http://www.bhaskar.com/article/NAT-365-days-125-exam-45-years-2047605.html?HT2
नई दिल्ली शिक्षा आजादी के बाद से शिक्षा में सुधार के लिए बनी 15 से ज्यादा कमीशन-कमेटियां। हजारों पेज की रिपोर्टे। हायर एजुकेशन की 16 नियामक संस्थाएं। सभी चाहते हैं कि सुधार हो। लेकिन कैसे? शिक्षा बनाम परीक्षा पर एक खोज-खबर।
राष्ट्रीय स्तर पर इंजीनियरिंग, मेडिकल और मैनेजमेंट की हर साल 125 प्रवेश परीक्षाएं। यानी हर तीसरे दिन एक परीक्षा। इनके अलावा प्रदेश स्तर पर भी परीक्षाएं। जितनी पढ़ाई उससे ज्यादा परीक्षाएं। हर साल बारहवीं करने वाले 20 लाख छात्रों के लिए एक अच्छी खबर- उन्हें परीक्षाओं की इस बाढ़ से मिल सकती है आजादी। बशर्ते प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह अपनी साइंटिफिक एडवाइजरी कौंसिल के प्रमुख सीएनआर राव की बात सुनें।प्रधानमंत्री को हाल ही में लिखे पत्र में राव ने सुझाव दिया है कि छात्रों को बार-बार की परीक्षाओं से निजात मिलनी चाहिए।
उनका कहना है कि हमें शिक्षा में लर्निग (सीखने) पर ज्यादा जोर देना चाहिए न कि परीक्षा पर। केंद्र ने इस दिशा में पहला कदम उठा भी लिया है। सीबीएसई ने दसवीं तक की परीक्षाएं ऐच्छिक कर दी हैं। लेकिन ऐसे छात्रों के लिए भविष्य में भारी मुश्किल खड़ी होने वाली है। अब उन्हें बारहवीं के बाद एकमुश्त प्रवेश परीक्षाओं की बाढ़ को झेलना होगा। शिक्षाविद् डॉ. श्यामा चोना कहती हैं कि सिर्फ स्कूलों में परीक्षाएं बंद करने जैसे छोटे-मोटे कदम नाकाफी हैं। पूरी शिक्षा व्यवस्था में बुनियादी बदलाव की जरूरत है।
दिल्ली विश्वविद्यालय जैसी संस्थाएं बदलाव तो ला रही हंै लेकिन एकदम उल्टा। 80 कॉलेजों के नेटवर्क वाली यह यूनिवर्सिटी सेमेस्टर प्रणाली लागू कर सालाना परीक्षा की जगह हर छह महीने में इम्तिहान लेगी।
दैनिक भास्कर ने देश की शीर्ष शिक्षा संस्थानों से जुड़े रहे शिक्षा विशेषज्ञों से
एक ही सवाल किया-हमारी शिक्षा व्यवस्था का मॉडल क्या है और उसे कैसा होना चाहिए? लेकिन किसी के पास इसका एक जवाब नहीं है। सबके अपने अलग आकलन हैं।
प्रो. यशपाल
पूर्व अध्यक्ष, विश्वविद्यालय अनुदान आयोगबंद करें संस्थान
सुधारों की रफ्तार बेहद धीमी है, बिगाड़ तेजी से हो रहे हैं। मैंने सिफारिश की कि विश्वविद्यालयों को आजादी मिलनी चाहिए। उन पर भरोसा करना चाहिए। पढ़ाने का काम उनका है। यूजीसी, एआईसीटीई और एमसीआई जैसे संस्थानों की कोई जरूरत नहीं है।
जे.एस. राजपूत
पूर्व निर्देशक, एनसीईआरटीसुर भी जुदा-जुदा
शिक्षा का विचित्र मॉडल है यहां। कंेद्र में कुछ कदम उठते हैं, राज्य अलग राग अलापते हैं। यही हाल स्कूली परीक्षाओं को लेकर है। दिल्ली में नगर निगम के 60 स्कूल टेंटों में चल रहे हैं, जबकि यहां 77 हजार करोड़ रुपए कॉमनवेल्थ गेम में खर्च हो गए।
विजय वर्मा
सलाहकार, आंबेडकर विवि, दिल्लीएक ही परीक्षा हो
प्रतिष्ठापूर्ण प्रवेश परीक्षाओं की बुनियाद : कम समय में ज्यादा सवालों के सही जवाब का टेस्ट। शिक्षा व्यवस्था परीक्षाओं के शिकंजे में है। एक ही परीक्षा होनी चाहिए, लेकिन सब पूरी तैयारी से शामिल हो सकें, इसकी सुविधाएं गांव-शहरों में बराबर होनी चाहिए।
प्रतिष्ठापूर्ण प्रवेश परीक्षाओं की बुनियाद : कम समय में ज्यादा सवालों के सही जवाब का टेस्ट। शिक्षा व्यवस्था परीक्षाओं के शिकंजे में है। एक ही परीक्षा होनी चाहिए, लेकिन सब पूरी तैयारी से शामिल हो सकें, इसकी सुविधाएं गांव-शहरों में बराबर होनी चाहिए।रिसर्च में क्यों जीरो
पूरा फोकस परीक्षाओं पर, नॉलेज क्रिएशन पर नहीं। यही वजह है कि उच्च शिक्षा में बेहतर गुणवत्ता के रिसर्चर सामने नहीं आ रहे। लाखों युवा उच्च शिक्षा में, लेकिन मौलिक चिंतन का अभाव। मौजूदा मॉडल बाजार के लिए सस्ता श्रम उपलब्ध कराने में योगदान दे रहा।
कितनी पढ़ाई, कितने इम्तिहान : तीन देशों पर एक नजर
भारत
शिक्षा- अंग्रेजी हुकूमत की अधकचरी व्यवस्था। नेताओं, नौकरशाहांे का हस्तक्षेप। मौलिक चिंतन, मूल्य नदारद। एकरूपता नहीं।
परीक्षा प्रणाली- सिर्फ अधिक अंकों पर आधारित। सोचने-समझने की सामथ्र्य शून्य। डिग्री पर जोर।
नतीजा- नौकरियों की अंधी दौड़। सस्ता श्रम मुहैया कराने का जरिया। रिसर्च में पीछे। समाज से सरोकार घटे।
अमेरिका
शिक्षा- प्रतिभा सम्मान। मौलिक विचारों का स्वागत। नॉलेज क्रिएशन पर फोकस। रिसर्च को प्राथमिकता। राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं।
परीक्षा प्रणाली- उच्च शिक्षा के लिए कॉमन टेस्ट। स्कूलों में सतत मूल्यांकन। अंतिम परीक्षा नहीं।
नतीजा- दुनिया भर में रिसर्च में अव्वल। हर विषय में हर साल अनगिनत उपलब्धियां।
ब्रिटेन
शिक्षा- टीचर-स्टुडेंट्स में आपसी संवाद की परंपरा। रचनात्मक गतिविधियों का मॉडल। हर विवि-कॉलेज का ट्रेनिंग सिस्टम मजबूत।
परीक्षा प्रणाली- कॉमन एडमीशन टेस्ट। 80 साल पहले अंक प्रणाली खत्म। सतत मूल्यांकन पद्धति।
नतीजा- दिलचस्पी के विषय में बढ़ने के अनगिनत अवसर। रिसर्च, नए विचार और नई अवधारणाएं।
45 साल में 3 बड़े कदम: पहुंचे कहीं नहीं
कोठारी आयोग, 1966
सिफारिशें - देश में समान स्कूल व्यवस्था और परीक्षा प्रणाली में बदलाव।
क्या हुआ- स्कूल व्यवस्था सरकारी और प्राइवेट सेक्टर में बंटी। सरकारी शिक्षा के सबसे बुरे हाल। परीक्षा प्रणाली लगातार जटिल हुई।
यशपाल कमेटी, 1993
सिफारिशें - बस्ते का बोझ हलका करो, स्कूलों में रचनात्मक और खुशगवार माहौल दो।
क्या हुआ- कपिल सिब्बल ने जून 2009 में कहा कि सौ दिनों में यशपाल कमेटी की सिफारिशें लागू करेंगे। रफ्तार बेहद धीमी।
राष्ट्रीय स्तर पर इंजीनियरिंग, मेडिकल और मैनेजमेंट की हर साल 125 प्रवेश परीक्षाएं। यानी हर तीसरे दिन एक परीक्षा। इनके अलावा प्रदेश स्तर पर भी परीक्षाएं। जितनी पढ़ाई उससे ज्यादा परीक्षाएं। हर साल बारहवीं करने वाले 20 लाख छात्रों के लिए एक अच्छी खबर- उन्हें परीक्षाओं की इस बाढ़ से मिल सकती है आजादी। बशर्ते प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह अपनी साइंटिफिक एडवाइजरी कौंसिल के प्रमुख सीएनआर राव की बात सुनें।प्रधानमंत्री को हाल ही में लिखे पत्र में राव ने सुझाव दिया है कि छात्रों को बार-बार की परीक्षाओं से निजात मिलनी चाहिए।
उनका कहना है कि हमें शिक्षा में लर्निग (सीखने) पर ज्यादा जोर देना चाहिए न कि परीक्षा पर। केंद्र ने इस दिशा में पहला कदम उठा भी लिया है। सीबीएसई ने दसवीं तक की परीक्षाएं ऐच्छिक कर दी हैं। लेकिन ऐसे छात्रों के लिए भविष्य में भारी मुश्किल खड़ी होने वाली है। अब उन्हें बारहवीं के बाद एकमुश्त प्रवेश परीक्षाओं की बाढ़ को झेलना होगा। शिक्षाविद् डॉ. श्यामा चोना कहती हैं कि सिर्फ स्कूलों में परीक्षाएं बंद करने जैसे छोटे-मोटे कदम नाकाफी हैं। पूरी शिक्षा व्यवस्था में बुनियादी बदलाव की जरूरत है।
दिल्ली विश्वविद्यालय जैसी संस्थाएं बदलाव तो ला रही हंै लेकिन एकदम उल्टा। 80 कॉलेजों के नेटवर्क वाली यह यूनिवर्सिटी सेमेस्टर प्रणाली लागू कर सालाना परीक्षा की जगह हर छह महीने में इम्तिहान लेगी।
दैनिक भास्कर ने देश की शीर्ष शिक्षा संस्थानों से जुड़े रहे शिक्षा विशेषज्ञों से
एक ही सवाल किया-हमारी शिक्षा व्यवस्था का मॉडल क्या है और उसे कैसा होना चाहिए? लेकिन किसी के पास इसका एक जवाब नहीं है। सबके अपने अलग आकलन हैं।
प्रो. यशपाल
पूर्व अध्यक्ष, विश्वविद्यालय अनुदान आयोगबंद करें संस्थान
सुधारों की रफ्तार बेहद धीमी है, बिगाड़ तेजी से हो रहे हैं। मैंने सिफारिश की कि विश्वविद्यालयों को आजादी मिलनी चाहिए। उन पर भरोसा करना चाहिए। पढ़ाने का काम उनका है। यूजीसी, एआईसीटीई और एमसीआई जैसे संस्थानों की कोई जरूरत नहीं है।
जे.एस. राजपूत
पूर्व निर्देशक, एनसीईआरटीसुर भी जुदा-जुदा
शिक्षा का विचित्र मॉडल है यहां। कंेद्र में कुछ कदम उठते हैं, राज्य अलग राग अलापते हैं। यही हाल स्कूली परीक्षाओं को लेकर है। दिल्ली में नगर निगम के 60 स्कूल टेंटों में चल रहे हैं, जबकि यहां 77 हजार करोड़ रुपए कॉमनवेल्थ गेम में खर्च हो गए।
विजय वर्मा
सलाहकार, आंबेडकर विवि, दिल्लीएक ही परीक्षा हो
प्रतिष्ठापूर्ण प्रवेश परीक्षाओं की बुनियाद : कम समय में ज्यादा सवालों के सही जवाब का टेस्ट। शिक्षा व्यवस्था परीक्षाओं के शिकंजे में है। एक ही परीक्षा होनी चाहिए, लेकिन सब पूरी तैयारी से शामिल हो सकें, इसकी सुविधाएं गांव-शहरों में बराबर होनी चाहिए।
प्रतिष्ठापूर्ण प्रवेश परीक्षाओं की बुनियाद : कम समय में ज्यादा सवालों के सही जवाब का टेस्ट। शिक्षा व्यवस्था परीक्षाओं के शिकंजे में है। एक ही परीक्षा होनी चाहिए, लेकिन सब पूरी तैयारी से शामिल हो सकें, इसकी सुविधाएं गांव-शहरों में बराबर होनी चाहिए।रिसर्च में क्यों जीरो
पूरा फोकस परीक्षाओं पर, नॉलेज क्रिएशन पर नहीं। यही वजह है कि उच्च शिक्षा में बेहतर गुणवत्ता के रिसर्चर सामने नहीं आ रहे। लाखों युवा उच्च शिक्षा में, लेकिन मौलिक चिंतन का अभाव। मौजूदा मॉडल बाजार के लिए सस्ता श्रम उपलब्ध कराने में योगदान दे रहा।
कितनी पढ़ाई, कितने इम्तिहान : तीन देशों पर एक नजर
भारत
शिक्षा- अंग्रेजी हुकूमत की अधकचरी व्यवस्था। नेताओं, नौकरशाहांे का हस्तक्षेप। मौलिक चिंतन, मूल्य नदारद। एकरूपता नहीं।
परीक्षा प्रणाली- सिर्फ अधिक अंकों पर आधारित। सोचने-समझने की सामथ्र्य शून्य। डिग्री पर जोर।
नतीजा- नौकरियों की अंधी दौड़। सस्ता श्रम मुहैया कराने का जरिया। रिसर्च में पीछे। समाज से सरोकार घटे।
अमेरिका
शिक्षा- प्रतिभा सम्मान। मौलिक विचारों का स्वागत। नॉलेज क्रिएशन पर फोकस। रिसर्च को प्राथमिकता। राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं।
परीक्षा प्रणाली- उच्च शिक्षा के लिए कॉमन टेस्ट। स्कूलों में सतत मूल्यांकन। अंतिम परीक्षा नहीं।
नतीजा- दुनिया भर में रिसर्च में अव्वल। हर विषय में हर साल अनगिनत उपलब्धियां।
ब्रिटेन
शिक्षा- टीचर-स्टुडेंट्स में आपसी संवाद की परंपरा। रचनात्मक गतिविधियों का मॉडल। हर विवि-कॉलेज का ट्रेनिंग सिस्टम मजबूत।
परीक्षा प्रणाली- कॉमन एडमीशन टेस्ट। 80 साल पहले अंक प्रणाली खत्म। सतत मूल्यांकन पद्धति।
नतीजा- दिलचस्पी के विषय में बढ़ने के अनगिनत अवसर। रिसर्च, नए विचार और नई अवधारणाएं।
45 साल में 3 बड़े कदम: पहुंचे कहीं नहीं
कोठारी आयोग, 1966
सिफारिशें - देश में समान स्कूल व्यवस्था और परीक्षा प्रणाली में बदलाव।
क्या हुआ- स्कूल व्यवस्था सरकारी और प्राइवेट सेक्टर में बंटी। सरकारी शिक्षा के सबसे बुरे हाल। परीक्षा प्रणाली लगातार जटिल हुई।
यशपाल कमेटी, 1993
सिफारिशें - बस्ते का बोझ हलका करो, स्कूलों में रचनात्मक और खुशगवार माहौल दो।
क्या हुआ- कपिल सिब्बल ने जून 2009 में कहा कि सौ दिनों में यशपाल कमेटी की सिफारिशें लागू करेंगे। रफ्तार बेहद धीमी।
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