Saturday, April 23, 2011

'हरिजन ' में छपे महात्मा गाँधी के लेख का पुन्य्मुदिक्रण (डॉ. आंबेडकर का अभ्यारोपण )



महात्मा गाँधी द्वारा जातपात का दोसनिवरण 'हरिजन ' में छपे उनके लेख का पुन्मुद्रिकर्ण  डॉ . आंबेडकर का अभ्यारोपण

१. पाठको को याद होगा की डॉ. अम्बेकर ने लाहोर के जातपात तोड़क मंडल के वार्षिक समेलन की अध्यक्षता विगत मई  माह में करने थी. लेकिन स्वागत सिमिति ने डॉ. अम्बेकर का भासन अस्वीकार होने पर समेलन का आयोजन ही स्थगित कर दिया था. अपनी पसंद के अथिति  का भासन अप्तिजंक पाए जाने पर उसे स्वागत सिमिति द्वारा अस्वीकार करना कहा तक नाय सांगत है. जब की उस भासन पर पर्सन उठाने के अवसर खुले थे. सिमिति जातपात और हिन्दू धर्म गंथो के बारे में डॉ. आंबेडकर के दिरिस्त्कों से परिचित थे. उन्हें पता था की डॉ. आंबेडकर खुले सब्दो में हिन्दू धर्म छोड़ने  का फ्हेसला दे चुके थे. डॉ. आंबेडकर से इस भासन को कम करने की उपेक्षा ही नहीं करनी चाहिए थी. समिति ने जनता को एक इसे व्यक्ति के विचार सुनने से वंचित किया है. जिसने अपने लिए समाज में एक आदित्य स्थान बना लिया है. चाहे वह भविष्य में कोई भी आवरण ओद ले. डॉ आंबेडकर अपने आपको भुलाने का अवसर नहीं देंगे.
        स्वागत सिमिति डॉ. आंबेडकर को पराजित नहीं कर पाई. उन्होंने एक भास्सन अपने खर्चे पर पर्काशित करके परूटर दे दिया है. उन्होंने पर्काशित भासन की कीमत आठ आना रखी . मेरा सुझाव है. की इसकी कीमत घटाकर दो आना नहीं तो कम से कम चार आना चार आना कर दी जाए
      कोई सुधारक इस भासन की उप्केसा नहीं कर सकता है. रुदिवादी लोग इसे पड़ कर लाभ्वंत होंगे. इसका तात्पर्य यह नहीं है की भासन पर अपती उठाने का अवसर खुला नहीं है. डॉ अम्बेकर हिन्दू धर्म के लिए एक चुनोती है.  एक हिन्दू के रूप में उनका पालन-पोसन हुआ. एक हिन्दू राजा द्वारा पदाए गए. लेकिन वह तथाकती सवर्णों से घ्रणा करते है. क्योंकि उन्होंने उनके साथ और उनके लोगो के साथ इतना दुर्व्यवहार किया है की डॉ. अम्बेडर ने उसी धर्म को छोड़ने का फेसला कर लिया है , जो सबकी सामूहिक धर्होहर है. उन्होंने अपने घर्णा को उस धर्म के मानने वालो के एक हिस्से के विरुद्ध मोड़ दिया है.
      लेकिन इस पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए . आखीर , किसी व्यवस्था या संस्था की परख उसके पर्तिनिधियो के व्यव्हार से की जा सकती है.इसके अतिरित डॉ. अम्बेकर ने पाया की स्वर्ण हिन्दुओ के बहुमत ने अपने शह -धर्मालंबियो के साथ उनको अछूत मानकर धर्म्सस्त्रिया आधार पर अमनिविया व्यव्हार किया है और जब उन्होंने खोज, की तो छुआछुत और उसके उप्लाक्सनो को मानने वालो के विरुद्ध बहुत अधिक परमान उन्हें मिले. भासन के लेखक ने अपने कथन के सम्रथन में अध्याए और सलोको के परमं देकर तीन आरोप लगाए है. ----- पहला, अमानिया व्यवहार करना, दूसरा, अत्याचार करनवालो से निर्लज से उसे सही बताया , और तीसरा , यह कहना की धर्म्सस्त्रो में इसे व्यव्हार को उचित माना गया है.
     कोई भी हिन्दू जो अपनी आस्था को जीवन से अधिक मानता है. वह दोसरोपन के महत्व को कम करके आंकलन नहीं कर सक्तः है. डॉ. अम्बेकर (इस अमानवीय  व्यवाहर से ) घर्णा करनेवाले अकेले व्यक्ति नहीं है.  लेकिन वह इसके सबसे अधिक परतिग्य पर्तिवादक है थथा इसका पर्तिपादन करनेवालों में सबसे योग्य व्यक्ति है. भगवान् का धन्यवाद है की अगली पंक्ति के नेता में वे सबसे अकेले है और तब भी वे थोड़े से अल्प्संक्यक लोगो का पर्तिनिधि करते है. लेकिन जो भी वे कहते है वह थोडा कम या जयादा जोर से दलित वर्ग के नेताओव  द्वारा दुलारा जाता है. उद्धरण के लिए रायबहादुर एम्. सी .राजा , तथा दीवान बहादुर श्रीनिवासन न केवल हिन्दू धरम छोड़ने के धमकी देते है. बलिक हरिजनों के बहुत बड़े वर्ग के सर्म्नाक पर्तिदान की सतिपुर्ती के लिए इसको उत्शाजंक पाते है.
हम यह नहीं कह सकते है यह तथ्य धयान देने योग्य नहीं है. क्योंकि कई नेता डॉ. अम्बेकर के कथन की अवहेलना कर हिन्दू  बने रहनेगे . सवर्णों की अपनी मान्यता तथा व्यव्हार को सही करना होगा. सवर्णों में जो विद्वान है तथा पर्तिभासली है. उन्हें धर्म्सस्त्रो की अधिकृत तथा सही व्याख्या करनी होगी. डॉ. अम्बेकर के अभियोग-पत्र ने जो पर्सन उठाए है , वे इस पारकर है.
  1.  धर्म्सस्त्र   क्या है. ?
  2.   क्या छपे हुए मूलपाठ को धर्म्सस्त्रो का अनभूत हिस्सा माना जाए , या इसके किसी हिस्से को अन्धिक्र्त रूप से अस्वीकृत माना जाए ?
  3. छुआछुत , जाती , पर्तिस्ता की समानता , रोटी -बेटी से सम्बन्ध के संबंद के सवाल पर धर्म्सस्त्र  के मान्य व् परिशोधित अंश का क्या उत्तर दिया जाए.
 (इन सब सवालों के डॉ. आंबेडकर ने अपने भासन में विशुद्ध विवेचन किया है. ) इन सवालो के उत्तर तथा डॉ. आंबेडकर के शोधपूर्ण भासन में निहित गलतियों पर मैं अपना व्यव्क्त्य अगले अंक में दूंगा ) हरिजन ,जुलाई ,1936
                                                                    २
'रामायण 'और 'महाभारत ' सहित वेद, उपनिषद ,समृतियो और पुराण हिन्दू धर्म्सस्त्र है. लेकिन यही अंतिम सूचि नहीं है. परतेक युग और पीढ़ी ने इस सूचि में कुछ न कुछ जोड़ा है. इससे निष्कर्ष निकलता है जो कुछ छपा हा या हाथ से लिखा गया है. वाही धर्म्सस्त्र नहीं है. उद्धरण के लिए . सम्र्तिया में बहुत कुछ है लेकिन उसे इस्वर की वाणी नहीं सवीकार नहीं किया जा सकता है. इस पारकर कई उद्धरण जो डॉ. अम्बेकर ने स्मर्तियो से दिए है. उन्हें अधिकृत नहीं माना जा सकता है. सही धर्म ग्रन्थ उन्हें ही कहा जा सकता है. जो सास्वत है तथा अत. कर्ण को छूते है. अथार्त उन लोगो के ह्रदय को आकर्षित करते है जिनके ज्ञान चस्कू खुले हो. उसे इस्वर की वाणी नहीं माना जा सकता है जो , तर्क की कसोटी पर खरे न उतरे . या जिसे अध्यात्मिक पर्योग में न लाया जा सके. और यदि आपके पास धर्म का परिशोदित सस्मरण है तो भी आपको उसकी टिका की अवयस्कता पड़ेगी. सबसे अच्छा टीकाकार कोण है ?अवश्यक रूप से विद्वान है हो सकता है. फिर भी विद्वता आवश्यक है. लेकिन धरम विधता पर नहीं चलता है. धरम साधू -संतो और उनके जीवन एवम कथन पर चलता है.  साधू -संतो के संचित अनुभव को लोग मानते है. व् युगों तक परेण पाते है. जब की धर्मग्रंथो के सबसे आछे विद्वान टीकाकारो को लोग भुला  देते है.
      जातपात  का धर्म से कोई मतलब नहीं है. जाति एक रीती -रिवाज है. जिसके उद्गम को मैं नहीं जनता और न ही अपनी आध्यात्मिकता शुबा की संतुस्ती के लिए जानना चाहता हूँ. मैं नहीं जनता की जाति आध्यात्मिक व् रास्ट्रीय विकास के लिए हानिकारक है. वर्ण और अस्राम व्यवस्था इसी संस्थाए है . जिनको जातपात से कुछ लेना-देना नहीं है.वर्ण -व्यस्था का नियम शिखता है की पेत्रिक धंधा अपनाकर हम अपनी रोजी-रोटी कमा सकते है. यह हमारे अधिकारों को ही नहीं, बलिक कर्तव्यों को भी परिबषित करता है. वर्ण -व्यस्था अव्य्श्य  ही व्यवस्ये के सन्दर्भ में बनी है. , जो केवल मानवता के लिए है और किसी अन्य के लिए नहीं . इसका अर्थ यह भी है की कोई भी व्यवसाय तथा स्तर में एक दम निचा है. न ही अत्यधिक उचा . सारे व्यवसाय अछे विधि-समत तथा स्तर एक सामान है. ब्रह्मण का अध्यात्मिक शिक्सक  का व्यवसाय तथा सफाई करने वाले  का व्यवसाय सामान है. , जो भगवान्  के सामने एके जेसे पुण्य के काम है. और उसके सामने एक समय में पूरा कर्म करने पर सामान वेतन का अधिकारी है. दोनों को जीवनयापन का अधिकार है, और कुछ नहीं आज भी गावो में ऐशी विधि -समत स्वस्थ परंपरा जारी है.  600 की आबादी वाले गाव में रहकर मैंने पाया की ब्रह्मण सहित विभिन व्यवसाय में रत लोगो में कोई असमानता नहीं है. उसके बदले बदले ब्रह्मण के पास जो भी अध्यात्मिक खजाना है , खुले हाथ से भीख देते है. उसके बदले ब्रह्मण के पास जो भी अध्यात्मिक खजाना है., वह उसे बटता है. धर्म्सस्त्र   क्या है.
वर्ण  व्यवस्था  के विकृत सवरूप की जाच कर्ण गलत और अनुचित होगा, जब उसके नियम का उल्हंगन होता है. किसी वर्ण में रहकर सरेस्त्ता  का दावा झुटा होंगा , और इस कानून को नकारात्मक माना जाएगा वर्ण -व्यस्था के सार में छुआछुत की मायान्यता निहित नहीं है. ?(हिन्दू धर्म का सार है की सत्य ही इस्वर तथा अहिंसा मानव परिवारों का कानून है.) मुझे पता है हिन्दू धरम की मेरी व्याख्य का डॉ. अम्बेकर के अलावा कई लोग पर्तिवाद करेंगे . इससे मेरे सिथिति पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा. इस व्याख्या के आधार पर मैं लगभग आधी सताबधि तक जिया हूँ. तथा मैंने भरषक इन्ही मन्य्तायोव को जीवन में उतारने का पर्यास किया है.
       मेरे विचार से डॉ. अम्बेकर ने अपने भासन में संधेह पूर्ण पर्मानिक  और मूल्य तथा गिरे हुए हिन्दुओ के सोचनिये मिथ्या निरुपम को , जो धरम के सही उद्धरण नहीं है. चुनकर गंभीर गलती की है. जिन मानको को डॉ. अम्बेकर ने अपनाया है. उससे तो परतेक विधमान धर्म संभवत : असफल हो जाएगा
     आपने योग्यता भासन में डॉ. ने अपने मुदे को अत्यधिक शिध कनरे की कोसिस की है क्या चेतन्य , ज्ञानदेव ,तुकाराम, रामकृष्ण परमहंस , राजा राममोहन राय, महारिशी देवेंदर नाथ टेगोर , विवेकनद व् अन्य विद्वान्यो द्वारा शिकाया धर्म पूरी तरह गुणरहित है. जेसा की डॉ. अम्बेकर ने अपने भासन में बताया है. ? कोई धर्म उसके सबसे ख़राब उद्धरण से नहीं. बलिक सबसे अच्छे परिणाम से परिणाम से परखा जाना चाइए? यदि हम सुधर न पाए तो केवल इस पारकर के मानक की अनकंसा ही की जा सकती है.
('हरिजन' 18 जुलाई 1936 )

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