Tuesday, April 2, 2013

मेरी एक दोस्‍त इन दिनों अपनी मां और सास, दोनों से त्रस्‍त है।


Manisha Pandey
मेरी एक दोस्‍त इन दिनों अपनी मां और सास, दोनों से त्रस्‍त है। जब देखो तब, फोन करके एक ही डिमांड। अब तो घर में कोई नया मेहमान आना चाहिए। शादी को चार हो गए। अब तो बच्‍चा बहुत जरूरी हो गया है। वो परेशान है। वो और उसका पति सौ बार बोल चुके कि बच्‍चा नहीं चाहिए, नहीं चाहिए, नहीं चाहिए। लेकिन घरवाले ये सुनकर ऐसे मुंह बनाते हैं, जैसे वो फारसी बोल रही हो। कुछ पल्‍ले नहीं पड़ा।
मां को आश्‍चर्य होता है। कोई औरत ऐसे बोलती है क्‍या कि उसे बच्‍चा नहीं चाहिए। ये कितनी अमानवीय बात है। उस औरत के दिल नहीं है क्‍या। क्‍या उसे बच्‍चों से नफरत है। क्‍या किसी बच्‍चे को देखकर उसके भीतर लाड़ नहीं उमड़ता। क्‍या नवजात बच्‍चे को अपनी छातियों से चिपकाना, उसे अपने सीने पर सुलाना उसे पसंद नहीं। क्‍या उसके हॉर्मोन्‍स उससे बार-बार एक बच्‍चे की डिमांड नहीं करते। सब होता है। जितना मां या सास सोच सकती हैं, उससे हजार गुना ज्‍यादा होता है। फिर भी वो अपने निर्णय पर अटल है। बच्‍चा नहीं होगा।
और सिर्फ वही नहीं, मेरी बहुत सारी सहेलियां जो अभी 30 से 35 के बीच की हैं, उन्‍होंने बहुत सोच-समझकर अपनी जिंदगी में ये फैसला लिया है कि वो एक नए इंसान को इस दुनिया में नहीं लाएंगी। उन लड़कियों की आसपास की दुनिया के सैकड़ों लोग ये सोचते और नजीते निकालते हैं कि ये लड़कियां क्रूर और अमानवीय है। उनका दिल नहीं है। वो स्‍वार्थी हैं। सिर्फ अपने लिए जीना चाहती हैं। इसीलिए बच्‍चा नहीं चाहतीं। लेकिन उनके दिल की बात कोई नहीं जानता। फरमान सुनाने और नतीजे निकालने वाले उन लड़कियों के दिलों का हाल नहीं जानते। उनकी मजबूरियां भी नहीं जानते।
वो बच्‍चा नहीं करना चाहतीं क्‍येांकि वो जानती है कि एक मर्दवादी हिंदुस्‍तानी समाज में बच्‍चे को पालने की सारी जिम्‍मेदारी उन्‍हें तकरीबन अकेले ही उठानी होगी। बच्‍चे के बीमार पड़ने पर सबसे ज्‍यादा छुटि़्टयां उन्‍हें ही लेनी होंगी। अपने कॅरियर के साथ सारे समझौते उन्‍हें ही करने होंगे। डबल मेहनत करनी पड़ेगी। कामों और जिम्‍मेदारियों का बोझ दसियों गुना बढ़ जाएगा। ऐसा नहीं है कि उनके पति कोई आजमगढ़ के मूंछों पर लगाने और खटिया पर बैठकर आदेश देने वाले सामंत हैं। पढ़े-लिखे, समझदार, प्रोफेशनल और सेंसिटिव आदमी हैं। थोड़ा हाथ बंटा भी दें तो भी मेजर काम तो औरत के हिस्‍से ही आएगा। बच्‍चा पालना कोई मजाक नहीं है। बहुत जिम्‍मेदारी का काम है। हर काम को बहुत सलीके और जिम्‍मेदारी से करने वाली वो लड़कियां बच्‍चे को पैदा करके उसे नौकरों और क्रैच के भरोसे पलने के लिए नहीं छोड़ सकतीं।
और शायद इसमें गलती किसी भी नहीं है। हमारा वक्‍त ही ऐसा है। 12-14 घंटे की नौकरी और काम के भयानक दबाव के बीच पति-पत्‍नी के पास एक-दूसरे के लिए वक्‍त नहीं है तो बच्‍चे के लिए कहां से निकलेगा। कोई करना भी चाहे तो उनके जीवन के हालात उन्‍हें एलाउ नहीं करते। उन लड़कियों ने बच्‍चे के ऊपर अपने कॅरियर को चुना है। अपने काम को, अपनी आजादी को। अपनी जिंदगी को, अपने स्‍पेस को। इस लड़ाई में कई फैसले खुद उनके ही खिलाफ हो गए हैं। लेकिन हर लड़ाई की कुछ कीमत तो चुकानी ही पड़ती है।

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