Saturday, July 30, 2011

अब सवर्णों का आरक्षण, 1540 ओबीसी, 122 अजा, 33 जजा अभ्यर्थियों को 2011 के आईआईटी-जेईई में दाखिले से रोका

नई दिल्ली, 2 जून, 2011.
डॉ0 उदित राज, राष्ट्रीय अध्यक्ष, अनुसूचित जाति/जन जाति संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ ने कहा कि अब दिल्ली विश्वविद्यालय, आईआईटी, जेएनयू, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन में सवर्णों का 51 प्रतिशत आरक्षण कर दिया गया है। जिसकी इस देश में आबादी लगभग 85 फीसदी है, अब उन्हें 49 प्रतिशत के भीतर ही भागीदारी मिलेगी और 15 प्रतिशत वालों को 51 प्रतिशत का अधिकार।
डॉ0 उदित राज ने कहा कि पिछले हफ्ते आईआईटी, जेईई परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ। 2545 ओबीसी परीक्षार्थी पास हुए, जिसमें 1540 ने सामान्य मेरिट अर्थात् बिना छूट मेरिट में आए। इन्हें आरक्षण की श्रेणी में शामिल कर दिया गया। यदि ऐसा न हुआ होता तो 1540 अतिरिक्त ओबीसी के परीक्षार्थी प्रवेश पा जाते। इसी तरह से 1950  दलित परीक्षार्थी पास हुए, जिसमें 122 बिना किसी छूट के पास हुए, फिर भी इन्हें आरक्षण की श्रेणी में रखा गया। यदि ऐसा न होता तो 122 अतिरिक्त दलित छात्र आईआईटी में प्रवेश पाते। 645 आदिवासी परीक्षार्थियों में से 33 बिना छूट के पास हुए। उन्हें भी आरक्षित श्रेणी में रख दिया गया।
डॉ0 उदित राज ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार 1992, रितेश आर. साह बनाम डॉ0 वाई.एल. यमूल (1996), आर.के. सब्बरवाल बनाम स्टेट ऑफ पंजाब (1995), भारत सरकार बनाम सत्य प्रकाश (2006) आदि मामलों में स्पष्ट किया गया है कि यदि आरक्षित श्रेणी के परीक्षार्थी बिना छूट के परीक्षा पास करते हैं तो उन्हें सामान्य सीटों या पदों पर नियुक्त करना है। 19 अगस्त, 2010 को दिल्ली हाई कोर्ट में डॉ0 जगवीर सिंह बनाम एम्स ने भी ऐसा कहा है। संविधान की धारा 15 व 16 में इन वर्गों के लिए  सामान्य अवसर के अलावा अतिरिक्त लाभ का प्रावधान है, फिर भी ये संस्थान इन मौलिक अधिकारों को ठेंगा दिखाने का कार्य कर रहे हैं। डॉ0 उदित राज ने कहा कि पिछले वर्ष दिल्ली विश्वविद्यालय में लगभग 5400 ओबीसी की सीटों को सामान्य श्रेणी के छात्रों को दे दिया था। दिल्ली विश्वविद्यालय में लगभग 70 कॉलेज हैं जिसमें से 30 कॉलेजों के ऑकड़े जुटाए जा सके। उनके अनुसार कुल ओबीसी की सीटें 7059 थीं और प्रवेश मिला 3158 को ही। मीडिया एवं अन्य स्रोतों से जब अनुमान लगाया गया तो पता लगा कि 5400 ओबीसी की सीटों की लूट थी। सुप्रीम कोर्ट के 10 अप्रैल,2008 को अशोक ठाकुर के मामले में दिए गए फैसले का गलत फायदा उठाया है। यह फैसला 5 जजों का है। इस केस में सुप्रीम कोर्ट के सामने यह सवाल था ही नहीं कि कट ऑफ कितना होना चाहिए? पांच जजों की बेंच में दलबीर भंडारी ने अपनी सिफारिश की थी कि  ओबीसी का कट ऑफ मार्क्स जनरल कटेगरी के मुकाबले 10 प्रतिशत से ज्यादा का नहीं होना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि संस्थान कमेटी बनाए और देखे कि प्रवेश में जो अंकों का अंतर है वह किस तरह से समायोजित किया जाए।  मजे की बात है कि यह कोई सुप्रीम कोर्ट का फैसला नहीं है। इसी तरह से 2010-11 में जेएनयू ने भी 311 ओबीसी की सीटें सामान्य वर्ग के छात्रों को दे दिया। 2009 में 285 ओबीसी की सीटें सामान्य वर्ग के छात्रों को दे दी गयी थी। जेएनयू के इस कट ऑफ फार्मूले को दिल्ली हाई कोर्ट ने 7 सितंबर, 2010 को अपूर्वा के मामले में गलत ठहराया और 2 ओबीसी के छात्रों को दाखिला देने का निर्देश भी दिया। इसके बावजूद धांधली चालू है।
डॉ0 उदित राज ने आगे कहा कि इसी तरह से इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मॉस कम्युनिकेशन में भी धांधली हो रही है। श्री जितेन्द्र कुमार यादव ने सूचना-अधिकार के तहत इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मॉस कम्युनिकेशन से पूछा कि किस आधार पर हिन्दी पत्रकारिता में तमाम सामान्य वर्ग की तुलना में ओबीसी एवं एससी के छात्र ज्यादा अंक प्राप्त करने के बावजूद उनका प्रवेश सामान्य श्रेणी में नहीं हुआ है, जैसे (ओबीसी से) नीरज सिंह-68, जय शंकर-65, संदीप-64, राजेश-62, अखिल-58, नंद लाल, रमेश एवं जितेन्द्र महाला-56 एवं अन्य पांच परीक्षार्थी-55 अंक प्राप्त किए जो तमाम सामान्य वर्ग के परीक्षार्थियों से ज्यादा है। एससी में से चन्द्र कांता - 71, धमेन्द्र-67, हिमांशु-66, कमलेश-56 अंक प्राप्त किए जो तमाम सामान्य परीक्षार्थियों से अधिक है फिर भी प्रवेश सामान्य श्रेणी में नहीं हुआ। दलित परीक्षार्थी चन्द्रकांता को यदि न्यायोजित ढंग से प्रवेश दिया जाता तो वे प्रवेश की श्रेणी में टॉपरों में होती।  इस सूचना के जवाब में मॉस कम्युनिकेशन ने कहा कि प्रत्येक वर्ग के छात्रों की मेरिट लिस्ट उनके द्वारा अप्लाई किए गए कटेगरी के अनुसार ही बनायी जाती है।
डॉ0 उदित राज ने कहा कि सन् 2006 में सेंट्रल एजुकेशनल इंस्टीट्यूशन (रिजर्वेशन इन एडमीशन) ऐक्ट 2006 बनाया गया ताकि पिछड़े वर्ग के छात्रों को प्रवेश में आरक्षण दिया जा सके। इसके लिए अरबों की धनराशि भी दी गयी ताकि संस्थान बिल्डिंग और सीटें बढ़ा सके। सीटें तो बढ़ीं लेकिन जो लाभ पिछड़े वर्ग को मिलना चाहिए था जातिवादी एवं पूर्वाग्रहित लोगों के कारण नहीं मिल पा रहा है। ऐसी स्थिति में यह क्या देश की एकता एवं अखंडता के लिए उचित है। देश की बड़ी आबादी को वंचित करके न तो भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष सफल हो सकता है और  न ही विकास आधारित राजनीति। इससे दलितों एवं पिछड़ों में बड़ा असंतोष व्याप्त होता जा रहा है। संसद के इस सत्र में इसको उठाया जाएगा और अगले सप्ताह जंतर-मंतर पर प्रदर्शन भी होगा।

3 comments:

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  3. मैरिट का गला घोंटने के लिए यह किया जाता है और मैरिट की दुहाई भी दी जाती है. ऊपर दिए आँकड़ों से साफ है कि मैरिट के नाम पर केवल सवर्णों की ही भरती होती है और भारत के मूलनिवासियों को केवल आरक्षित सीटों पर ही रखा जाता है साथ ही आरक्षण शब्द को इतना घृणित शब्द बना दिया गया है जितना दलित जातियों के नामों को. इसका सीधा सा एक ही प्रयोजन है कि इन दलित वर्गों की छवि को मैरिट से जुड़ने न दिया जाए और उन्हें घृणा के निशाने पर ही रखा जाए. इस प्रकार संविधान की भावना और नियमों की धज्जियाँ उड़ाने कार्य किया जा रहा है. मैंने इसका लिंक फेस बुक पर और अन्य ग्रुपों में भी लगा दिया है.

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