Tuesday, November 25, 2014

मनरेगा से क्या है मोदी को दिक्कत?

तब केंद्र में यूपीए की पहली सरकार थी जब मनरेगा कानून बना था.
और 2009 के चुनाव में मनमोहन सिंह जब दोबारा चुनकर आए तो ये कहा गया कि कांग्रेस को मनरेगा का फायदा मिला है.
हालांकि 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की तरकश का ये तीर खाली गया लेकिन कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी अपने चुनाव प्रचार में इसकी बात करते रहे.
और अब ये बात चल रही है कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी कानून में बदलाव किया जाए और इसे लेकर सिविल सोसायटी में एक तरह की बेचैनी का माहौल है.

रितिका खेड़ा का विश्लेषण

राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी कानून 2005 के सितंबर महीने में लागू किया गया था.
इस कानून में प्रत्येक ग्रामीण परिवार के सभी वयस्कों को एक न्यूनतम मज़दूरी पर 100 दिनों का रोज़गार देने की बात की गई थी.
लोग काम मांग सकते हैं और कानून के तहत 15 दिनों में उन्हें रोज़गार दिया जाना है. अगर सरकार काम देने में नाकाम रहती है तो आवेदक बेरोज़गारी भत्ता पाने के हकदार होंगे.
हालांकि जागरूकता की कमी के कारण कानूनन रोज़गार मांगने के अधिकार का कम ही इस्तेमाल किया गया. 2006 के फरवरी में लागू होने के बाद से इस कानून के तहत पांच करोड़ लोगों को काम दिया गया है.
अलग-अलग विचारधारा से जुड़े लोगों ने मनरेगा का समर्थन किया है. यहां तक कि 'द इकॉनॉमिस्ट' ने भी मनरेगा जैसे हस्तक्षेप का समर्थन किया.

'कल्याणकारी' कार्यक्रम

गरीब देशों में सामाजिक सुरक्षा की जरूरत को सभी लोग समझते हैं लेकिन लोगों में इस बात को लेकर भी आम राय रही है कि इन देशों की स्थिति ऐसी नहीं है कि वे व्यापक तौर पर एक 'कल्याणकारी' कार्यक्रम चला सकें जैसा कि यूरोप में बेरोज़गारी भत्ता दिया जाता है.
मनरेगा जैसे कार्यक्रमों का सबसे बड़ा फायदा ये है कि जो गरीब नहीं हैं, वे खुद ब खुद इसके दायरे से बाहर हो जाते हैं. लेकिन सवाल उठता है कि क्यों?
काम से जुड़ी शर्तें और कम मज़दूरी की वजह से अपेक्षाकृत बेहतर परिस्थिति वाले मज़दूर जिनके पास और भी अच्छे अवसर हैं, वे मनरेगा के इतर विकल्प तलाश लेते हैं. इस तरह से लाभार्थियों को चुनने के तरीके के कारण कई अर्थशास्त्रियों ने मनरेगा की तारीफ की थी.

तथ्यों की नज़र से

खर्चः इस कार्यक्रम को चलाने में आने वाला खर्च हमेशा से चिंता का कारण रहा है.
2010-11 में मनरेगा का बजट अपने चरम पर था और यह 40,000 करोड़ रुपये से घटकर मौजूदा वित्तीय वर्ष में 33,000 करोड़ रुपए हो गया है.
यह देश के सकल घरेलू उत्पाद के 0.3 फीसदी के बराबर है. इसकी तुलना उद्योग जगत को दी जाने वाली कर छूट से की जा सकती है. यह जीडीपी के तकरीबन तीन फ़ीसदी के बराबर है.
केवल सोने और हीरे के कारोबार में लगी कंपनियों को मनरेगा पर आए खर्च के तकरीबन दोगुने 65,000 करोड़ रुपये के बराबर कर छूट दी गई.
वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय की वेबसाइट के मुताबिक इस उद्योग में 0.7 फीसदी कामगरों के लिए रोज़गार पैदा करना है. मनरेगा ने 25 फीसदी ग्रामीण परिवारों को रोज़गार दिया है.

कार्य संस्कृति

कई लोगों का मानना है कि मनरेगा की वजह से लोग आलसी हो गए हैं. जबकि हक़ीकत ये है कि मनरेगा के मजदूरों को नियमित तौर पर मजदूरी नहीं दी जाती है.
मजदूरी का आधार हाज़िरी बन जाना नहीं है बल्कि निर्धारित काम के पूरा होने पर उन्हें न्यूनतम वेतन मिलता है.
इसलिए अगर वे बैठ जाते हैं और उनकी उत्पादकता निर्धारित मानकों के अनुरूप नहीं होती तो उन्हें न्यूनतम मज़दूरी से भी कम पैसे मिलते हैं.

सरकार का प्रस्ताव?

मनरेगा को दौ सौ ज़िलों तक सीमित करनाः गिने चुने ज़िलों तक मनरेगा को सीमित करने का सरकारी प्रस्ताव समझदारी से परे है. पहली बात तो ये कि यह लोगों के अधिकारों में कटौती है.
वैसे कार्यक्रम जो लोगों को अधिकार देते हैं, उनकी मंशा लोगों को सुरक्षा देने की होती है लेकिन अगर ये अधिकार एकतरफ़ा तरीके से वापस लिए जाते हैं तो कानून का मकसद ही बेमानी हो जाएगा.
दूसरा ये कि अगर ऐसा हुआ तो ज़िलों और प्रखंडों के चयन में पक्षपात होना तय माना जाएगा. यहां मनरेगा की जरूरत को लेकर दुविधा की भी स्थिति है.
कुछ लोग कहते हैं कि बेहतर परिस्थितियों वाले इलाकों में मनरेगा की कोई मांग नहीं है. लेकिन ज़मीनी हक़ीकत कुछ और इशारा करती है, मनरेगा के तहत किए जाने वाले कामों की लंबी मांग सूची है.

रोज़गार की स्थिति

हालांकि एक तबका ऐसा भी है जिसे ये लगता है कि ठीक ठाक हालात वाले क्षेत्रों में भी मनरेगा के तहत ज़्यादा पैसा खर्च किया गया है.
आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु जैसे समृद्ध राज्यों ने उत्तर प्रदेश जैसे गरीब राज्य की तुलना में मनरेगा में अधिक खर्च किया है.
लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है कि यह आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु की बेहतर प्रशासनिक क्षमता को भी जतलाती है.
शायद कोई और तरीका होता जिससे यह अंदाज़ा लगाया जा सकता कि किसी राज्य के भीतर गरीब ज़िलों में रोज़गार की स्थिति अच्छी है.
एक सरकारी नोट में ये कहा गया कि मनरेगा का राजनीतिक इस्तेमाल किया गया है लेकिन एक दूसरी तस्वीर भी है जिस पर गौर किया जाना चाहिए.

परिसंपत्तियों का निर्माण

मनरेगा के तहत जिन तीन राज्यों में सबसे ज्यादा रोजगार के अवसर पैदा किए गए, वे गैरकांग्रेसी शासन वाले राज्य थे.
सरकार का दूसरा प्रस्ताव परिसंपत्तियों के निर्माण की ज़रूरत के मद्देनज़र किसी काम में श्रम के इतर होने वाले खर्चों को बढ़ाने का है.
इस प्रस्ताव से ये बात ज़ाहिर थी कि परिसंपत्तियों के निर्माण के लिहाज से इसे नाकाम मान लिया गया है.
ऐसा मानने वाले लोगों की कमी नहीं है लेकिन अभी तक इस पर जितने अध्ययन हुए हैं, उनसे इस मान्यता की पुष्टि नहीं होती है.

'शानदार उदाहरण'

इसमें कोई शक नहीं कि परिसंपत्तियों के निर्माण का कोई विस्तृत ब्यौरा नहीं रखा गया है लेकिन ऐसे अध्ययन हुए हैं जो मौजूदा परिस्थितियों में ही बेहतर संभावनाओं के बनने के संकेत देते हैं.
महाराष्ट्र में मनरेगा के तहत जिन 4100 जगहों पर काम किया गया, वहां के अध्ययन मे सुधा नारायण ने पाया, "60 फीसदी काम से कृषि क्षेत्र को मदद मिली है जबकि 75 फीसदी काम प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर कृषि से जुड़ा हुआ था."
वर्ल्ड बैंक ने 2009 में मनरेगा को 'विकास में एक बाधा' करार दिया था लेकिन 2014 में उसकी एक रिपोर्ट में इसे 'ग्रामीण विकास का एक शानदार उदाहरण' कहा.
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1 comment:


  1. बहुत खूब , शब्दों की जीवंत भावनाएं... कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |


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