंडा मेरे हाथ आया, मैंने उसे गिरा दिया। मैं डेविड पकार्ड (एचपी के संस्थापक) और बॉब नोयेस से मिला और इतने खराब प्रदर्शन के लिए माफी मांगी। मेरी असफलता जग-जाहिर हो गयी थी। मैं बदनाम था। मुझे लगा कि मैं सिलिकोन-वैली से भाग जाऊं…
…मगर धीरे-धीरे मेरे अंदर एक बीज स्फुटित हुआ। मैं अब भी उसे प्यार करता था, जो मैं करता था। एप्पल में हुए घटनाक्रम ने मेरे और मेरे काम के बीच के लगाव को जरा भी कम नहीं किया था। मेरा तिरस्कार किया गया था, मगर अब भी मुझे इश्क था। और मैंने फैसला किया कि मैं फिर से शुरुआत करूंगा।
मैं तब ये नहीं देख पा रहा था, मगर एप्पल से निकाल दिये जाने से अच्छा मेरे जीवन में आज तक कुछ हुआ ही नहीं। सफलता में चूर होने के भारी-भरकम बोझ की जगह नौसिखिया होने की ताजगी ने ले ली थी, हर बात के बारे में कम सुनिश्चितता। इसने मुझे मेरे जीवन के सबसे रचनात्मक दौर में प्रवेश दिया। अगले पांच साल में, मैंने “नेक्स्ट” नाम की कंपनी शुरू की, फिर एक और “पिक्सार” नाम की कंपनी, और मुझे उस औरत से इश्क भी हुआ, जो बाद में मेरी पत्नी बनने वाली थी। पिक्सार ने कंप्‍यूटर पर रची गयी विश्व की पहली कार्टून फिल्म बनायी – टॉय स्टोरी, और आज वो विश्व की सबसे सफल कंप्‍यूटर एनिमेशन की कंपनी है। आश्चर्यजनक घटनाक्रम में, एप्पल ने नेक्स्ट को खरीद लिया, और मैं वापस एप्पल आ गया, और जो तकनीकें हमनें नेक्स्ट में विकसित की थीं, वो एप्पल के दुबारा जीवंत होने के लिए जिम्मेदार हैं। और लौरीन और मेरे पास एक सुंदर सुखी परिवार है।
मेरा यकीन है कि ऐसा कुछ न हुआ होता, यदि मैं एप्पल से निकाला न गया होता।
दवा का स्वाद अत्यंत कड़वा था, मगर शायद मरीज को उसकी निहायत जरूरत थी। कभी-कभी जीवन आपके सर को चट्टानों तले कुचलता है। उस समय अपना विश्वास मत छोड़िए। मैं आश्वस्त हूं कि केवल एक कारण से मैंने हार नहीं मानी – ये कि मुझे अपने काम से प्यार था। आपको ढूंढ़़ना होगा कि आप किसे प्यार करते हैं। ये बात आपके काम और आपके प्रेमियों पर बराबर लागू होती है। आपका काम आपके जीवन का एक बड़ा हिस्सा होगा, और इसलिए संतुष्ट रहने का एकमात्र तरीका है वो करना, जो आपको महान काम लगता हो। और महान काम करने का एकमात्र तरीका है, वो करना जिस से आपको प्रेम हो। यदि वो आपको अभी तक नहीं मिला है, तो ढूंढ़ते रहिए। ठहरिए मत। आशा मत छोड़िए। दिल के बाकी मामलों की तरह, आपको पता लग जाएगा जब वो आपको मिलेगा। और किसी भी महान दोस्ती की तरह, साल दर साल ये और बेहतर और बेहतर होता जाता है। तो ढूंढ़िए जब तक वो आपको न मिले। ठहरिए मत।
मेरी तीसरी कहानी है, मृत्यु के बारे में। जब मैं 17 साल का था, तो मैंने कह ये सूत्र पढ़ा था : “यदि हर दिन को जीवन के आखिरी दिन मान कर जियोगे, तो एक दिन जरूर तुम सही होगे।” उसने मुझ पर गहरी छाप छोड़ी… और तब से, पिछले 33 साल से, मैंने हर सुबह खुद को शीशे में देख कर पूछा है : “अगर ये मेरे जीवन का आखिरी दिन हो, तो क्या मैं वही करना चाहूंगा, जो मैं आज करने जा रहा हूं?” और जब भी लगातार कई दिनों तक इसका नकारात्मक जवाब मिलता है, मुझे पता लग जाता है कि कुछ बदलना जरूरी है। ये याद रखना कि मैं जल्द ही मर जाऊंगा, सबसे महत्वपूर्ण तरीका है जीवन के बड़े फैसले लेने का। क्योंकि लगभग सब कुछ – आपसे की जाने वाली आशाएं, सारा गर्व, असफलता का सारा डर, शर्मिंदगी से भय … ये सब मृत्यु के सामने बेमानी हो जाता है, और वही बचता है जो सबसे जरूरी है। ये याद रखना कि कि आपको एक दिन मरना ही होगा, सबसे अच्छा तरीका है जो मुझे पता है इस सोच द्वारा छले जाने का कि आप के पास खोने को कुछ है। दरअसल, आप तो पहले ही नंगे हैं। कोई कारण ही नहीं है अपने दिल की बात नहीं मानने का।
करीब एक साल पहले पता लगा कि मुझे कैंसर है। सुबह 7:30 पर एक जांच हुई, और उसने मेरी पाचक-ग्रंथि में एक ट्यूमर दिखाया। मुझे तो ये तक नहीं पता था कि पाचक-ग्रंथि होती क्या है। डॉक्टरों ने मुझे बताया कि इस तरह के कैंसर का कोई इलाज नहीं है, और मैं ज्यादा से ज्यादा तीन से छह महीने जीवित रहूंगा। मेरे डॉक्टर ने मुझे घर जा कर अपने काम-काज ठीक करने को कहा, जिसका मतलब है – मरने के लिए तैयार हो जाओ। इसका मतलब है कि कोशिश करो अपने बच्‍चों को वो सब बताने की, जो आप अगले दस साल में बताना चाहता थे, अब सिर्फ कुछ महीनों में ही। इस का मतलब है कि वो सब काम कर डालो, जिससे कि आपके परिवार को आपकी मृत्यु से कम-से-कम कष्ट हो। इसका मतलब है अलविदा कह लो।
मैं सारे दिन इस फैसले के साथ ही जिया। उस शाम को मेरी बायोप्सी हुई, और उन्होंने एक एन्डोस्कोप मेरे गले में उतारा, मेरे पेट से होते हुए, मेरी आंतों में, और मेरी पाचक-ग्रंथि के ट्यूमर में से कुछ सेल निकाले। मुझे बेहोश कर दिया गया था, मगर मेरी पत्नी, जो वहां थीं, ने मुझे बताया कि जब उन्होंने सूक्ष्म-दर्शी से उन सेलों को देखा, तो डॉक्टरों को रोना आ गया क्योंकि मेरा कैंसर पाचक-ग्रंथि के उन गिने-चुने कैंसरों में से था, जिसका इलाज संभव था। मेरी शल्य-क्रिया हुई, और भाग्य से, मैं अब ठीक हूं। मृत्यु के इतने करीब मैं कभी नहीं गया, और मैं चाहता भी नहीं अगले कुछ दशकों तक मैं और करीब जाऊं।
इस आपदा को झेल कर मैं आज आपसे और भी निश्चितता से कह सकता हूं कि मृत्यु एक उपयोगी मगर केवल सुनने में अच्छा लगने वाली संरचना है : कोई भी मरना नहीं चाहता। यहां तक कि जो लोग स्वर्ग जाना चाहते हैं, लेकिन वहां जाने के लिए मरना नहीं चाहते। और इसके बावजूद, मृत्यु हम सबकी साझी मंजिल है। कभी भी कोई भी इस से बच नहीं सका है। और ये ठीक भी है, क्योंकि मृत्यु शायद जीवन का महानतम अविष्कार है। ये जीवन का बदलाव लाने वाला मुनीम है। ये प्राचीन को हटा कर नवीन के लिए जगह बनाता है। इस समय आप ही नवीन हैं, मगर जल्द ही एक दिन आएगा, जब आप प्राचीन होंगे और आपको हटा दिया जाएगा।
इतनी नाटकीयता के लिए माफी चाहता हूं, मगर ये शाश्वत सत्य है। आपका जीवनकाल सीमित है; उसे दूसरे किसी की जिंदगी जीने में व्यर्थ न कीजिए। सिद्धांतों में मत फंसिए – जो कि दूसरों की सोच का निष्‍कर्ष है। दूसरों के मतों के शोर द्वारा अपनी अंदरूनी आवाज का कत्ल मत होने दीजिए। और सबसे जरूरी, अपने दिल और अपने मन की बात करने की हिम्मत रखिए। दिल और मन को पता होता है कि आप सच में क्या बनना चाहते हैं। बाकी सब द्वितीय है।
जब मैं युवा था, द होल अर्थ कैटालाग नाम का एक प्रकाशन होता था, जो कि मेरी पीढ़ी के लिए बाइबल जैसा था। उसे स्टीवार्ट ब्रांड नाम के एक व्यक्ति ने बनाया था, यहीं पास में ही – मैनलो पार्क में, और उसने अपने काव्यात्मक अंदाज से इसमें जान फूंक दी थी। ये 60 के दशक के अंत में हुआ था, पर्सनल कंप्‍यूटर वगैरह आने के पहले, और इसे टाइपराइटरों, कैंचियों और पोलारायड कैमरों की मदद से रचा गया था। ये गूगल के पेपरबैक रूप की तरह था, गूगल के आने के करीब 35 साल पहले : ये आदर्शवादी था, और पटा पड़ा था जादुई तरीकों, और महान आइडियों से। स्टीवार्ट और उसकी टीम ने द होल अर्थ कैटालाग के कई संस्करण निकाले, और फिर जब वक्त आ गया, तो उसका एक आखिरी संस्करण निकाला। ये सत्तर के दशक के बीच हुआ, और मैं आपकी ही उम्र का था। उस आखिरी संस्करण के पीछे गांव की एक सड़क की सुबह ली गयी तस्वीर थी, जैसी सड़क पर आप स्वयं को पाएंगे यदि आप बहुत उत्साही हों। उसके नीचे ये शब्द लिखे थे : “भूखे रहें। मासूम रहें।” (Stay Hungry… Stay Foolish… जिज्ञासु रहें, गलतियां करें।) जाते जाते वो ये ही विदाई – संदेश दे कर गये थे। भूखे रहें। मासूम रहें। और मैं अपने लिए सिर्फ यही दुआ करता हूं। और आपके दीक्षांत समारोह पर, मैं आपके लिए भी यही दुआ करता हूं। भूखे रहें। मासूम रहें। (जिज्ञासु रहें। गलतियां करें।)
आप सब का बहुत धन्यवाद।

1 comment:

  1. यह रवि रतलामी साहब पढ़वा चुके हैं। हालांकि अनुवाद इस बार स्वप्निल जी ने किया है……वैसे मुझे यह व्याख्यान प्रचारित अधिक लगता है… ओहो सुधीर जी, आप यह शब्द पुष्टिकरण हटाते क्यों नहीं?

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