Tuesday, March 18, 2014
भारतीय स्त्री-जीवन को आईना दिखाती फिल्में ‘हाईवे’ और ‘क्वीन’
युवा लेखिका सुदीप्ति
कम लिखती हैं लेकिन खूब लिखती हैं. हम पाठकों को उनका 'लंचबॉक्स' फिल्म पर
लिखा लेख अभी तक याद है. आज उन्होंने हाल में आई दो फिल्मों 'हाइवे' और 'क्वीन' पर
लिखा है. इतना ही कह सकता हूँ कि आज मैं 'हाइवे' फिल्म देखने जा रहा हूँ,
इसी हफ्ते कोशिश करूँगा कि 'क्वीन' भी देख लूँ. सिनेमा की अच्छी समीक्षा
यही काम करती है शायद. आप भी पढ़िए- प्रभात रंजन.
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इरशाद कामिल के एक गीत की कुछ
पंक्तियाँ यों हैं ‘रॉकस्टार’ फिल्म में:
"मैंने ये भी
सोचा है अक्सर
तू भी मैं भी सभी हैं शीशे
खुदी को हम सभी में देखें
मैं ही हूँ, मैं हूँ मैं,
तो फिर
सही गलत तुम्हारा मैं हूँ,
मुझे पाना, पाना है खुद
को."
फ़िल्मी शीशों में कुछ अक्स जब खुद-जैसे
दिखते हैं या जाने-पहचाने से लगते हैं, तब हमारे भीतर कोई हलचल सी जरुर होती है! ऐसी फ़िल्में हमें पसंद आयें या न
आयें, फिर भी एक कोई नुक्ता रह जाता है हमारे दिलो-दिमाग में जिस पर हम सोचते रह
जाते हैं बाद में भी, अक्सरहां। हाल में आयी दो फ़िल्में— 'हाईवे' और 'क्वीन'— ऐसी ही हैं, जिन्हें
देख मैं सोचती रह गई कई रोज बाद तक भी।
यह सच है कि समय और भूगोल की बात
कायर करते हैं। वे भला कब गवारा करते हैं ‘छुट्टा’ हो जाना किसी का! लेकिन जरुरी यह भी तो
नहीं कि हर कंधे से जुए को उतारा जा सके। ऐसे लोगों के पैर दोराहे पर होते हैं और
आत्मा भटकन की शिकार होती है। मेरी समझ से आत्मा की भटकन का परिष्कार होता है 'हाईवे' और 'क्वीन' जैसी फिल्मों से। दोनों फ़िल्में बेहद अलग विषयों पर बनी हैं। एक संजीदा
है तो दूसरी हास्य से लबरेज। एक में अँधेरा घर है तो दूसरी में अलग किस्म की रौशनी
है। दोनों फ़िल्में मुझे एक धरातल पर एक-दूसरे के बहुत आसपास लगीं। इनके
मुख्य स्त्री-चरित्रों की यात्रा खुद को पा लेने की है। उनका रास्ता भले दुनियावी
है, पर वह भीतर के ठहराव को सीधे-सीधे प्रभावित करता है। इसी प्रक्रिया में उन्होंने
खुद को समझा है, एक ऐसे बिंदु पर जहाँ से दोनों के लिए वापसी सम्भव नहीं रहती। दोनों
फिल्मों में कहानी का तनाव वहां से बुना जाना शुरू होता है जहाँ नायिकाओं का विवाह
होने वाला ही रहता है।
'हाईवे' फिल्म में वीरा शादी होने से ऐन पहले अपहृत हो जाती है और इस दुर्घटना में
अपने ‘सही’ और आज्ञाकारी किस्म के होनेवाले पति से मुक्त हो जाती है, वहीं ‘क्वीन’
फिल्म में रानी को शादी के एक दिन पहले जेलर खुद मुक्ति का सन्देश सुना जाता है। यह
अलग बात है कि तब उसे वह ‘मुक्ति’ समझ में नहीं आती। ये दोनों नायिकाएं दुनिया की
लम्बी और जटिल यात्रा के बाद अपने वास्तविक ‘स्व’ को आख़िरकार पहचान पाती हैं और
उन्हें चाहिए क्या, यह भी समझ पाती हैं।
'हाईवे' फिल्म में वीरा अपहरण के दौरान अँधेरे, भयावह, बंद और गंदे ठिकानों और
प्रसंगों से गुजरने के बाद खुले नैसर्गिक पहाड़ों, बादलों और नदियों
के उजाले में अपने भीतर रसे-बसे अँधेरे से लड़ने की हिम्मत पाती है। ऐसी हिम्म्त,
जिससे वह सबके सामने अपने 'शुक्ला अंकल' की बाथरूम-चॉकलेट-कथा कह पाती है। वहीं ‘क्वीन’ फिल्म में रानी पेरिस से
एम्स्टर्डम तक की यात्रा में अनजाने लोगों के साथ दुनिया में अपने होने, साँस लेने के मायने समझती है, जिसके बाद उसे विजय के साथ होने वाली घुटन
समझ में आती है।
अगर आपने ‘हाईवे’ फिल्म देखी है तो याद
कीजिए उस वीरा को जो अपने अपहर्ता को ‘सॉरी’ बोलती है क्योंकि
उसने उससे बदतमीजी से बात की है। आप उस लड़की की मानसिक बनावट की असंगतता को समझिये
जो नौ साल की उम्र में शारीरिक शोषण की शिकार हुई, फिर भी उसे सौम्य और सुसंस्कृत ढंग
से ही पेश आना है; आला दरजे के स्कूलों से ‘मैनर्स और एटिकेट्स’ सीखी, पढ़ी-लिखी और
सजी-संवरी बार्बी डॉलनुमा लड़की जिसे पितृसत्तात्मक गृह-व्यवस्था
में आधुनिक, कुलीन और सुसंस्कृत बनाया गया है; जो अपने को
बुरी तरह मारनेवाले अपहर्ता को भी सॉरी कहती है। अगर आप उसके सॉरी बोलने की ‘भद्रता’
की एब्सर्ड परिस्थितियों पर गौर करेंगे तब आप समझ पाएंगे आखिरी से पहले वाले दृश्य
में उसके चीखने का मतलब। हाँ, अगर वह दृश्य थोडा संक्षिप्त होता तो और मारक
बन पड़ता। ऐसा मुझे लगा, लेकिन बिना इस दुनियावी यात्रा के वह इस चीख और मुकाम तक
पहुँच ही नहीं सकती थी, जहाँ से वह कहती है, "अब मैं जा चुकी। अब लौट नहीं सकती।"
वहीं ‘क्वीन’ फिल्म में रानी विजय
के शादी से इंकार कर देने के बाद टूटी-बिखरी हुई जिस हाल में हैं, उसे याद कीजिए।
कमरा बंद कर लेना, किसी की नज़रों का सामना न कर पाना, बार-बार फोन मिलाना,
फोन की स्क्रीन देखना, एक कॉल के इंतज़ार में ऐसी बेचैनी... और फिर
एम्स्टर्डम में उसी विजय को भिखारी की तरह गिड़गिड़ाते देख यह कहना कि मैं कल मिलती
हूँ तुमसे, कल हम बात करेंगे। अगले दिन कैफे में उसकी उपस्थिति में घुटन महसूस करना और शादी की उम्मीद बंधे प्यार
की दुहाई देते विजय को छोड़ चार दिन के दोस्तों (जिसमें कोई उसका प्रेमी नहीं है) के पास जाने की उसकी विकलता देख तुरत सहृदय दर्शक को सन्देश मिल जाता है
कि वह खुद के होने के अर्थ को समझने लगी है।
दोनों फिल्मों को मैं यों ही नहीं मिला
रही। ये दोनों हमारे देश की लगभग नब्बे फीसदी लड़कियों की जीवन-झांकी दिखाती फ़िल्में
हैं। हमारे तथाकथित सुसंस्कृत और महान व्यवस्था वाले समाज की हकीकत यही है
कि अधिकांश लड़कियां बचपन की इन काली यादों को समेटे ही जवान होती हैं। किसी के
अनुभव में कम और किसी के ज्यादा, मगर दाग तो होते ही हैं। आज लोग जागरूक हो
रहे हैं तो सचाई ज्यादा सामने आ रही है, लेकिन क्या पहले की पीढ़ियों की औरतों के
पास अपने बचपन की डरावनी स्मृतियाँ नहीं है? हैं, खूब हैं। 'गन्दी जगह छूना',
'गंदे से छूना' और 'गंदे
से देखना'— इस अनुभव के दंश को एक से अधिक बार झेल कर ही
अधिकांश स्त्रियाँ उस उम्र तक पहुँचती हैं, जहाँ उनको अपनी देह का कोई मतलब समझ
में आता है। महान संस्कृति की दुहाई देते नहीं थकते हमारे देश और समाज में, परिवार
के भीतर भी, कन्या का बचपन सुरक्षित नहीं है और रानी जैसी मध्यवर्गीय लड़कियों को
तो परिवार-समाज में सारी शिक्षा अपने कौमार्य को सुरक्षित रखकर पति तक पहुँचाने की ही मिलती है।
मेहंदी और संगीत की रस्म में रानी भविष्य के सुंदर सपनों में बेसुध नहीं है,
बल्कि उसकी चिंताएं विवाह से लेकर सुहागरात तक दौड़ रही हैं। सब ठीक हो जाये इसके
लिए वैष्णों माता जी की मन्नत मांगती इस नवयुवती पर
हमें उस वक्त फिल्म देखते भले हंसी आती है, पर यह हमारे वृहतर समाज का सच ही तो है!
‘हाईवे’ देखते हुए एकबारगी यह सवाल
तो उठता है कि वीरा जिस पारिवारिक परिवेश से है, क्या ऐसी दमघोंटू गुलामी आज भी वहाँ
है? ज़माना बदला है, बहुत
कुछ। कुलीन और सत्ता-संपन्न परिवारों में भी औरतों की आज़ादी के मायने बदले
हैं, पर हैं भी ऐसे परिवार अभी भी जैसा कि फिल्म में दिखाया गया है। नव-धनाढ्य
सत्ता-संपन्न परिवारों का सांस्कृतिक आचरण तो बल्कि अलग परख की मांग करता है।
बहरहाल, यह मान ही लिया जाये कि अपनी स्त्रियों को इस खास तरीके से रखने वाले
कुलीन परिवार अभी हैं जहाँ बाथरूम के अँधेरे हादसे भी हैं, तब भी महावीर के प्रति
वीरा का वात्सल्य समझ में नहीं आता। अपने अपहर्ता के प्रति वह जैसी ममतालु हो उठी
है, उस मुकाम तक पहुँचने वाली यात्रा साफ नहीं दिखा पाते इम्तियाज़ ‘हाईवे’ में।
यहीं ‘क्वीन’ आगे निकल जाती है। उसमें रानी
के कई दोस्त बनते हैं और उन्हीं के साथ वह ज़िंदगी के उन सभी पहलुओं से रूबरू होती
है, जहाँ एक प्रेमी ठसक से उसे कमतर दिखाता था। वह इन दोस्तों के साथ एक व्यक्ति,
केवल व्यक्ति के रूप में विकसित होती है, एक स्त्री या माँ नहीं बन जाती। यह देखना
सुखद है। सिकंदर उर्फ़ ऑलेक्ज़ेन्डर का रानी के प्रति झुकाव और इतालवी सेफ के लिए
रानी का क्रश— सब फिल्म में सहज से प्रतीत होते हैं। एक लड़के के प्रेम से बाहर निकलने
के लिए किसी दूसरे अच्छे लड़के की जरुरत नहीं होती रानी को।
कहानी की बात अब छोड़ देते हैं। ‘हाईवे’
में मुझे पसंद आए— दृश्य। वे सारे दृश्य जो खेत, जंगल, पहाड़, बादल, बर्फ, पेड़, धूप-छांह के पार हमें एक दूसरी दुनिया में लेकर जाते
हैं। रास्ते के किनारे लगे पेड़ों से लेकर लम्बे दरख्तों वाले जिस जंगल को इम्तियाज़
फिल्म में ले आते हैं, उसमें मैं अभी भी कहीं रह गई हूँ थोड़ा। ऐसा और भी दर्शकों
के साथ संभव है। पहाड़, बादल, पानी, हिम— सब दैवीय होने का आभास देते हैं, लेकिन जंगल तो केवल रहस्यमय ही
लगते हैं। और रहस्य के भीतर से साबुत निकलना उन जिप्सी आत्माओं के बस का नहीं, जिन्हें
खतरे से चुम्बकीय खिंचाव महसूस होता है। फ़िल्म का एक दृश्य जो स्थिर है आँखों में—
पहाड़ी नदी की उन्मत प्रबल वेगवान धारा के बीच एक चट्टान पर बैठ ‘अपहृत’ वीरा अपनी
आज़ादी के क्षण को जी रही होती है। वह हँसते-हँसते रो और रोते-रोते हँस रही है। उसके
हंसने-रोने से प्रकृति की नैसर्गिक नीरवता भंग हो रही है हमारी आँखों में। फिर भी
उस भाव-क्षण का इससे सुंदर चित्रण भला और क्या हो सकता था! वहाँ वह नदी बीच एक
अपहृत लड़की नहीं है, बल्कि दमघोंटू क्षणों में ठहरी हुई वह विकल लड़की है जो स्वयं अब
भीतर से हहास भरती नदी है— उद्धत, निर्बंध और भाव-विह्वल।
दूसरे ही दृश्य में ऐसी उद्दाम वेगवती लड़की घर की हद में बंधने को तत्पर दिखती है
जो फिर असंगत लगता है। लेकिन असंगत जीवन-प्रसंगों और
वास्तविकताओं की ही तो है यह फिल्म— ‘हाइवे’।
‘क्वीन’ के दृश्य अपनी हास्यपरकता
में भी मानीख़ेज़ हैं। इतालवी शेफ अपने व्यंजन की बुराई सुनने के बाद टूटे हुए दर्प
के बावजूद रानी की सुंदरता पर तो लोभित है ही। रानी भी उसके प्रति तीव्र शारीरिक
आकर्षण महसूस करती है। ऐसे में ‘किस’ के मामले में भी भारतीयों को बेस्ट साबित
करने का जिम्मा उठाए हमारी नायिका, जबकि उसके पास एक अदद ‘किस’ का भी अनुभव नहीं है,
का तरह-तरह से
होंठ सिकोड़ के किस-चैम्पियन हो जाने की तैयारी करना हमें पहले हंसाता है। फिर सोचने
पर मज़बूर करता है कि क्या यह किसी भी समाज के लिए वाकई स्वस्थ स्थिति है कि बीस-बाईस
की उम्र तक के लड़के-लड़कियां भी इन सामान्य शारीरिक अनुभवों से वंचित रहें? क्या हम यह वाकई नहीं समझते कि दमित किशोरावस्था कुंठित युवावस्था को लेकर आता है? अगर नहीं समझते तो खजुराहो और कोणार्क के
मंदिरों का इस देश में होने का अर्थ क्या है?
इसी फिल्म के एक दृश्य में पेरिस की
किसी सड़क पर एक अज़नबी के सामने देर रात में नशे में धुत्त, बिंदास नाचती रानी मानो
अपने एक्स बॉयफ्रेंड विजय की हर टोकाटाकी और प्रतिबन्ध को धत्ता बता रही है, उससे
अपनी चेतना को छुटकारा दिला रही है, लेकिन उस दृश्य में उसके चेहरे पर प्रतिशोध की
कोई छाया नहीं, बल्कि मुक्ति की आभा दिख रही है। वह एक चिड़िया लग रही है जो पिंजरे
में नहीं, बल्कि आसमान में है। जिसके पंख कोई बाँध नहीं सका है। इस दृश्य को देखना
मन को निहाल कर देता है लेकिन फिर एक सवाल सुगबुगाता है मन में। फिल्म में वह जिस
दिल्ली में उस अजनबी को बुला रही है, क्या हकीकत में वहां आधी रात में बगैर नशा
किये हुए भी कोई युवा स्त्री किसी अजनबी के सामने नाचना तो दूर, अपनी बेख्याली में
झूम भी सकती है?
बहरहाल, दोनों फिल्मों में पुरुष चरित्र
एक सहयोगी किरदार के रूप में ही आये हैं। और निःसंदेह उन्होंने अपने काम को बढ़िया
से अंजाम दिया है। दोनों फ़िल्में अपने अनकन्वेंशनल अंत के कारण भी खास हैं।
यहाँ परम्परागत 'दी एंड' नहीं है,
पर ये अंत हमें सुखद व मुकम्मल लगते हैं क्योंकि भीतर के खुशनुमा अहसास को जगाने
वाला अंत है इनका। खासतौर पर ‘क्वीन’ का, क्योंकि रानी वीरा की तरह स्मृतियों के
सहारे नहीं, बल्कि स्मृतियों से उबर आगे के जीवन का रास्ता चुनती है। ये
फ़िल्में भारतीय युवा स्त्रियों के स्वायत्त होने का संकेत देती हैं। यह स्वायत्तता
पूर्ण या निर्दोष तो नहीं है, बॉलीवुडिया खामियों और नाटकीयता में गुंथा-सना है, फिर
भी संकेत ही इनकी सार्थकता का उन्स है।
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