by Vimalendu Dwivedi (Notes) on Wednesday, January 23, 2013 at 3:20pm
दिल्ली
गैंगरेप के बाद पूरे देश में जिस तरह प्रतिरोध का स्वर मुखर हुआ, उससे यह
जिज्ञासा हुई कि क्या भारतीय समाज में कुछ बदलाव, प्रक्रिया में हैं ! यह
सामूहिक प्रतिरोध कितना वास्तविक है ? क्या ऐसा मान लिया जाये कि भारतीय
स्त्रियाँ अब ज्यादा जाग्रत, निबंध और ताकतवर हो गई हैं ?? क्या अब यह
सिद्ध हो गया है कि पुरुष समाज ज्यादा हिंसक हो गया है और अब उस पर भरोसा
नहीं किया जा सकता ??? नई शताब्दी के शुरुआती चरण में क्या
स्त्री-प्रतिरोध में कोई गुणात्मक परिवर्तन हुआ है ????
इन सवालों से उलझते हुए मुझे न जाने क्यों कुछ वर्षों पहले बनी एक फिल्म को दोबारा देखने का मन हुआ. केवल वयस्कों के लिए बनी इस फिल्म ने कुछ वर्ष पहले भारत के सभी वयस्कों, अवयस्कों और अतिवयस्कों को पहली बार एक अजीब सी नैतिक दुविधा में डाल दिया था. भारत में अनगिनत फिल्में वयस्कों के लिए बनती हैं, लेकिन ‘ बैन्डिट क्वीन’ पहली ऐसी वयस्क फिल्म है, जो पूरे वयस्क समाज के मानसिक स्तर को चुनौती देती है.
ज़ाहिर है कि यह उस तरह की वयस्क फिल्म नहीं है जिसे लोग चक्षुरति के जरिए कामेच्छा की पूर्ति के लिए देखते हैं. यह भारतीय समाज के सबसे वीभत्स यथार्थ की फिल्म है. अब तो ज़ाहिर ही हो चुका है कि भारतीय समाज के सबसे वीभत्स यथार्थ, यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते वाले देश की देवियों के साथ दैहिक और मानसिक बलात्कार में ही घटित होते हैं.
‘बैन्डिट क्वीन’ लैंगिक वयस्कों के लिए नहीं, बल्कि मानसिक वयस्कों के लिए बनाई गई थी. जिस तरह ‘ब्रह्मसूत्र’ के प्रथम सूत—‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा’ में कहा गया है कि ब्रह्म की जिज्ञासा तभी करनी चाहिए, जब मनुष्य में नित्य-अनित्य का भेद करने का विवेक आ जाये और जब वह अपने आपको चारित्रिक रूप से मजबूत कर ले. उसी तरह बैन्डिट क्वीन की जिज्ञासा करने से पहले सभी वयस्कों को तय करना होगा कि उनकी संवेदना का स्तर क्या है ? खुद को नंगा देखने की हिम्मत उनमें है या नहीं ? अभी उनमें कितनी शर्म बाकी है ? और यदि शर्म है, तो आक्रोश की एक ज़रा सी चिन्गारी भी किसी कोने में दबी है या नहीं ? यह फिल्म देखने से पहले वयस्कों को इस आत्म-परीक्षण से गुजरना पड़ेगा, क्योंकि इस फिल्म में बलात्कार, नग्नता और संभोग के कई निर्मम दृश्य हैं.
बैन्डिट क्वीन को ‘केवल वयस्कों के लिए’ घोषित करवाने वाले इन दृश्यों का विश्लेषण करना ज़रूरी है, क्योंकि यदि ये दृश्य न होते तो फूलन ‘फूलन देवी’ न बनकर ‘डाकू हसीना’ या ‘डाकू बिजली’ या इसी तरह कुछ और बन जाती. ‘फूलन देवी’ के निर्माण की सारी यांत्रिकी इन्हीं दृश्यों में छिपी हुई है.
वयस्क दृश्य-1 :
ग्यारह साल की फूलन, एक गाय और एक सायकिल की कीमत पर अपने से लगभग तीन गुना बड़े एक पुरुष के साथ ब्याह दी जाती है. रात उसका पति उसके पास आता है. उसका पूरा भूगोल टटोलता है और कहता कि “अभी कच्ची है, कब पकेगी रे तू ? जल्दी से हरी हो जा ! “ वह तब भी ग्यारह साल की फूलन के साथ संभोग करता है. इस वक्त कैमरा फूलन के भयभीत और दर्द से तड़पते चेहरे पर स्थिर है. वातावरण में हृदय को चीर देने वाली चीखें गूँजती हैं. नुसरत फतेह अली का आलाप और तबले की विलम्बित से द्रुत होती लय, एक ऐसे दुख का सृजन करते हैं, जो अपने साथ गुस्सा भी लाता है. इस वैधानिक बलात्कार के बाद फूलन पति का घर छोड़कर फिर पिता के पास आ जाती है. यह उस समय और समाज में अत्यंत साहस का काम था, जहाँ स्त्रियाँ पति द्वारा किए गये बलात्कार को रो-रो कर सहती हैं या फिर आत्महत्या(स्वीकार) कर लेती हैं. इस घटना से फूलन के ‘फूलनदेवी’ बनने के मनोविज्ञान की एक अस्पष्ट झलक मिलती है.
वयस्क दृश्य—2 :
पिता के गाँव में जवान फूलन के साथ गाँव के ठाकुर का लड़का बलात्कार करना चाहता है. असफल होने पर ठाकुरों के लड़के उसे चप्पलों से मारते हैं. गाँव की पंचायत उसे यह कहकर गाँव से बाहर निकाल देती है कि फूलन गाँव के लड़कों को बरबाद कर रही है. फूलन के रिश्ते का एक भाई उसे डाकुओं के एक गिरोह के पास ले जाता है. उस गिरोह में गूजर और मल्लाह जाति के लोग हैं. जातिगत आधार पर गूजर, मल्लाहों से श्रेष्ठ जाति मानी जाती है. इस गिरोह का एक सदस्य-विक्रम मल्लाह- फूलन से प्रेम करने लगता है. गिरोह का सरदार बाबू गूजर फूलन के साथ बलात्कार करता है. इस दृश्य में बाबू गूजर फूलन को अपने नीचे दबाये हुए है. उसकी कमर से नीचे का भाग बिल्कुल नग्न दिखाया गया है, और उसके शरीर में एक चिर-परिचित हरकत है. विक्रम मल्लाह यह बर्दाश्त नहीं कर पाता और अपने सरदार को गोली मार देता है. उसके बाद विक्रम मल्लाह मस्ताना के नाम से खुद गिरोह का सरदार बन जाता है.
यह घटना और यह दृश्य, इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि इसके बाद ही फूलन बेचारगी की स्थिति से अपने आपको मुक्त करती है. और अपनी रक्षा के लिए अपने आप में ताकत पैदा करने का संकल्प लेती है. यह बात अधिकांश भारतीय स्त्रियों के सामूहिक चरित्र के विपरीत थी. फूलन में यह ताकत पैदा करता है विक्रम का प्रेम और साथ. प्रेम हमेशा ही ताकत पैदा करता है. यह बात और है कि इस ताकत का उपयोग निर्माण और ध्वंस—दोनो के लिए हो सकता है. यह प्रेम की लौकिक सफलता या असफलता पर निर्भर करता है.
वयस्क दृश्य-3 :
यह दृश्य कानपुर शहर के किसी होटल के कमरे का है. जहाँ विक्रम मल्लाह अपनी टाँग का इलाज करा रहा है. यहाँ विक्रम और फूलन के विपरीत रति का प्रसंग है. फूलन विक्रम के ऊपर बैठी है. संभोग की चेष्टाएँ भी हैं लेकिन किसी के शरीर का कोई भी अंग नग्न नहीं है. पूरी फिल्म में एकमात्र यही दृश्य है, जो ज़रा सी लापरवाही पर कामोत्तेजक बन जाता क्योंकि यहाँ स्त्री-पुरुष में पारस्परिक सहमति थी. लेकिन निर्देशक ने बड़ी कुशलता से इस दृश्य को उत्तेजनहीन बनाए रखा. यह जरूरी भी था. वरना दर्शकों की गंभीरता अगर एक बार भंग होने पाती तो फिर शायद आगे की पूरी फिल्म में संभल पाना मुश्किल होता. इस दृश्य में फूलन की दृढ़ता और अपनी शर्तों पर जीने की पड़ चुकी आदत का भी पता हमें मिलता है. जब विक्रम फूलन को नंगी देखने की इच्छा करता है तो वह उसे लताड़ती है, और हल्की सी जबरदस्ती करने पर उसे चाटा भी मारती है.
वयस्क दृश्य-4 :
विक्रम मल्लाह को मारने के बाद श्रीराम ठाकुर फूलन को मारता है और अपने बीस साथियों के साथ तीन दिन तक लगातार फूलन के साथ सब बलात्कार करते हैं. यह दृश्य इतना वीभत्स और अमानवीय है कि बलात्कार-दृश्यों के प्रेमी दर्शकों तक ने भी घृणा से बलात्कारियों पर थूका. इस दृश्य में फूलन घसीटे जाने से लहूलुहान है. बलात्कार के समय उसे मारा जाता है और वह उल्टियाँ कर रही है. इस दृश्य में भी कोई निर्वस्त्र नहीं है. यहाँ भी चीखें हैं. नुसरत फतेह अली का पार्श्व-संगीत है. यह शायद किसी भी फिल्म का सबसे लंबा बलात्कार दृश्य है. बलात्कार के बाद फूलन को सभी गाँव वालों के सामने निर्वस्त्र किया गया और उसे कुएँ से पानी लाने को कहा गया. यह भारतीय समाज का वह नंगा यथार्थ था जो सदियों से किसी बहमई, किसी घूरपुर, किसी फतेहपुर, किसी भिण्ड या दिल्ली में घटित होता रहा है.
यह दृश्य पूरे भारतीय पुरुष समाज को—जो अब तक यह सब पढ़-सुन कर मुह चुराता रहा है—उसी के पैसों से अपने पास बुलाकर नंगा कर देता है. इस दृश्य में फूलन नंगी नहीं होती, इसमें नंगा होता है सामने बैठा दर्शक. और शायद यही वजह है कि जो दर्शक स्त्री के नितम्बों और स्तनों की एक झलक से ही उत्तेजित हो जाता है, वही एक स्त्री को पूरा नग्न देख कर भी शर्म और गुस्से से काँप रहा था. भारतीय फिल्म इतिहास में शायद पहली बार किसी स्त्री को पूरा नग्न दिखाया गया था. यह इस फिल्म का सबसे महत्वपूर्ण दृश्य है. इसके बिना यह फिल्म बन ही नहीं सकती थी. इसके अलावा पूरी फिल्म में बहन और माँ से संबन्धों को लेकर बनाई गई गालियों का प्रयोग है, जो कहानी का भाषाई यथार्थ है.
ऊपर विश्लेषित दृश्य वे दृश्य हैं, जिनकी वजह से फिल्म को अनेक प्रतिबंधों और निर्माता-निर्देशक-लेखिका को अनेक संकटो का सामना करना पड़ा. जिनकी वजह से फिल्म को केवल वयस्कों के लिए घोषित करना पड़ा. इन दृश्यों में नग्नता है, बलात्कार है, संभोग है, लेकिन अश्लीलता नहीं है. कोई कलात्मक आग्रह भी नहीं है. इस फिल्म में दृश्य और दर्शक के बीच में हवा तक की दखलंदाजी महसूस नहीं होती. न ही कैमरे का कोई खास एंगल है, न कोई मादक संगीत. यही वजह है कि फिल्म अश्लील नहीं होने पायी. पूरी फिल्म में नग्नता, क्रूरता के साथ आई है. यह नग्न क्रूरता भारतीय सामाजिक जीवन का बड़ा स्वाभाविक अंग है, जो अब उतना गोपन भी नहीं है.
आपको याद ही होगा कि पूरे देश में इस फिल्म को लेकर कितना हो-हल्ला हुआ था. इस पर अश्लीलता के आरोप लगे थे. कई महिला-संगठनों ने आरोप लगाया था कि इसमें स्त्री का अपमान है. बाद में खुद फूलनदेवी ने इस पर आरोप लगाया था कि जो घटनाएं इस फिल्म में दिखाई गई हैं वे सही नहीं हैं. फूलन ने हर्जाने में एक बड़ी रकम का दावा किया था. कुछ लोगों का कहना था कि यह फिल्म जातिगत नफरत पैदा करती है.
इस तरह के जो सारे आरोप बैन्डिट क्वीन पर आये थे, वे दोमुही सामंतवादी नैतिकता, अपरिपक्व महिला आंदोलन, अवसरवाद और अवसरवादी संवेदना के प्रतीक थे. जो लोग फिल्म को अश्लील कहते थे, वे डरे हुए लोग थे. ये सच्चाई का विरोध केवल इसलिए कर रहे थे क्योंकि ये खुद अनावृत हो गये थे. और यह वर्ग जिसे इन नैतिकतावादियों ने सदियों से अपनी जाँघों के बीच दबाये रखा, इसका इस तरह बन्दूक उठा लेना, इनकी सत्ता को चुनौती है. यही वजह है कि फिल्म का कई स्तरों पर विरोध किया गया. महिला संगठनों ने आरोप लगाया कि इन दृश्यों से स्त्री का अपमान होता है और इस पर रोक लगनी चाहिए.ये आरोप इतने अपरिपक्व थे कि इन महिला संगठनो की बुनियादी समझ पर ही प्रश्नचिन्ह लगता है. वैसे भी भारत में महिलामुक्ति संगठनों की छवि अतिभावुक-संयमहीन-गैरसमझदार की रही है. जिस देश में हर रोज एक स्त्री नंगी घुमाई जाती हो, रोज बलात्कार होते हों, और स्त्री-अपमान के अनगिनत तरीके ईज़ाद कर लिए गये हों, वहाँ यदि किसी फिल्म के दृश्य, दर्शकों में अपमान के खिलाफ आक्रोश पैदा करते हों तो यह किस नजरिए से स्त्री अपमान हुआ ?
सबसे दुखद, इस फिल्म पर फूलन की प्रतिक्रिया थी, जो भारतीय संसद की सम्मानीय सदस्या थीं. फूलन ने यह कहते हुए कि इस फिल्म की घटनाएं सच नहीं थीं, निर्माता पर मुकदमा चलाया. जिस फूलन की बदौलत, एक फिल्म के माध्यम से, पूरे भारतीय-स्त्री-समाज की दुर्दशा के खिलाफ पहली बार एक ईमानदार जनमत तैयार होने लगा था, उन्होने ज़रा से राजनीतिक और आर्थिक लाभ के लिए एक ऐतिहासिक परिवर्तन को होने से रोक दिया. यद्यपि यह फिल्म माला सेन के उपन्यास पर आधारित थी, लेकिन फूलन का किस्सा तो जन-जन की जुबान पर था. फूलन ने इन घटनाओं पर सवाल उठाकर निराश कर दिया था.
कुछ लोगों ने कहा कि फिल्म से जातिगत विद्वेष को बल मिलता है. जातिगत विद्वेष अब भारतीय समाज के लिए परदे की चीज़ नहीं रह गया है. देश का पूरा सामाजिक ढाँचा जातिगत आधारों पर टिका है. जातीय आधारों पर अत्याचार होते रहे हैं, और फूलन भी उसी अत्याचार की शिकार रही हैं. आँख मूदने से बिल्ली भाग नहीं जायेगी.
इन आरोपों के चलते बैन्डिट क्वीन सेंसर में फँसी. प्रतिबन्धित हुई और काट-छाँट के बाद दिखाई गई. विदेश में पहले ही रिलीज हुई और कई पुरस्कार भी पा गई थी. पर इसके लिए असल पुरस्कार तो भारत में इसका प्रदर्शन ही था.
अब थोड़ी बात फिल्म के निर्देशक की. शेखर कपूर की छवि इस फिल्म के पहले एक अभिजात्य कलावादी की थी. हालांकि उन्होने ज्यादा फिल्में नहीं बनाई थीं, लेकिन उनके अभिनय और निर्देशन, दोनों में ही एक अभिजात्य कलावादी शैली थी. जब शेखर कपूर ने बैन्डिट क्वीन बनाने की घोषणा की थी, तब यह उम्मीद तो सबको थी कि यह कुछ अलग तरह की फिल्म होगी. लेकिन यह शायद ही किसी ने सोचा होगा कि यह इतनी सच होगी. यह फिल्म, निर्मम भारतीय यथार्थ, शेखर कपूर की मेहनत और गहरी सिनेमाई समझ का नतीज़ा थी. यह शेखर कपूर की निर्देशकीय क्षमता का ही प्रमाण है कि इतने वयस्क दृश्यों के होते हुए भी पिल्म कहीं अश्लील नहीं हुई. इस फिलम की खास बात यह है कि इसमें ज़रूरत से ज्यादा कुछ नहीं है. लेकिन ज़रूरत से कम पर किसी तरह का समझौता भी शेखर कपूर ने नहीं किया. कई बार सेंसर ने जब फिल्म को प्रतिबंधित करना चाहा तो शेखर कपूर निराश भी हुए थे. अंततः कुछ मामूली काट-छाँट के बाद भारतीय दर्शकों के सामने ला ही दिया.
सभी अभिनेताओं ने बढ़िया काम किया. नुसरत का संगीत अद्भुत है. आलाप और वाद्ययंत्रों के कोरस का चमत्कार है. संगीत, हर दृश्य के साथ ऐसे जुड़ा है कि दर्द का ही एक सुर बन गया है. फिल्मांकन ज्यादातर चंबल की घाटियों मे हुआ है और फूलन की कहानी की तरह ही सजीव है.कुल मिलाकर बैन्डिट क्वीन एक जरूरी फिल्म इसलिए भी लगती है कि ये हमें सामाजिक बदलाव के सूत्रों को पकड़ने में मदद करती है. इसे श्लील-अश्लील के झगड़े में उलझाना, एक बड़ी सांस्कृतिक भूल होगी.
आप जानते ही हैं कि आगे चलकर फूलनदेवी कुख्यात डकैत हुईं. उन्होने अपना प्रतिशोध अकेले पूरा किया. जिन लोगों ने उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया था उन्हें फूलन ने एक कतार में खड़ा करके गोलियों से भून दिया था. ये घटनाएँ उ.प्र. के बहमई गाँव की थीं. उस वक्त इस तरह के दुष्कर्मों के खिलाफ कोई सामूहिक चेतना देश में नहीं थी. पीड़ितों को अपनी लड़ाई खुद लड़नी पड़ती थी. यह ज्यादा पुरानी बात नहीं है. एक बात और ध्यान देने की है, कि इस तरह के संगठित अपराध अपेक्षाकृत पिछड़े और असभ्य कहे जाने वाले समाजों में होते थे, जिनके मूल में जातीय वर्चस्व और सामंती प्रवृत्तियाँ थीं. अब ये अपराध बीहड़ों से निकल कर महानगरों के पॉश इलाकों में हो रहे हैं. सवाल ये भी मन में उठते हैं कि दिल्ली की वह लड़की अगर ज़िन्दा होती और उसे इतनी शारीरिक क्षति न पहुँचाई गई होती या फिर वह दिल्ली की घटना न होती तो, उस लड़की के प्रतिरोध का तरीका और सीमा क्या होती ? क्या तब भी सारा देश उसके साथ इसी तरह खड़ा होता ?? देश में रोज़ दुष्कर्म की सैकड़ों घटनाएँ हो रही हैं, उन पीड़ितों के साथ कोई क्यों नहीं है ?? इस प्रतिरोध में शामिल स्त्रियो का स्वर पुरुष-विरोधी क्यों है ?? क्या ये संवेदनाएँ छद्म संवेदनाएँ हैं ???
इन सवालों से उलझते हुए मुझे न जाने क्यों कुछ वर्षों पहले बनी एक फिल्म को दोबारा देखने का मन हुआ. केवल वयस्कों के लिए बनी इस फिल्म ने कुछ वर्ष पहले भारत के सभी वयस्कों, अवयस्कों और अतिवयस्कों को पहली बार एक अजीब सी नैतिक दुविधा में डाल दिया था. भारत में अनगिनत फिल्में वयस्कों के लिए बनती हैं, लेकिन ‘ बैन्डिट क्वीन’ पहली ऐसी वयस्क फिल्म है, जो पूरे वयस्क समाज के मानसिक स्तर को चुनौती देती है.
ज़ाहिर है कि यह उस तरह की वयस्क फिल्म नहीं है जिसे लोग चक्षुरति के जरिए कामेच्छा की पूर्ति के लिए देखते हैं. यह भारतीय समाज के सबसे वीभत्स यथार्थ की फिल्म है. अब तो ज़ाहिर ही हो चुका है कि भारतीय समाज के सबसे वीभत्स यथार्थ, यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते वाले देश की देवियों के साथ दैहिक और मानसिक बलात्कार में ही घटित होते हैं.
‘बैन्डिट क्वीन’ लैंगिक वयस्कों के लिए नहीं, बल्कि मानसिक वयस्कों के लिए बनाई गई थी. जिस तरह ‘ब्रह्मसूत्र’ के प्रथम सूत—‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा’ में कहा गया है कि ब्रह्म की जिज्ञासा तभी करनी चाहिए, जब मनुष्य में नित्य-अनित्य का भेद करने का विवेक आ जाये और जब वह अपने आपको चारित्रिक रूप से मजबूत कर ले. उसी तरह बैन्डिट क्वीन की जिज्ञासा करने से पहले सभी वयस्कों को तय करना होगा कि उनकी संवेदना का स्तर क्या है ? खुद को नंगा देखने की हिम्मत उनमें है या नहीं ? अभी उनमें कितनी शर्म बाकी है ? और यदि शर्म है, तो आक्रोश की एक ज़रा सी चिन्गारी भी किसी कोने में दबी है या नहीं ? यह फिल्म देखने से पहले वयस्कों को इस आत्म-परीक्षण से गुजरना पड़ेगा, क्योंकि इस फिल्म में बलात्कार, नग्नता और संभोग के कई निर्मम दृश्य हैं.
बैन्डिट क्वीन को ‘केवल वयस्कों के लिए’ घोषित करवाने वाले इन दृश्यों का विश्लेषण करना ज़रूरी है, क्योंकि यदि ये दृश्य न होते तो फूलन ‘फूलन देवी’ न बनकर ‘डाकू हसीना’ या ‘डाकू बिजली’ या इसी तरह कुछ और बन जाती. ‘फूलन देवी’ के निर्माण की सारी यांत्रिकी इन्हीं दृश्यों में छिपी हुई है.
वयस्क दृश्य-1 :
ग्यारह साल की फूलन, एक गाय और एक सायकिल की कीमत पर अपने से लगभग तीन गुना बड़े एक पुरुष के साथ ब्याह दी जाती है. रात उसका पति उसके पास आता है. उसका पूरा भूगोल टटोलता है और कहता कि “अभी कच्ची है, कब पकेगी रे तू ? जल्दी से हरी हो जा ! “ वह तब भी ग्यारह साल की फूलन के साथ संभोग करता है. इस वक्त कैमरा फूलन के भयभीत और दर्द से तड़पते चेहरे पर स्थिर है. वातावरण में हृदय को चीर देने वाली चीखें गूँजती हैं. नुसरत फतेह अली का आलाप और तबले की विलम्बित से द्रुत होती लय, एक ऐसे दुख का सृजन करते हैं, जो अपने साथ गुस्सा भी लाता है. इस वैधानिक बलात्कार के बाद फूलन पति का घर छोड़कर फिर पिता के पास आ जाती है. यह उस समय और समाज में अत्यंत साहस का काम था, जहाँ स्त्रियाँ पति द्वारा किए गये बलात्कार को रो-रो कर सहती हैं या फिर आत्महत्या(स्वीकार) कर लेती हैं. इस घटना से फूलन के ‘फूलनदेवी’ बनने के मनोविज्ञान की एक अस्पष्ट झलक मिलती है.
वयस्क दृश्य—2 :
पिता के गाँव में जवान फूलन के साथ गाँव के ठाकुर का लड़का बलात्कार करना चाहता है. असफल होने पर ठाकुरों के लड़के उसे चप्पलों से मारते हैं. गाँव की पंचायत उसे यह कहकर गाँव से बाहर निकाल देती है कि फूलन गाँव के लड़कों को बरबाद कर रही है. फूलन के रिश्ते का एक भाई उसे डाकुओं के एक गिरोह के पास ले जाता है. उस गिरोह में गूजर और मल्लाह जाति के लोग हैं. जातिगत आधार पर गूजर, मल्लाहों से श्रेष्ठ जाति मानी जाती है. इस गिरोह का एक सदस्य-विक्रम मल्लाह- फूलन से प्रेम करने लगता है. गिरोह का सरदार बाबू गूजर फूलन के साथ बलात्कार करता है. इस दृश्य में बाबू गूजर फूलन को अपने नीचे दबाये हुए है. उसकी कमर से नीचे का भाग बिल्कुल नग्न दिखाया गया है, और उसके शरीर में एक चिर-परिचित हरकत है. विक्रम मल्लाह यह बर्दाश्त नहीं कर पाता और अपने सरदार को गोली मार देता है. उसके बाद विक्रम मल्लाह मस्ताना के नाम से खुद गिरोह का सरदार बन जाता है.
यह घटना और यह दृश्य, इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि इसके बाद ही फूलन बेचारगी की स्थिति से अपने आपको मुक्त करती है. और अपनी रक्षा के लिए अपने आप में ताकत पैदा करने का संकल्प लेती है. यह बात अधिकांश भारतीय स्त्रियों के सामूहिक चरित्र के विपरीत थी. फूलन में यह ताकत पैदा करता है विक्रम का प्रेम और साथ. प्रेम हमेशा ही ताकत पैदा करता है. यह बात और है कि इस ताकत का उपयोग निर्माण और ध्वंस—दोनो के लिए हो सकता है. यह प्रेम की लौकिक सफलता या असफलता पर निर्भर करता है.
वयस्क दृश्य-3 :
यह दृश्य कानपुर शहर के किसी होटल के कमरे का है. जहाँ विक्रम मल्लाह अपनी टाँग का इलाज करा रहा है. यहाँ विक्रम और फूलन के विपरीत रति का प्रसंग है. फूलन विक्रम के ऊपर बैठी है. संभोग की चेष्टाएँ भी हैं लेकिन किसी के शरीर का कोई भी अंग नग्न नहीं है. पूरी फिल्म में एकमात्र यही दृश्य है, जो ज़रा सी लापरवाही पर कामोत्तेजक बन जाता क्योंकि यहाँ स्त्री-पुरुष में पारस्परिक सहमति थी. लेकिन निर्देशक ने बड़ी कुशलता से इस दृश्य को उत्तेजनहीन बनाए रखा. यह जरूरी भी था. वरना दर्शकों की गंभीरता अगर एक बार भंग होने पाती तो फिर शायद आगे की पूरी फिल्म में संभल पाना मुश्किल होता. इस दृश्य में फूलन की दृढ़ता और अपनी शर्तों पर जीने की पड़ चुकी आदत का भी पता हमें मिलता है. जब विक्रम फूलन को नंगी देखने की इच्छा करता है तो वह उसे लताड़ती है, और हल्की सी जबरदस्ती करने पर उसे चाटा भी मारती है.
वयस्क दृश्य-4 :
विक्रम मल्लाह को मारने के बाद श्रीराम ठाकुर फूलन को मारता है और अपने बीस साथियों के साथ तीन दिन तक लगातार फूलन के साथ सब बलात्कार करते हैं. यह दृश्य इतना वीभत्स और अमानवीय है कि बलात्कार-दृश्यों के प्रेमी दर्शकों तक ने भी घृणा से बलात्कारियों पर थूका. इस दृश्य में फूलन घसीटे जाने से लहूलुहान है. बलात्कार के समय उसे मारा जाता है और वह उल्टियाँ कर रही है. इस दृश्य में भी कोई निर्वस्त्र नहीं है. यहाँ भी चीखें हैं. नुसरत फतेह अली का पार्श्व-संगीत है. यह शायद किसी भी फिल्म का सबसे लंबा बलात्कार दृश्य है. बलात्कार के बाद फूलन को सभी गाँव वालों के सामने निर्वस्त्र किया गया और उसे कुएँ से पानी लाने को कहा गया. यह भारतीय समाज का वह नंगा यथार्थ था जो सदियों से किसी बहमई, किसी घूरपुर, किसी फतेहपुर, किसी भिण्ड या दिल्ली में घटित होता रहा है.
यह दृश्य पूरे भारतीय पुरुष समाज को—जो अब तक यह सब पढ़-सुन कर मुह चुराता रहा है—उसी के पैसों से अपने पास बुलाकर नंगा कर देता है. इस दृश्य में फूलन नंगी नहीं होती, इसमें नंगा होता है सामने बैठा दर्शक. और शायद यही वजह है कि जो दर्शक स्त्री के नितम्बों और स्तनों की एक झलक से ही उत्तेजित हो जाता है, वही एक स्त्री को पूरा नग्न देख कर भी शर्म और गुस्से से काँप रहा था. भारतीय फिल्म इतिहास में शायद पहली बार किसी स्त्री को पूरा नग्न दिखाया गया था. यह इस फिल्म का सबसे महत्वपूर्ण दृश्य है. इसके बिना यह फिल्म बन ही नहीं सकती थी. इसके अलावा पूरी फिल्म में बहन और माँ से संबन्धों को लेकर बनाई गई गालियों का प्रयोग है, जो कहानी का भाषाई यथार्थ है.
ऊपर विश्लेषित दृश्य वे दृश्य हैं, जिनकी वजह से फिल्म को अनेक प्रतिबंधों और निर्माता-निर्देशक-लेखिका को अनेक संकटो का सामना करना पड़ा. जिनकी वजह से फिल्म को केवल वयस्कों के लिए घोषित करना पड़ा. इन दृश्यों में नग्नता है, बलात्कार है, संभोग है, लेकिन अश्लीलता नहीं है. कोई कलात्मक आग्रह भी नहीं है. इस फिल्म में दृश्य और दर्शक के बीच में हवा तक की दखलंदाजी महसूस नहीं होती. न ही कैमरे का कोई खास एंगल है, न कोई मादक संगीत. यही वजह है कि फिल्म अश्लील नहीं होने पायी. पूरी फिल्म में नग्नता, क्रूरता के साथ आई है. यह नग्न क्रूरता भारतीय सामाजिक जीवन का बड़ा स्वाभाविक अंग है, जो अब उतना गोपन भी नहीं है.
आपको याद ही होगा कि पूरे देश में इस फिल्म को लेकर कितना हो-हल्ला हुआ था. इस पर अश्लीलता के आरोप लगे थे. कई महिला-संगठनों ने आरोप लगाया था कि इसमें स्त्री का अपमान है. बाद में खुद फूलनदेवी ने इस पर आरोप लगाया था कि जो घटनाएं इस फिल्म में दिखाई गई हैं वे सही नहीं हैं. फूलन ने हर्जाने में एक बड़ी रकम का दावा किया था. कुछ लोगों का कहना था कि यह फिल्म जातिगत नफरत पैदा करती है.
इस तरह के जो सारे आरोप बैन्डिट क्वीन पर आये थे, वे दोमुही सामंतवादी नैतिकता, अपरिपक्व महिला आंदोलन, अवसरवाद और अवसरवादी संवेदना के प्रतीक थे. जो लोग फिल्म को अश्लील कहते थे, वे डरे हुए लोग थे. ये सच्चाई का विरोध केवल इसलिए कर रहे थे क्योंकि ये खुद अनावृत हो गये थे. और यह वर्ग जिसे इन नैतिकतावादियों ने सदियों से अपनी जाँघों के बीच दबाये रखा, इसका इस तरह बन्दूक उठा लेना, इनकी सत्ता को चुनौती है. यही वजह है कि फिल्म का कई स्तरों पर विरोध किया गया. महिला संगठनों ने आरोप लगाया कि इन दृश्यों से स्त्री का अपमान होता है और इस पर रोक लगनी चाहिए.ये आरोप इतने अपरिपक्व थे कि इन महिला संगठनो की बुनियादी समझ पर ही प्रश्नचिन्ह लगता है. वैसे भी भारत में महिलामुक्ति संगठनों की छवि अतिभावुक-संयमहीन-गैरसमझदार की रही है. जिस देश में हर रोज एक स्त्री नंगी घुमाई जाती हो, रोज बलात्कार होते हों, और स्त्री-अपमान के अनगिनत तरीके ईज़ाद कर लिए गये हों, वहाँ यदि किसी फिल्म के दृश्य, दर्शकों में अपमान के खिलाफ आक्रोश पैदा करते हों तो यह किस नजरिए से स्त्री अपमान हुआ ?
सबसे दुखद, इस फिल्म पर फूलन की प्रतिक्रिया थी, जो भारतीय संसद की सम्मानीय सदस्या थीं. फूलन ने यह कहते हुए कि इस फिल्म की घटनाएं सच नहीं थीं, निर्माता पर मुकदमा चलाया. जिस फूलन की बदौलत, एक फिल्म के माध्यम से, पूरे भारतीय-स्त्री-समाज की दुर्दशा के खिलाफ पहली बार एक ईमानदार जनमत तैयार होने लगा था, उन्होने ज़रा से राजनीतिक और आर्थिक लाभ के लिए एक ऐतिहासिक परिवर्तन को होने से रोक दिया. यद्यपि यह फिल्म माला सेन के उपन्यास पर आधारित थी, लेकिन फूलन का किस्सा तो जन-जन की जुबान पर था. फूलन ने इन घटनाओं पर सवाल उठाकर निराश कर दिया था.
कुछ लोगों ने कहा कि फिल्म से जातिगत विद्वेष को बल मिलता है. जातिगत विद्वेष अब भारतीय समाज के लिए परदे की चीज़ नहीं रह गया है. देश का पूरा सामाजिक ढाँचा जातिगत आधारों पर टिका है. जातीय आधारों पर अत्याचार होते रहे हैं, और फूलन भी उसी अत्याचार की शिकार रही हैं. आँख मूदने से बिल्ली भाग नहीं जायेगी.
इन आरोपों के चलते बैन्डिट क्वीन सेंसर में फँसी. प्रतिबन्धित हुई और काट-छाँट के बाद दिखाई गई. विदेश में पहले ही रिलीज हुई और कई पुरस्कार भी पा गई थी. पर इसके लिए असल पुरस्कार तो भारत में इसका प्रदर्शन ही था.
अब थोड़ी बात फिल्म के निर्देशक की. शेखर कपूर की छवि इस फिल्म के पहले एक अभिजात्य कलावादी की थी. हालांकि उन्होने ज्यादा फिल्में नहीं बनाई थीं, लेकिन उनके अभिनय और निर्देशन, दोनों में ही एक अभिजात्य कलावादी शैली थी. जब शेखर कपूर ने बैन्डिट क्वीन बनाने की घोषणा की थी, तब यह उम्मीद तो सबको थी कि यह कुछ अलग तरह की फिल्म होगी. लेकिन यह शायद ही किसी ने सोचा होगा कि यह इतनी सच होगी. यह फिल्म, निर्मम भारतीय यथार्थ, शेखर कपूर की मेहनत और गहरी सिनेमाई समझ का नतीज़ा थी. यह शेखर कपूर की निर्देशकीय क्षमता का ही प्रमाण है कि इतने वयस्क दृश्यों के होते हुए भी पिल्म कहीं अश्लील नहीं हुई. इस फिलम की खास बात यह है कि इसमें ज़रूरत से ज्यादा कुछ नहीं है. लेकिन ज़रूरत से कम पर किसी तरह का समझौता भी शेखर कपूर ने नहीं किया. कई बार सेंसर ने जब फिल्म को प्रतिबंधित करना चाहा तो शेखर कपूर निराश भी हुए थे. अंततः कुछ मामूली काट-छाँट के बाद भारतीय दर्शकों के सामने ला ही दिया.
सभी अभिनेताओं ने बढ़िया काम किया. नुसरत का संगीत अद्भुत है. आलाप और वाद्ययंत्रों के कोरस का चमत्कार है. संगीत, हर दृश्य के साथ ऐसे जुड़ा है कि दर्द का ही एक सुर बन गया है. फिल्मांकन ज्यादातर चंबल की घाटियों मे हुआ है और फूलन की कहानी की तरह ही सजीव है.कुल मिलाकर बैन्डिट क्वीन एक जरूरी फिल्म इसलिए भी लगती है कि ये हमें सामाजिक बदलाव के सूत्रों को पकड़ने में मदद करती है. इसे श्लील-अश्लील के झगड़े में उलझाना, एक बड़ी सांस्कृतिक भूल होगी.
आप जानते ही हैं कि आगे चलकर फूलनदेवी कुख्यात डकैत हुईं. उन्होने अपना प्रतिशोध अकेले पूरा किया. जिन लोगों ने उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया था उन्हें फूलन ने एक कतार में खड़ा करके गोलियों से भून दिया था. ये घटनाएँ उ.प्र. के बहमई गाँव की थीं. उस वक्त इस तरह के दुष्कर्मों के खिलाफ कोई सामूहिक चेतना देश में नहीं थी. पीड़ितों को अपनी लड़ाई खुद लड़नी पड़ती थी. यह ज्यादा पुरानी बात नहीं है. एक बात और ध्यान देने की है, कि इस तरह के संगठित अपराध अपेक्षाकृत पिछड़े और असभ्य कहे जाने वाले समाजों में होते थे, जिनके मूल में जातीय वर्चस्व और सामंती प्रवृत्तियाँ थीं. अब ये अपराध बीहड़ों से निकल कर महानगरों के पॉश इलाकों में हो रहे हैं. सवाल ये भी मन में उठते हैं कि दिल्ली की वह लड़की अगर ज़िन्दा होती और उसे इतनी शारीरिक क्षति न पहुँचाई गई होती या फिर वह दिल्ली की घटना न होती तो, उस लड़की के प्रतिरोध का तरीका और सीमा क्या होती ? क्या तब भी सारा देश उसके साथ इसी तरह खड़ा होता ?? देश में रोज़ दुष्कर्म की सैकड़ों घटनाएँ हो रही हैं, उन पीड़ितों के साथ कोई क्यों नहीं है ?? इस प्रतिरोध में शामिल स्त्रियो का स्वर पुरुष-विरोधी क्यों है ?? क्या ये संवेदनाएँ छद्म संवेदनाएँ हैं ???
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