Saturday, April 23, 2011

उम्र और अटैंप्ट में छूट से किसे फायदा है और किसे नुकसान


दिलीप मंडल 

यूपीएससी समेत कई सरकारी संस्थान और एजंसियां नौकरियों में खास समुदायों को उम्र में छूट देती हैं। ऐसी ही छूट एंट्रेंस और प्रतियोगी परीक्षा में शामिल होने पर भी मिलती है। यूपीएससी की सिविल सर्विस परीक्षाओं में दलित और आदिवासी उम्मीदवारों को ऊपरी आयु सीमा में पांच साल की और ओबीसी उम्मीदवारों को तीन साल की छूट मिलती है, जबकि 30 साल की उम्र पार करने वाला जनरल कैटिगरी का उम्मीदवार यह परीक्षा नहीं दे सकता। दलित और आदिवासी उम्मीदवार के लिए सिविल सर्विस परीक्षा में अटेंप्ट की कोई सीमा नहीं है जबकि ओबीसी के उम्मीदवार सात बार इस परीक्षा में बैठ सकते हैं। वहीं जनरल कैटिगरी के उम्मीदवार यह परीक्षा अधिकतम चार बार दे सकते हैं। 

हाल में सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका में यह सवाल उठाया गया कि दलित, आदिवासी और ओबीसी उम्मीदवारों को यूपीएससी सिविल सर्विस परीक्षा के लिए ज्यादा अटेंप्ट की इजाजत क्यों दी जाती है। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने यूपीएससी से पूछा है कि ओबीसी उम्मीदवारों को यह परीक्षा सात बार देने की छूट क्यों मिलनी चाहिए। दरअसल हाई कोर्ट ने इस याचिका को यह कहकर खारिज कर दिया था कि पिछड़े वर्गों को ज्यादा मौका देना गलत नहीं है क्योंकि संविधान की धारा 16(4) का मकसद यही है कि अवसर की समानता सुनिश्चित की जाए और सामाजिक कारणों से जो समुदाय पीछे रह गए हैं, उन्हें सरकारी नौकरियों में पर्याप्त मौके दिए जाएं। 

पहली नजर में तो यह व्यवस्था दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़े वर्गों के हित में दिखती है कि उन्हें जनरल कैटिगरी के उम्मीदवारों के मुकाबले ज्यादा उम्र तक और ज्यादा बार परीक्षा देने के मौके मिलते हैं। इस मामले में भारतीय राज्य व्यवस्था उनके प्रति उदारता बरतती दिखती है। लेकिन क्या सचमुच यह व्यवस्था उन समुदायों के हित में है? क्या उम्र और अटेंप्ट में छूट से वंचित समुदायों का वाकई भला हो रहा है? और अगर ऐसी कोई छूट न दी जाए तो क्या वंचित समुदायों का नुकसान हो जाएगा? 

सबसे पहले अगर आखिरी सवाल पर विचार करें तो इस छूट के न होने पर भी इन समुदायों से चुनकर आने वाले उम्मीदवारों की कुल संख्या पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। मिसाल के तौर पर इस साल सिविल सर्विस परीक्षा के बाद अगर 580 उम्मीदवार चुने जाने हैं, तो संवैधानिक प्रावधानों के हिसाब से यह तय है कि इनमें से कितने कैंडिडेट दलित, आदिवासी या ओबीसी कैटिगरी के होंगे। इस संख्या पर इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि कितने कैंडिडेट ने किस उम्र में यह परीक्षा दी है या फिर उनका यह कौन सा अटेंप्ट था। दलित, आदिवासी या ओबीसी कैटिगरी में टैलंट पूल अब इतना बड़ा है कि हर साल उनके हजारों उम्मीदवार यह परीक्षा पास कर सकते हैं। लेकिन सीट सीमित होने के कारण उनमें से सिर्फ वही चुने जाते हैं, जिनका परफॉर्मेंस बेहतर होता है। यानी अगर इन समुदायों के उम्मीदवारों को उम्र या अटेंप्ट में कोई छूट न मिले, तो भी सिविल सर्विस में इनकी संख्या पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। 

लेकिन उम्र और अटेंप्ट में छूट से एक फर्क पड़ता है। फर्क यह है कि इन समुदाय के अफसर अगर बड़ी उम्र में इस नौकरी में आते हैं तो उनके लिए ब्यूरोक्रेसी के टॉप पदों पर पहुंच पाना असंभव है। सरकारी नौकरियों में रिटायरमेंट की उम्र 60 साल है और इस मामले में दलित, आदिवासी, ओबीसी या जनरल कैटिगरी का कोई फर्क नहीं किया गया है। यानी अलग अलग उम्र में सर्विस जॉइन करने वाले अफसर एक ही उम्र में रिटायर होंगे। इसे इस तरह समझा जा सकता है कि अगर कोई दलित अफसर 35 साल की उम्र में सर्विस जॉइन करता है तो उसके पास नौकरी करने के लिए सिर्फ 25 साल होंगे जबकि जनरल कैटिगरी के कैंडिडेट के पास नौकरी के कम से कम 30 साल होंगे। 

नौकरशाही में आखिरी पांच साल की सीनियोरिटी बेहद महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि कैबिनेट सचिव से लेकर मंत्रालयों के सचिव और राज्यों के प्रमुख सचिव जैसे सबसे बड़े पदों पर एक साल की सीनियोरिटी से फर्क पड़ जाता है। सही उम्र में सिविल सर्विस जॉइन करना टॉप पदों पर पहुंचने के लिए बेहद जरूरी है और उम्र में मिलने वाली छूट चाहे पहली नजर में लुभावनी नजर आए, लेकिन इसका कुल असर यह होता है कि नौकरशाही के शिखर पर वंचित समुदायों के कम ही लोग पहुंच पाते हैं। 

क्या यह किसी तरह की साजिश है? इसका कोई सबूत नहीं है। हालांकि यह भी सच है कि आंबेडकर से लेकर किसी भी दलित चिंतक ने नौकरियों में उम्र की छूट मांगी हो, इसका प्रमाण नहीं मिलता। यह छूट क्यों शुरू हुई और इसके पीछे तर्क क्या रहे होंगे- यह शोध का विषय है। संभव है कि आजादी के तुरंत बाद इन समुदायों का टैलंट पूल छोटा होगा और इस वजह से यह छूट देनी पड़ी हो। लेकिन अब तो यह स्थिति नहीं रही। 14 जुलाई को राज्य सभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में मानव संसाधन मंत्रालय की ओर से जवाब दिया गया है कि इस साल आईआईटी में 1493 ओबीसी, 1265 दलित और 659 आदिवासी चुने गए। 

आईआईटी जैसी मुश्किल परीक्षा पास करने वालों के लिए यूपीएससी का इम्तहान पास करना मुश्किल नहीं हो सकता। और यह संख्या सिर्फ आईआईटी की है। आईआईएम से लेकर केंद्रीय और राज्यों की यूनिवर्सिटीज़ और तकनीकी शिक्षा संस्थानों में अब इन समुदायों के लाखों छात्र हायर एजुकेशन ले रहे हैं और प्रफेसर से लेकर नामी इंस्टिट्यूट में डायरेक्टर तक बन रहे हैं। ऐसे में केंद्रीय नौकरियों में उम्र और अटेंप्ट की छूट इन समुदायों के कैंडिडेट का मनोबल कम करने वाली मानी जा सकती है। 

जाहिर है आयु सीमा और अटेंप्ट में छूट का कोई तर्क अगर पहले कभी था, तो उसका आधार खत्म हो चुका है। अब यह छूट इन समुदायों के गले का फंदा ही साबित हो रही है। अगर यह छूट खत्म होती है तो ब्यूरोक्रेसी के ऊंचे पदों पर भी दलित, आदिवासी और ओबीसी की उपस्थिति बेहतर होगी। 

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