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11 May 2013
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Book Launch and Discussion: Hindi Mein Samachar
♦ अरविंद दास
वर्ष 1991 में उदारीकरण के बाद भारत में विकास की जो बयार बही है, उसमें राज्य ने अपनी आर्थिक-सामाजिक जिम्मेदारियों से पिंड छुड़ाते हुए विकास के कार्यों को निजी कंपनियों के हवाले कर दिया है। जिसका लाभ विशाल कारपोरेशन और निजी कंपनियां उठा रही हैं और इन्हें भारतीय राज्य, पुलिस और न्यायपालिका येन-केन-प्रकारेण मदद पहुंचा रही है। उड़ीसा के कलिंगनगर (2006) या पश्चिम बंगाल के सिंगूर, नंदीग्राम (2007) में बने विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) में कथित विकास कार्यों में सरकार का रवैया और जिसके विरोध में उठे स्वर इसकी गवाही देते हैं (मेनन और निगम: 2008)।[ii]
नवउदारवादी अर्थव्यवस्था में विकास कार्यों के फलस्वरूप समाज के पिछड़े तबकों, दलितों और आदिवासियों के विकास या उनके उत्पीड़न और शोषण की कहानियों के निरूपण में हिंदी पत्रकारिता की क्या भूमिका रही है?
दलित लेखक मोहनदास नैमिशराय ने नवभारत टाइम्स में ‘बार-बार बिखरती हरिजन राजनीति’ नाम से संपादकीय पेज पर एक लेख लिखा, जो 8 दिसंबर 1986 को प्रकाशित हुआ। यह दैनिक राष्ट्रीय समाचार पत्र में छपा इनका पहला लेख था। अगले कुछ वर्षों (1990) तक दलितों की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति को लेकर इनके लेख नवभारत टाइम्स में छपते रहे। इसी दौरान वे नवभारत टाइम्स के लिए ‘दिल्ली-देहात’ कॉलम के माध्यम से दिल्ली और इसके आस-पड़ोस के बारे में भी लिखते रहे।[iii] नैमिशराय से पहले दलित मुद्दों पर मस्तराम कपूर और सुरेंद्र मोहन नवभारत टाइम्स में लेख लिखा करते थे। वर्ष 2005 में दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद नवभारत टाइम्स ने अनियमित कॉलम लिखना शुरू किया, जो वर्ष 2009 तक जारी रहा।
हम कह सकते हैं कि दलितों के द्वारा दलित मुद्दों को लेकर 80 के दशक में हिंदी के विभिन्न अखबारों में जिस विमर्श-बहस की शुरूआत हुई, वह आज भी जारी है। लेकिन यहां पर यह नोट करना आवश्यक है कि 80 के दशक के उत्तरार्द्ध में जिन विषयों को लेकर दलित लेखक विमर्श किया करते थे, वह भूमंडलीकरण के बाद बदल गये हैं।
हम यहां वर्ष 1986 और वर्ष 2005 में विश्लेषण की अवधि के दौरान नवभारत टाइम्स में दलितों, आदिवासियों से संबंधित खबरों, आलेखों का विश्लेषण कर देखने की कोशिश करेंगे कि हिंदी अखबारों में दलितों, आदिवासियों से संबंधित खबरों का निरूपण किस रूप में हो रहा है। साथ ही वर्ष 1986 में दलित मुद्दों से जुड़े दलित लेखक मोहनदास नैमिशराय और अन्य लेखकों के आलेख और वर्ष 2005 में दलित मुद्दों से जुड़े दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद और अन्य लेखकों के आलेख का विश्लेषण करेंगे।
किसान और मजदूरों से जुड़ी खबरों की तरह न ही वर्ष 1986 में और न ही वर्ष 2005 में विश्लेषण अवधि के दौरान दलितों और आदिवासियों से जुड़ी कोई खबर नवभारत टाइम्स की सुर्खी बनी। वर्ष 1986 में जहां दलित और आदिवासी से जुड़े पांच मुद्दे नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हुए, जिसमें ‘आदिवासी गदर-केंद्र के लिए आजादी का अर्थ’ शीर्षक से एक संपादकीय अग्रलेख भी शामिल है, वहीं वर्ष 2005 में भी दलित और आदिवासी से जुड़े पांच मुद्दे प्रकाशित हुए, इसमें भी एक दिन ‘उनके दलित और हमारे’ शीर्षक से संपादकीय अग्रलेख शामिल है। वर्ष 1986 में ‘बांग्लादेश चकमा आदिवासी वापस लेगा’ शीर्षक से एक खबर दो कॉलम में पहले पन्ने पर प्रकाशित हुई।
स्पष्टत: दलितों और आदिवासियों से जुड़ी हुई खबरों को 80 के दशक की तरह ही वर्तमान में नवभारत टाइम्स में कोई खास तवज्जो नहीं दी जाती है। भूमंडलीकरण के बाद नवभारत टाइम्स में दलितों और आदिवासियों से जुड़ी खबरों के ट्रीटमेंट में कोई अंतर नहीं दिखता है।
8 दिसंबर 1986 को नवभारत टाइम्स में प्रकाशित अपने पहले आलेख ‘बार-बार बिखरती हरिजन राजनीति’ में दलित नेताओं के बीच आपसी फूट और उनकी स्वार्थपरता की आलोचना करते हुए मोहनदास नैमिशराय ने लिखा है, “आज अपने अस्तित्व की तलाश में संपूर्ण दलित वर्ग भटकाव की स्थिति में है। वह हजार टुकड़ों में बंटा है। उसकी अस्मिता से स्वयं दलित नेताओं ने ही सौदेबाजी की है जो अलग-अलग राजनीतिक खेमों में बंटकर समाज की नहीं बल्कि अपनी सेवा कर रहे हैं।”
हालांकि वर्ष 1986 में नैमिशराय के अन्य लेख नवभारत टाइम्स में प्रकाशित नहीं हुए, लेकिन अगले कुछ वर्षों में नवभारत टाइम्स में प्रकाशित उनके लेखों मसलन, ‘दलित चक्रव्यूह में संत रविदास (25 फरवरी 1987), ‘दलित राजनीति और जनमोर्चा’ (21 नवंबर 1987), ‘दलित नेताओं की जातिगत राजनीति’ (4 फरवरी 1988), ‘दलित राजनीति में बहुजन समाज पार्टी के उभरते स्वर’ (5 दिसंबर 1989) आदि पर नजर डालने पर स्पष्ट है कि उनके आलेखों का स्वर राजनीतिक और दलितों की सामाजिक चेतना से संपन्न था। बाद के वर्षों में नैमिशराय ने जनसत्ता और राष्ट्रीय सहारा जैसे हिंदी के दैनिक अखबारों के लिए भी लिखा।
इसी तरह 23 सितंबर 1986 को नवभारत टाइम्स में ‘पेरियार की याद और आज के नये सवाल’ शीर्षक से मस्तराम कपूर के लेख प्रकाशित हुए। इस लेख में वे सर्वणों के द्वारा दलित हितों की उपेक्षा और दलितों के हाथों में नेतृत्व की वकालत करते हुए लिखते हैं, “इस व्यवस्था को बदलना अब निहायत जरूरी है। वर्तमान राजनैतिक दल यह काम नहीं कर सकते क्योंकि उन सबका नेतृत्व सवर्ण जातियों के पास है। जब तक कोई ऐसा दल नहीं बनता जिसका नेतृत्व दलित वर्गों के पास हो, और जब तक कम से कम पांच साल तक देश का प्रधानमंत्री हरिजन नहीं बनता, तब तक इस स्थिति में बदलाव लाना मुश्किल है।”
यहां पर 13 मई 1986 को नवभारत में मलूकचंद बैनीवाल की ‘शाहदरा की वाल्मीकियों से दूरी क्यों?’ शीर्षक से छपी एक चिट्ठी द्रष्टव्य है: “4 मई को दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में राष्ट्रीय वाल्मीकि सम्मेलन में सात करोड़ वाल्मीकि वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले 10 हजार वाल्मीकि प्रतिनिधि सम्मेलन के मुख्य अतिथि राजीव गांधी का सुबह से शाम तक इंतजार करते रहे, किंतु प्रधानमंत्री इस सम्मेलन में शरीक नहीं हुए। राजीव जी इस्लामी सम्मेलनों में शामिल हो रहे हैं किंतु वाल्मीकि सम्मेलनों में वे आना पसंद नहीं कर पा रहे हैं। आखिर क्यों?” जाहिर है कि 1990 के दशक में कांग्रेस से अलग होकर दलितों की अलग अस्मिता और राजनीतिक पहचान, साथ ही बहुजन समाज पार्टी के उभार के स्वर अखबारों में व्यक्त होने लगे थे।
हिंदी की सार्वजनिक दुनिया में 80 के दशक में जिस दलित विमर्श की शुरूआत हुई, उसे हिंदी अखबारों ने मोहनदास नैमिशराय जैसे दलित लेखकों के लेखों के माध्यम से आगे बढ़ाया। दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद वर्ष 2005 से नवभारत टाइम्स में कॉलम लिखते रहे हैं। इससे पहले हिंदी दैनिक राष्ट्रीय सहारा में उनके आलेख छपते रहे। उन्होंने अंग्रेजी दैनिक ‘पायोनियर’ में वर्ष 1999 में कॉलम लिखना शुरू किया, जो वर्ष 2009 तक जारी रहा। नैमिशराय और चंद्रभान प्रसाद के माध्यम से हिंदी अखबारों में पहली बार दलित विमर्श से जुड़ी बहस-मुबाहिसा को एक दिशा देने की कोशिश की गयी। यहां पर यह रेखांकित करना जरूरी है कि नैमिशराय और चंद्रभान प्रसाद से पहले दलित लेखकों में कृष्ण मुरारी जाटव, डीआर नीम के लेख नवभारत टाइम्स (दिल्ली) और हिंदुस्तान (दिल्ली) में छपा करते थे, लेकिन जैसा कि चंद्रभान प्रसाद (2009) कहते हैं, “भारतीय मीडिया ने दलित चिंतकों का ‘ब्रांड’ कभी नहीं बनाया, जैसा कि वे अन्य चिंतकों के साथ करते हैं।”[iv]
90 के दशक और वर्तमान में भी दलित विमर्श में एक तरह की निरंतरता है लेकिन उसके स्वरूप में अंतर दिखाई पड़ता है। मोहनदास नैमिशराय (2009) कहते हैं, “वर्तमान में दलित विमर्श के मुद्दे जनमानस पर अपना प्रभाव डालते हैं, जिसे अखबार छोड़ना नहीं चाहते लेकिन उनका उद्देश्य वैसा नहीं है जैसा कि 80 के दशक में था। इन बीस वर्षों में दलित विमर्श का समूल गायब हो चला है। दलित विमर्श में दलित इतिहास, अस्मिता और संस्कृति लिपटी हुई थी जो कि अब नहीं दिखती। वर्तमान में बाजार के दृष्टिकोण से सब तय हो रहा है, उनमें प्रोफेशनल दृष्टि ज्यादा है।”[v]
हम यहां पर वर्ष 2005 में नवभारत टाइम्स में चंद्रभान प्रसाद और अन्य लेखकों के संपादकीय पेज पर छपे लेखों के माध्यम से भूमंडलीकरण के बाद दलित विमर्श के बदलते स्वरूप की पड़ताल करने की कोशिश करेंगे। चंद्रभान प्रसाद अपने आलेखों में भूमंडलीकरण के दौर में पूंजीवाद और उपभोग को बढ़ावा देने और उसमें दलितों की हिस्सेदारी और देश में ‘दलित पूंजीपतियों’ के उभार की बार-बार वकालत करते हैं। साथ ही अमरीकी अश्वेतों से दलितों की तुलना कर भारतीय राज्य और समाज को अमरीकी राज्य और समाज से सीख लेकर अपने समाज में अमरीका की तरह ही ‘डाइवर्सिटी’ लाने की गुजारिश करते हैं। वे छह जनवरी 2005 को ‘दलित से बनता बाजार’ शीर्षक लेख में वर्षों से आर्थिक अभाव और गरीबी को झेल रहे दलितों के बारे में लिखते हैं, “…चूंकि दलित इंटरप्राइजिंग कंज्यूमर होते हैं, इसलिए वे इस जकड़न को तोड़ने में चिंगारी की भूमिका निभा सकते हैं। प्राइवेट सेक्टर में दलितों को रिजर्वेशन अगर मिले, तो इससे कंज्यूमर क्रांति होगी और जाहिर है, उसका फायदा प्राइवेट सेक्टर को ही सबसे ज्यादा मिलेगा।”
प्रसाद के इस लेख को इस परिप्रेक्ष्य में देखना प्रासंगिक होगा कि वर्ष 1991 में भारतीय राज्य ने जो उदारीकरण और निजीकरण की नीति अपनायी, उसके बाद सरकारी नौकरियों में कटौती हुई। दलितों के लिए संविधान के प्रावधान के तहत सरकारी नौकरियों में जो आरक्षण की व्यवस्था की गयी उसके बहुत मानी अब नहीं रह गये। पिछले दशक में सार्वजनिक उपक्रमों (पब्लिक इंटरप्राइजेज) में विनिवेश की प्रक्रिया और निजीकरण को काफी जोर-शोर से लागू किया गया है। इस बात को नोट करते हुए चंद्रभान प्रसाद निजी क्षेत्रों में भी दलितों के लिए आरक्षण देने पर जोर देते हैं। वे अपने लेख में भारतीय समाज को अमरीकी समाज से सीख लेने की बात करते हैं और अमरीकी समाज में व्याप्त ‘डाइवर्सिटी’ (विविधता) को अपनाने की वकालत करते हैं। लेकिन अमरीकी समाज में वर्षों तक अश्वेतों ने अपने अधिकारों और न्याय के लिए किस तरह लड़ाई लड़ी, इसकी चर्चा करने से वे बचते हैं। न ही उनके आलेखों में भूमंडलीकरण के बाद समाज में अप्रत्याशित रूप से बढ़ी असमानता, जिसकी सबसे ज्यादा मार गरीबों, दलितों, आदिवासियों पर पड़ी है, और समाज में फैली संवृद्धि में अंतर्निहित अंतर्विरोधों की ही चर्चा मिलती है।
‘दलित पूंजीवाद’ विमर्श को आगे बढ़ाते हुए 22 अप्रैल 2005, को ‘दलित पूंजीपति क्यों नहीं’ शीर्षक लेख में वे एक बार फिर अमरीकी अश्वेतों और भारतीय दलितों की तुलना करते हुए लिखते हैं, “दलितों में भी अरबपति, करोड़पति, उद्योगपति तथा व्यवसायी हों – यह समय की मांग है। यह भारत के हित में है। अश्वेतों की तरह ही भारत में दलित बुरजुआजी का उदय हो, इस मांग को सबसे पहले दलितों को ही उठाना होगा। पूंजी, उद्योग तथा व्यवसाय में भागीदारी के बिना राजसत्ता में भागीदारी हमेशा खोखली रहेगी।”
भूमंडलीकरण के बाद भारतीय समाज में तेजी से फैली उपभोग की संस्कृति में दलितों की भागीदारी और दलितों के पूंजीपति बनने की आकांक्षा की जिस अकुंठ भाव से चंद्रभान प्रसाद अपने आलेखों में वकालत करते हैं[vi], उसे हम भूमंडलीकरण के बाद दलित विमर्श में एक नये मोड़ के रूप में देख सकते हैं। चंद्रभान प्रसाद का सारा जोर बाजार के माध्यम से दलितों के लिए नयी अस्मिता के निर्माण पर है। अन्यत्र (अंग्रेजी दैनिक पायोनियर के कॉलम में) भी वे भूमंडलीकरण, निजीकरण के बाद दलितों के लिए कारोबार के क्षेत्र में उभरे नये अवसर के बारे में लिखते हैं, “क्यों कोई भूमंडलीय (ग्लोबल) को छोड़ स्थानीय (लोकल) को अपनाएगा? बंद और स्थानीय अर्थव्यवस्था को जो जितना पसंद करेगा उतना ही वह भारतीय पिछड़ेपन पर मुल्लमा चढ़ाने का काम करेगा।”
चंद्रभान प्रसाद (2009) कहते हैं कि भूमंडलीकरण के बाद दलित मुद्दों का भूमंडलीकरण (उदाहरण स्वरूप वर्ष 2001 में डरबन में हुए ‘नस्लभेद के खिलाफ विश्ल सम्मेलन’ में दलित मुद्दे को जोर-शोर से उठाया गया) हो गया है। अब दलितों की तुलना अमरीकी अश्वतों से की जाने लगी है। हालांकि दलित विचारकों, लेखकों जैसे कांचा इलैया, गेल ऑम्वेट, वीटी राजशेखर आदि के बीच भूमंडलीकरण से दलितों को होने वाले ‘नफा-नुकसान’ को लेकर बहस जारी है, लेकिन हाल के वर्षों में चंद्रभान प्रसाद के विचारों को दलित चिंतकों के बीच में तेजी से समर्थन मिला है और वे एक बड़े दलित चिंतक के रूप में उभरे हैं (मेनन और निगम: 2007)।
हम कह सकते हैं कि भूमंडलीकरण के बाद हिंदी मीडिया को चंद्रभान प्रसाद के रूप में एक ऐसा स्वर मिला है, जो खुलकर पूंजीवाद और उपभोग का समर्थन करता है। उदारीकरण और भूमंडलीकरण के बाद यह अखबार की बदली ‘विचारधारा’ और राज्य की विचारधारा से भी मेल खाता है। निस्संदेह भूमंडलीकरण के बाद चंद्रभान प्रसाद के एक दलित चिंतक के रूप में उभार में मीडिया (प्रिंट और खबरिया चैनल दोनों) की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
♦ अरविंद दास
भूमंडलीकरण के बाद की हिंदी पत्रकारिता पर पत्रकार और मीडिया आलोचक अरविंद दास की हाल ही में छपी किताब हिंदी में समाचार का आज विमोचन होना है। समारोह में मीडिया पर चर्चा होगी और वीर भारत तलवार, करन थापर, ओम थानवी और रवीश कुमार उसमें शिरकत करेंगे। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के सेमिनार हॉल नंबर 3 में शाम के साढ़े पांच बजे यह आयोजन है। मोहल्ला लाइव की ओर से हम इस आयोजन में शामिल होने का आपसे अनुरोध करते हैं: मॉडरेटरबेनेडिक्ट एंडरसन ने अपनी चर्चित पुस्तक ‘इमैजिंड कम्यूनिटीज’ में ‘प्रिंट कैंपिटलिज्म’ के द्वारा राष्ट्रीयता के विकास और साथ-साथ उपराष्ट्रीय अस्मिताओं में केंद्र से दूर जाने की प्रवृत्तियों को बढ़ाने की बात की है।[i] एंडरसन की इस स्थापना से अपना मत विरोध जताते हुए रॉबिन जैफ्री (2000) ने नोट किया है कि भारतीय भाषाई अखबारों में आयी क्रांति ने भारतीय राष्ट्र की एकताबद्ध अस्मिता को कमजोर करने की बजाय मजबूत ही किया है। लेकिन सवाल है कि राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने के क्रम में भाषाई अखबारों, विशेषकर हिंदी अखबारों का भारतीय समाज के वंचित तबकों के प्रति क्या रुख रहा है? ‘विकसित और मजबूत होते भारतीय राष्ट्र’ में क्या दलितों, आदिवासियों के लिए भी कोई जगह है?
वर्ष 1991 में उदारीकरण के बाद भारत में विकास की जो बयार बही है, उसमें राज्य ने अपनी आर्थिक-सामाजिक जिम्मेदारियों से पिंड छुड़ाते हुए विकास के कार्यों को निजी कंपनियों के हवाले कर दिया है। जिसका लाभ विशाल कारपोरेशन और निजी कंपनियां उठा रही हैं और इन्हें भारतीय राज्य, पुलिस और न्यायपालिका येन-केन-प्रकारेण मदद पहुंचा रही है। उड़ीसा के कलिंगनगर (2006) या पश्चिम बंगाल के सिंगूर, नंदीग्राम (2007) में बने विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) में कथित विकास कार्यों में सरकार का रवैया और जिसके विरोध में उठे स्वर इसकी गवाही देते हैं (मेनन और निगम: 2008)।[ii]
नवउदारवादी अर्थव्यवस्था में विकास कार्यों के फलस्वरूप समाज के पिछड़े तबकों, दलितों और आदिवासियों के विकास या उनके उत्पीड़न और शोषण की कहानियों के निरूपण में हिंदी पत्रकारिता की क्या भूमिका रही है?
दलित लेखक मोहनदास नैमिशराय ने नवभारत टाइम्स में ‘बार-बार बिखरती हरिजन राजनीति’ नाम से संपादकीय पेज पर एक लेख लिखा, जो 8 दिसंबर 1986 को प्रकाशित हुआ। यह दैनिक राष्ट्रीय समाचार पत्र में छपा इनका पहला लेख था। अगले कुछ वर्षों (1990) तक दलितों की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति को लेकर इनके लेख नवभारत टाइम्स में छपते रहे। इसी दौरान वे नवभारत टाइम्स के लिए ‘दिल्ली-देहात’ कॉलम के माध्यम से दिल्ली और इसके आस-पड़ोस के बारे में भी लिखते रहे।[iii] नैमिशराय से पहले दलित मुद्दों पर मस्तराम कपूर और सुरेंद्र मोहन नवभारत टाइम्स में लेख लिखा करते थे। वर्ष 2005 में दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद नवभारत टाइम्स ने अनियमित कॉलम लिखना शुरू किया, जो वर्ष 2009 तक जारी रहा।
हम कह सकते हैं कि दलितों के द्वारा दलित मुद्दों को लेकर 80 के दशक में हिंदी के विभिन्न अखबारों में जिस विमर्श-बहस की शुरूआत हुई, वह आज भी जारी है। लेकिन यहां पर यह नोट करना आवश्यक है कि 80 के दशक के उत्तरार्द्ध में जिन विषयों को लेकर दलित लेखक विमर्श किया करते थे, वह भूमंडलीकरण के बाद बदल गये हैं।
हम यहां वर्ष 1986 और वर्ष 2005 में विश्लेषण की अवधि के दौरान नवभारत टाइम्स में दलितों, आदिवासियों से संबंधित खबरों, आलेखों का विश्लेषण कर देखने की कोशिश करेंगे कि हिंदी अखबारों में दलितों, आदिवासियों से संबंधित खबरों का निरूपण किस रूप में हो रहा है। साथ ही वर्ष 1986 में दलित मुद्दों से जुड़े दलित लेखक मोहनदास नैमिशराय और अन्य लेखकों के आलेख और वर्ष 2005 में दलित मुद्दों से जुड़े दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद और अन्य लेखकों के आलेख का विश्लेषण करेंगे।
किसान और मजदूरों से जुड़ी खबरों की तरह न ही वर्ष 1986 में और न ही वर्ष 2005 में विश्लेषण अवधि के दौरान दलितों और आदिवासियों से जुड़ी कोई खबर नवभारत टाइम्स की सुर्खी बनी। वर्ष 1986 में जहां दलित और आदिवासी से जुड़े पांच मुद्दे नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हुए, जिसमें ‘आदिवासी गदर-केंद्र के लिए आजादी का अर्थ’ शीर्षक से एक संपादकीय अग्रलेख भी शामिल है, वहीं वर्ष 2005 में भी दलित और आदिवासी से जुड़े पांच मुद्दे प्रकाशित हुए, इसमें भी एक दिन ‘उनके दलित और हमारे’ शीर्षक से संपादकीय अग्रलेख शामिल है। वर्ष 1986 में ‘बांग्लादेश चकमा आदिवासी वापस लेगा’ शीर्षक से एक खबर दो कॉलम में पहले पन्ने पर प्रकाशित हुई।
स्पष्टत: दलितों और आदिवासियों से जुड़ी हुई खबरों को 80 के दशक की तरह ही वर्तमान में नवभारत टाइम्स में कोई खास तवज्जो नहीं दी जाती है। भूमंडलीकरण के बाद नवभारत टाइम्स में दलितों और आदिवासियों से जुड़ी खबरों के ट्रीटमेंट में कोई अंतर नहीं दिखता है।
8 दिसंबर 1986 को नवभारत टाइम्स में प्रकाशित अपने पहले आलेख ‘बार-बार बिखरती हरिजन राजनीति’ में दलित नेताओं के बीच आपसी फूट और उनकी स्वार्थपरता की आलोचना करते हुए मोहनदास नैमिशराय ने लिखा है, “आज अपने अस्तित्व की तलाश में संपूर्ण दलित वर्ग भटकाव की स्थिति में है। वह हजार टुकड़ों में बंटा है। उसकी अस्मिता से स्वयं दलित नेताओं ने ही सौदेबाजी की है जो अलग-अलग राजनीतिक खेमों में बंटकर समाज की नहीं बल्कि अपनी सेवा कर रहे हैं।”
हालांकि वर्ष 1986 में नैमिशराय के अन्य लेख नवभारत टाइम्स में प्रकाशित नहीं हुए, लेकिन अगले कुछ वर्षों में नवभारत टाइम्स में प्रकाशित उनके लेखों मसलन, ‘दलित चक्रव्यूह में संत रविदास (25 फरवरी 1987), ‘दलित राजनीति और जनमोर्चा’ (21 नवंबर 1987), ‘दलित नेताओं की जातिगत राजनीति’ (4 फरवरी 1988), ‘दलित राजनीति में बहुजन समाज पार्टी के उभरते स्वर’ (5 दिसंबर 1989) आदि पर नजर डालने पर स्पष्ट है कि उनके आलेखों का स्वर राजनीतिक और दलितों की सामाजिक चेतना से संपन्न था। बाद के वर्षों में नैमिशराय ने जनसत्ता और राष्ट्रीय सहारा जैसे हिंदी के दैनिक अखबारों के लिए भी लिखा।
इसी तरह 23 सितंबर 1986 को नवभारत टाइम्स में ‘पेरियार की याद और आज के नये सवाल’ शीर्षक से मस्तराम कपूर के लेख प्रकाशित हुए। इस लेख में वे सर्वणों के द्वारा दलित हितों की उपेक्षा और दलितों के हाथों में नेतृत्व की वकालत करते हुए लिखते हैं, “इस व्यवस्था को बदलना अब निहायत जरूरी है। वर्तमान राजनैतिक दल यह काम नहीं कर सकते क्योंकि उन सबका नेतृत्व सवर्ण जातियों के पास है। जब तक कोई ऐसा दल नहीं बनता जिसका नेतृत्व दलित वर्गों के पास हो, और जब तक कम से कम पांच साल तक देश का प्रधानमंत्री हरिजन नहीं बनता, तब तक इस स्थिति में बदलाव लाना मुश्किल है।”
यहां पर 13 मई 1986 को नवभारत में मलूकचंद बैनीवाल की ‘शाहदरा की वाल्मीकियों से दूरी क्यों?’ शीर्षक से छपी एक चिट्ठी द्रष्टव्य है: “4 मई को दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में राष्ट्रीय वाल्मीकि सम्मेलन में सात करोड़ वाल्मीकि वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले 10 हजार वाल्मीकि प्रतिनिधि सम्मेलन के मुख्य अतिथि राजीव गांधी का सुबह से शाम तक इंतजार करते रहे, किंतु प्रधानमंत्री इस सम्मेलन में शरीक नहीं हुए। राजीव जी इस्लामी सम्मेलनों में शामिल हो रहे हैं किंतु वाल्मीकि सम्मेलनों में वे आना पसंद नहीं कर पा रहे हैं। आखिर क्यों?” जाहिर है कि 1990 के दशक में कांग्रेस से अलग होकर दलितों की अलग अस्मिता और राजनीतिक पहचान, साथ ही बहुजन समाज पार्टी के उभार के स्वर अखबारों में व्यक्त होने लगे थे।
हिंदी की सार्वजनिक दुनिया में 80 के दशक में जिस दलित विमर्श की शुरूआत हुई, उसे हिंदी अखबारों ने मोहनदास नैमिशराय जैसे दलित लेखकों के लेखों के माध्यम से आगे बढ़ाया। दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद वर्ष 2005 से नवभारत टाइम्स में कॉलम लिखते रहे हैं। इससे पहले हिंदी दैनिक राष्ट्रीय सहारा में उनके आलेख छपते रहे। उन्होंने अंग्रेजी दैनिक ‘पायोनियर’ में वर्ष 1999 में कॉलम लिखना शुरू किया, जो वर्ष 2009 तक जारी रहा। नैमिशराय और चंद्रभान प्रसाद के माध्यम से हिंदी अखबारों में पहली बार दलित विमर्श से जुड़ी बहस-मुबाहिसा को एक दिशा देने की कोशिश की गयी। यहां पर यह रेखांकित करना जरूरी है कि नैमिशराय और चंद्रभान प्रसाद से पहले दलित लेखकों में कृष्ण मुरारी जाटव, डीआर नीम के लेख नवभारत टाइम्स (दिल्ली) और हिंदुस्तान (दिल्ली) में छपा करते थे, लेकिन जैसा कि चंद्रभान प्रसाद (2009) कहते हैं, “भारतीय मीडिया ने दलित चिंतकों का ‘ब्रांड’ कभी नहीं बनाया, जैसा कि वे अन्य चिंतकों के साथ करते हैं।”[iv]
90 के दशक और वर्तमान में भी दलित विमर्श में एक तरह की निरंतरता है लेकिन उसके स्वरूप में अंतर दिखाई पड़ता है। मोहनदास नैमिशराय (2009) कहते हैं, “वर्तमान में दलित विमर्श के मुद्दे जनमानस पर अपना प्रभाव डालते हैं, जिसे अखबार छोड़ना नहीं चाहते लेकिन उनका उद्देश्य वैसा नहीं है जैसा कि 80 के दशक में था। इन बीस वर्षों में दलित विमर्श का समूल गायब हो चला है। दलित विमर्श में दलित इतिहास, अस्मिता और संस्कृति लिपटी हुई थी जो कि अब नहीं दिखती। वर्तमान में बाजार के दृष्टिकोण से सब तय हो रहा है, उनमें प्रोफेशनल दृष्टि ज्यादा है।”[v]
हम यहां पर वर्ष 2005 में नवभारत टाइम्स में चंद्रभान प्रसाद और अन्य लेखकों के संपादकीय पेज पर छपे लेखों के माध्यम से भूमंडलीकरण के बाद दलित विमर्श के बदलते स्वरूप की पड़ताल करने की कोशिश करेंगे। चंद्रभान प्रसाद अपने आलेखों में भूमंडलीकरण के दौर में पूंजीवाद और उपभोग को बढ़ावा देने और उसमें दलितों की हिस्सेदारी और देश में ‘दलित पूंजीपतियों’ के उभार की बार-बार वकालत करते हैं। साथ ही अमरीकी अश्वेतों से दलितों की तुलना कर भारतीय राज्य और समाज को अमरीकी राज्य और समाज से सीख लेकर अपने समाज में अमरीका की तरह ही ‘डाइवर्सिटी’ लाने की गुजारिश करते हैं। वे छह जनवरी 2005 को ‘दलित से बनता बाजार’ शीर्षक लेख में वर्षों से आर्थिक अभाव और गरीबी को झेल रहे दलितों के बारे में लिखते हैं, “…चूंकि दलित इंटरप्राइजिंग कंज्यूमर होते हैं, इसलिए वे इस जकड़न को तोड़ने में चिंगारी की भूमिका निभा सकते हैं। प्राइवेट सेक्टर में दलितों को रिजर्वेशन अगर मिले, तो इससे कंज्यूमर क्रांति होगी और जाहिर है, उसका फायदा प्राइवेट सेक्टर को ही सबसे ज्यादा मिलेगा।”
प्रसाद के इस लेख को इस परिप्रेक्ष्य में देखना प्रासंगिक होगा कि वर्ष 1991 में भारतीय राज्य ने जो उदारीकरण और निजीकरण की नीति अपनायी, उसके बाद सरकारी नौकरियों में कटौती हुई। दलितों के लिए संविधान के प्रावधान के तहत सरकारी नौकरियों में जो आरक्षण की व्यवस्था की गयी उसके बहुत मानी अब नहीं रह गये। पिछले दशक में सार्वजनिक उपक्रमों (पब्लिक इंटरप्राइजेज) में विनिवेश की प्रक्रिया और निजीकरण को काफी जोर-शोर से लागू किया गया है। इस बात को नोट करते हुए चंद्रभान प्रसाद निजी क्षेत्रों में भी दलितों के लिए आरक्षण देने पर जोर देते हैं। वे अपने लेख में भारतीय समाज को अमरीकी समाज से सीख लेने की बात करते हैं और अमरीकी समाज में व्याप्त ‘डाइवर्सिटी’ (विविधता) को अपनाने की वकालत करते हैं। लेकिन अमरीकी समाज में वर्षों तक अश्वेतों ने अपने अधिकारों और न्याय के लिए किस तरह लड़ाई लड़ी, इसकी चर्चा करने से वे बचते हैं। न ही उनके आलेखों में भूमंडलीकरण के बाद समाज में अप्रत्याशित रूप से बढ़ी असमानता, जिसकी सबसे ज्यादा मार गरीबों, दलितों, आदिवासियों पर पड़ी है, और समाज में फैली संवृद्धि में अंतर्निहित अंतर्विरोधों की ही चर्चा मिलती है।
‘दलित पूंजीवाद’ विमर्श को आगे बढ़ाते हुए 22 अप्रैल 2005, को ‘दलित पूंजीपति क्यों नहीं’ शीर्षक लेख में वे एक बार फिर अमरीकी अश्वेतों और भारतीय दलितों की तुलना करते हुए लिखते हैं, “दलितों में भी अरबपति, करोड़पति, उद्योगपति तथा व्यवसायी हों – यह समय की मांग है। यह भारत के हित में है। अश्वेतों की तरह ही भारत में दलित बुरजुआजी का उदय हो, इस मांग को सबसे पहले दलितों को ही उठाना होगा। पूंजी, उद्योग तथा व्यवसाय में भागीदारी के बिना राजसत्ता में भागीदारी हमेशा खोखली रहेगी।”
भूमंडलीकरण के बाद भारतीय समाज में तेजी से फैली उपभोग की संस्कृति में दलितों की भागीदारी और दलितों के पूंजीपति बनने की आकांक्षा की जिस अकुंठ भाव से चंद्रभान प्रसाद अपने आलेखों में वकालत करते हैं[vi], उसे हम भूमंडलीकरण के बाद दलित विमर्श में एक नये मोड़ के रूप में देख सकते हैं। चंद्रभान प्रसाद का सारा जोर बाजार के माध्यम से दलितों के लिए नयी अस्मिता के निर्माण पर है। अन्यत्र (अंग्रेजी दैनिक पायोनियर के कॉलम में) भी वे भूमंडलीकरण, निजीकरण के बाद दलितों के लिए कारोबार के क्षेत्र में उभरे नये अवसर के बारे में लिखते हैं, “क्यों कोई भूमंडलीय (ग्लोबल) को छोड़ स्थानीय (लोकल) को अपनाएगा? बंद और स्थानीय अर्थव्यवस्था को जो जितना पसंद करेगा उतना ही वह भारतीय पिछड़ेपन पर मुल्लमा चढ़ाने का काम करेगा।”
चंद्रभान प्रसाद (2009) कहते हैं कि भूमंडलीकरण के बाद दलित मुद्दों का भूमंडलीकरण (उदाहरण स्वरूप वर्ष 2001 में डरबन में हुए ‘नस्लभेद के खिलाफ विश्ल सम्मेलन’ में दलित मुद्दे को जोर-शोर से उठाया गया) हो गया है। अब दलितों की तुलना अमरीकी अश्वतों से की जाने लगी है। हालांकि दलित विचारकों, लेखकों जैसे कांचा इलैया, गेल ऑम्वेट, वीटी राजशेखर आदि के बीच भूमंडलीकरण से दलितों को होने वाले ‘नफा-नुकसान’ को लेकर बहस जारी है, लेकिन हाल के वर्षों में चंद्रभान प्रसाद के विचारों को दलित चिंतकों के बीच में तेजी से समर्थन मिला है और वे एक बड़े दलित चिंतक के रूप में उभरे हैं (मेनन और निगम: 2007)।
हम कह सकते हैं कि भूमंडलीकरण के बाद हिंदी मीडिया को चंद्रभान प्रसाद के रूप में एक ऐसा स्वर मिला है, जो खुलकर पूंजीवाद और उपभोग का समर्थन करता है। उदारीकरण और भूमंडलीकरण के बाद यह अखबार की बदली ‘विचारधारा’ और राज्य की विचारधारा से भी मेल खाता है। निस्संदेह भूमंडलीकरण के बाद चंद्रभान प्रसाद के एक दलित चिंतक के रूप में उभार में मीडिया (प्रिंट और खबरिया चैनल दोनों) की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
[i] बेनेडिक्ट एंडरसन (1991), “इमैजिंड कम्युनिटीज़”, लंदन: वर्सो
[ii] निवेदिता मेनन और आदित्य निगम (2008), “पावर एंड कंटेस्टेशन: इंडिया सिंस 1989”, दिल्ली: ओरियंट लांगमैन
[iii] मोहनदास नैमिशराय (2005), “दलित पत्रकारिता: सामाजिक व राजनीतिक चिंतन”, दिल्ली: श्री नटराज प्रकाशन
[iv] निजी इंटरव्यू, दिल्ली, 10 जनवरी 2009
[v] निजी इंटरव्यू, दिल्ली, 10 जनवरी 2009
[vi] चंद्रभान प्रसाद
(2005), “मुमकिन है दलित करोड़पति” नवभारत टाइम्स, दिल्ली, 27 सितंबर 2005;
“चेंज इन कैपिटलिज्म”, पायोनियर, दिल्ली, 11 जनवरी 09
अंतिका प्रकाशन से छपी अरविंद दास की पुस्तक हिंदी में समाचार का एक छोटा सा हिस्सा
(अरविंद दास।
देश के उभरते हुए सामाजिक चिंतक और यात्री। कई देशों की यात्राएं करने
वाले अरविंद ने जेएनयू से पत्रकारिता पर भूमंडलीकरण के असर पर पीएचडी की
है। IIMC से पत्रकारिता की पढ़ाई। लंदन-पेरिस घूमते रहते हैं। दिल्ली
केंद्रीय ठिकाना। भूमंडलीकरण के बाद की हिंदी पत्रकारिता पर हिंदी में
समाचार नाम की पुस्तक प्रकाशित। उनसे arvindkdas@gmail.com पर संपर्क किया
जा सकता है।)
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