इसमें कोई शक नहीं है कि देश में महाभ्रष्टाचार एवं महंगाई चरम सीमा पर है। मीडिया की सक्रियता एवं मुख्य रूप से सवर्ण मध्यमवर्ग में गुस्सा एवं निराशा ने अन्ना हजारे को इस मुकाम पर पहुंचा दिया है। इस टीम के प्रमुख नेता, जैसे - अन्ना हजारे, किरन बेदी, अरविंद किजरीवाल, प्रशांत भूषण, शांतिभूषण, स्वामी अग्निवेश, मनोज सिसोदिया, पी.वी. राजगोपाल सभी के सभी सवर्ण समाज से ही क्यों हैं। इस प्रश्न पर स्वाभाविक जवाब यह मिलेगा कि ये जाति में विश्वास नहीं करते हैं, तो क्या इसका मतलब भारत से जातिवाद समाप्त हो चुका है? भारत की सबसे बड़ी समस्या जाति ही है, जो भ्रष्टाचार से भी सैकड़ो गुना ज्यादा देश के लिए खतरनाक है। यह बार-बार कहा जा रहा है कि पूरा देश इनके साथ है। जब इस टीम में 85 प्रतिशत समाज के लोग शामिल नहीं हैं तो कैसे यह दावा किया जा रहा है कि पूरा देश इनके साथ है? मैं जानता हूं कि ज्यादातर सवर्ण लोग मुझसे सहमत नहीं होगें क्योंकि वे इस समय या तो भावना में बह रहे हैं अथवा वे सच्चाई को समझ नहीं पा रहे हैं। दूसरी तरफ की यह भी सच्चाई है कि दलित, पिछड़े एवं अल्पसंख्यक निराश और आशंकित हैं कि कहीं यह आंदोलन आरक्षण समाप्त करने के लिए तो नहीं चल रहा है?
डॉ0 अम्बेडकर ने 29 नवंबर, 1949 को संसद में कहा था कि अनशन और सत्याग्रह जनतंत्र के लिए घातक सिद्ध हो सकते हैं। जिस तरह से अन्ना हजारे अपनी बात मनवा रहे हैं, वह गैर संवैधानिक है। इससे विशेषरूप से दलित आशंकित हैं कि कहीं यह डॉ0 अम्बेडकर के संविधान को खत्म करने की साजिश तो नहीं है। संविधान में बहुत ही सावधानी एवं सतर्कता से विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका में संतुलन बनाया गया है। जरा सा भी विचलन अगर होता है तो वह जनतंत्र के लिए खतरनाक है। जनतंत्र में अविश्वास करने का मतलब है कि हम दूसरी शासन-व्यवस्था जैसे- राजतंत्र, अराजकता, तानाशाही की ओर अग्रसरित हो रहे हैं। यदि पूरा देश इनके साथ है तो इस तरह का शोर मचाने की जरूरत ही नहीं है। चुनाव आने दें, उसमें सीधे अन्ना की टीम या किसी भी पार्टी को समर्थन देकर बहुमत से लोकसभा में चुनकर आ जाएं और अपने जन लोकपाल बिल को पास करा लें। जन लोकपाल बिल के प्रणेता यह भी बताएं कि उन्होंने इसमें एन.जी.ओ., मीडिया, औद्योगिक घरानों एवं दलितों से संबंधित संवैधानिक मौलिक अधिकारों की अवहेलना के भ्रष्टाचार को क्यों नहीं शामिल किया? वर्तमान में औद्योगिक घराने कालेधन के सबसे बड़े स्रोत हैं और इन्हीं के काले धन से भ्रष्ट राजनीति फल-फूल रही है। इनका प्रभाव इतना बढ़ गया है कि ये सांसदों, मंत्रियों एवं उच्चअधिकारियों तक की परवाह नहीं करते।
लोकपाल क्या आसमान से उतरेंगे या बाहर से आयात किए जाएंगें, होगें तो इसी समाज से। इनकी ईमानदारी, पूर्वाग्रह, भेदभाव की जिम्मेदारी कौन लेगा? सुप्रीम कोर्ट से ये हटाए जा सकते हैं। सभी जानते हैं कि न्यायपालिका भी भ्रष्ट है और जनलोकपाल बिल के प्रणेता भी इस बात को कह चुके हैं तो ऐसे में सुप्रीम कोर्ट और लोकपाल की मिलीभगत होना बहुत स्वाभाविक है। इनका भ्रष्ट होना ज्यादा संभव है क्योंकि इनकी जवाबदेही जनता के प्रति नहीं होनी है। लोकसभा में 523 सांसद हैं और किसी भी बड़े फैसले को कराने में लगभग आधे सांसदों को मैनेज करने की आवश्यकता होती है, जो लगभग असंभव है चाहे वह सी.आई.ए. हो या पाकिस्तान की आई.एस.आई.। बहुत संभव है कि ये लोकपाल को धन, सुरा-सुंदरी से मैनेज करके देश के प्रधानमंत्री से लेकर किसी भी व्यक्ति या संस्था के खिलाफ जांच शुरू करवा दें, जिससे देश अराजकता की स्थिति में पहुंच सकता है। अन्ना हजारे को जमीनी समझ में कहीं न कहीं गलती हो रही है क्योंकि भ्रष्टाचार का सामाजिक स्वरूप ज्यादा है बजाय कि राजनैतिक। उदाहरणार्थ - पुलिस, पी.डब्ल्यू.डी., राजस्व विभाग आदि में काम करने वाले लोग सबसे अधिक भ्रष्ट माने जाते हैं और शिक्षक ईमानदार। यदि इन्हीं शिक्षकों को यहां से वहां भेज दिया जाए तो वे भी भ्रष्ट हो जाएंगें। जिसे भ्रष्टाचार करने का मौका नहीं मिलता वह ईमानदार की श्रेणी में आ जाता है। इसलिए जब तक इस देश में बौद्धिक भ्रष्टाचार नहीं मिटता तब तक आर्थिक भ्रष्टाचार नहीं समाप्त हो सकता। देश के दलित, पिछड़े एवं अल्पसंख्यक अब सवाल खड़ा करने लगे हैं कि अन्ना हजारे ने कभी इनके मुद्दों पर अनशन क्यों नहीं किया? विशेषरूप से दलित यह जानना चाह रहे हैं कि अन्ना हजारे का निजी क्षेत्र में आरक्षण पर क्या विचार है? वर्तमान व्यवस्था में कमिया जरूर हैं लेकिन जिस तरह की मांग अन्ना हजारे कर रहे हैं, वह हो जाता है तो देश और खतरनाक दिशा में चल पड़ेगा। कहावत है कि दो दुश्मन में चुनाव करना हो तो कम खतरनाक को चुनना चाहिए। अभी के हालात में हम छोटे दुश्मन का ही सामना कर रहे हैं।
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