Saturday, August 20, 2011

किसके लिए होंगे विदेशी शिक्षा संस्थान


Dillip Mandal
भारत में विदेशी शिक्षा संस्थानों के आने का रास्ता साफ होने वाला है। विदेशी शिक्षा संस्थान (प्रवेश और संचालन विनियमन) अधिनियम 2010 को लोकसभा में पेश किया जा चुका है और अब यह विधेयक मानव संसाधन विकास मंत्रालय की स्थायी संसदीय समिति के पास विचार के लिए भेजा गया है। संसदीय समिति की और से समाचार पत्रों में 16 जून को विज्ञापन देकर व्यक्तियों और संस्थाओं से यह कहा गया है कि वे 15 दिनों के अंदर इस विधेयक पर अपनी राय दे सकते हैं।

इस विधेयक में दो ऐसी बातें हैं, जिसपर गंभीरता से विचार किए जाने की जरूरत है। इस विधेयक में विदेशी शिक्षा संस्थानों पर आरक्षण लागू करने की शर्त नहीं लगाई गई है। यानी ये शिक्षा संस्थान दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और शारीरिक रूप से असमर्थ छात्रों को किसी भी तरह का आरक्षण देने को बाध्य नहीं होंगे। विधेयक की दूसरी बड़ी खामी यह है कि विदेशी संस्थान कितनी फीस लेंगे, इस बारे में उन पर कोई पाबंदी नहीं लगाई गई है। विदेशी शिक्षा संस्थानों पर फीस के मामले में है कि वे इसका जिक्र अपने प्रोस्पेक्टस यानी विवरणिका में देंगे और बताएंगे कि अगर छात्र ने बीच में पढ़ाई छोड़ दी तो फीस का कितना हिस्सा वापस होगा।

सबसे पहले अगर आरक्षण की बात करें तो इस कानून के पास होने के बाद विदेशी शिक्षा संस्थान देश में शिक्षा के एकमात्र ऐसे संस्थान होंगे तो आरक्षण के दायरे से बाहर होंगे। भारत में उच्च शिक्षा का हर संस्थान (अल्पसंख्यक संस्थानों को छोड़कर) आरक्षण के प्रावधानों को मानने के लिए बाध्य है। यह कोई सरकारी आदेश या अदालत का फैसला नहीं है। यह एक संवैधानिक व्यवस्था है। भारतीय लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था संसद ने संविधान में 93वां संशोधन करके यह व्यवस्था दी कि राज्य किसी भी शिक्षा संस्थान (चाहे सरकार उसे पैसे देती हो या नहीं) में दाखिले के लिए सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान कर सकती है। इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 15 (4) के बाद एक नया खंड 15 (5) जोड़ा गया। इस संशोधन से सिर्फ अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को बाहर रखा गया है।

इस संशोधन की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि 2005 में पी ए इनामदार और अन्य बनाम महाराष्ट्र सरकार और अन्य केस में सुप्रीम कोर्ट के 11 जजों की पीठ ने यह आदेश दिया था कि राज्य उन शिक्षा संस्थानों पर आरक्षण लागू नहीं सकता, जो सरकार से पैसे नहीं लेते। इस आदेश के दायरे में अल्पसंख्यक और अन्य सभी तरह के शिक्षा संस्थानों को रखा गया। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद से ज्यादातर गैर-सरकारी शिक्षा संस्थान आरक्षण के दायरे से बाहर हो गए थे, इस वजह से तत्कालीन सरकार को संविधान में संशोधन करना पड़ा। इस संवैधानिक संशोधन में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों यानी ओबीसी के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था करने का प्रावधान था।

इसी संविधान संशोधन के तहत केंद्र सरकार ने अपने शिक्षा संस्थानों में आरक्षण की नई व्यवस्था लागू की। केंद्रीय शिक्षा संस्थान (दाखिले में आरक्षण) कानून, 2006 के तहत केंद्र सरकार के उच्च शिक्षा संस्थानों में अनुसूचित जाति के लिए 15 फीसदी, अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5 फीसदी और पिछड़ी जातियों के लिए 27 फीसदी आरक्षण दिया जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस कानून को दी गई चुनौतियों को खारिज कर दिया है। यह बात महत्वपूर्ण है कि केंद्रीय शिक्षा संस्थान (दाखिले में आरक्षण) कानून, 2006 को लेकर देश की संसद में आम राय थी। देश की राय को जानने के लिए संसद से ज्यादा प्रामाणिक और विश्वसनीय संस्था और कोई नहीं है।

इस पृष्ठभूमि में देखें तो विदेशी शिक्षा संस्थानों को अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्गों को मिलने वाले आरक्षण के दायरे से बाहर रखना 93वें संविधान संशोधन का उल्लंघन है। संविधान में संशोधन किए बगैर किसी संविधान संशोधन को बदला नहीं जा सकता है। अगर वर्तमान सरकार चाहती है कि कुछ शिक्षा संस्थानों को आरक्षण के दायरे से बाहर रखा जाए तो इसके लिए संविधान संशोधन करना होगा। यह विषय भारत के संघीय ढांचे के लिहाज से भी काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि 93वें संविधान सशोधन के तहत राज्य सरकारों को यह अधिकार प्राप्त है कि वे सरकारी मदद न लेने वाले शिक्षा संस्थानों में भी आरक्षण लागू कर सकते हैं। विदेशी शिक्षा संस्थान( स्थापना और संचालन विनियमन) अधिनियम, 2010 की वजह से राज्य सरकारों का यह अधिकार खत्म हो जाएगा।

केंद्र सरकार का यह कदम भारत के संघीय ढांचे के विरुद्ध होगा। केंद्र सरकार एक सामान्य कानून लाकर राज्य सरकारों के अधिकारों को कम नहीं कर सकती है। केंद्र सरकार को या तो इस कानून में संशोधन करना चाहिए और इसमें अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान करना चाहिए या फिर यह कानून वापस लेना चाहिए।   

केंद्र सरकार का यह कानून अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़े वर्गों (अल्पसंख्यकों समेत) के हितों के विरुद्ध है। इस तरह देश में शिक्षा के कुछ ऐसे केंद्र बन जाएंगे, जो भारतीय संविधान में वर्णित विशेष अवसर के सिद्धांत की अवहेलना करेंगे, क्योंकि एक कानून उन्हें इसकी इजाजत देगा। साथ ही, विदेशी शिक्षा संस्थान (स्थापना और संचालन विनियमन) अधिनियम, 2010 में विदेशी शिक्षा संस्थानों की परिभाषा भी ऐसी बनाई गई है कि देश के कई शिक्षा संस्थान या उनके कुछ हिस्से विदेशी शिक्षा संस्थान कहलाने लगेंगे। इस अधिनियम के खंड (1) (1) (ई) में विदेशी संस्थानों की परिभाषा बताई गई है। इसके तहत जो विदेशी संस्थान भारतीय संस्थान के साथ मिलकर या साझीदारी से चलेंगे, वे भी विदेशी शिक्षा संस्थान माने जाएंगे।

विदेशी शिक्षा संस्थानों को मिलने वाली छूट (मिसाल के तौर पर आरक्षण लागू न होना) को देखते हुए कई भारतीय शिक्षा संस्थान विदेशी संस्थानों के साथ साझीदारी कर सकते हैं। सरकारी संस्थानों को भी ऐसा करने से रोका नहीं गया है। अधिनियम में इस बात की व्याख्या नहीं की गई है कि किस तरह के भारतीय संस्थान विदेशी संस्थानों के साथ तालमेल कर सकते हैं और किन संस्थानों पर इसके लिए रोक है। इस मामले को खुला रखने का मतलब है कि सरकारी संस्थान भी विदेशी संस्थानों के साथ तालमेल कर सकते हैं। इस तरह एक ऐसा सिलसिला शुरू हो सकता है जो भारत में शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण के संवैधानिक प्रावधान को खत्म कर देगा।

सरकार और खासकर मानव संसाधन विकास मंत्रालय की नीयत पर संदेह इसलिए भी होता है क्योंकि इसी दौरान कैबिनेट ने एक ऐसा कानून पारित किया है जिससे केंद्र सरकार के शिक्षा संस्थानों को ओबीसी आरक्षण लागू करने के लिए तीन साल की और मोहलत मिल जाएगी। उच्च शिक्षा में ओबीसी आरक्षण लागू करने के लिए केंद्र सरकार ने तीन साल की अधिकतम सीमा तय की थी, क्योंकि कुछ शिक्षा संस्थान एक साथ 27 फीसदी आरक्षण लागू करने के लिए तैयार नहीं थे। वर्तमान शैक्षिक सत्र में केंद्र सरकार के शिक्षा संस्थानों में 27 फीसदी आरक्षण पूरी तरह लागू हो जाना चाहिए था। लेकिन कुछ शिक्षा संस्थान इसमें टालमटोल कर रहे हैं। ऐसे शिक्षा संस्थानों के संचालकों पर केंद्रीय शिक्षा संस्थान (दाखिले में आरक्षण) कानून, 2006 के उल्लंघन के आरोप में कार्रवाई की जानी चाहिए। लेकिन ऐसा न करके उन्हें ओबीसी आरक्षण को तीन साल तक और लंबित करने का वैधानिक अधिकार दिया जा रहा है। समय सीमा में आरक्षण लागू न करने पर कार्रवाई न करने से सभी शिक्षा संस्थानों को गलत संदेश भी जाएगा। लेकिन सरकार को इसकी परवाह नहीं है। सरकार ने आरक्षण लागू न करने को दंडनीय क्यों नहीं बनाया है, यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए। संवैधानिक प्रावधानों का पालन न करने वालों पर कार्रवाई करने की कोई व्यवस्था होनी चाहिए।

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