Tuesday, October 23, 2012

मनुस्मृति : अपराध और दंड


स्वामी जी अपनी पुस्तक ‘‘सत्यार्थ प्रकाश’’ में मनुस्मृति के संदर्भ से लिखते हैं कि दंड का विधान ज्ञान और प्रतिष्ठा के आधार पर होना चाहिए। (6-27)
स्वामी जी द्वारा संदर्भित मनुस्मृति के दंड विधान पर एक दृष्टि डालिए-
कार्षापणं भवेद्दण्ड्यो त्रान्यः प्रकृतो जनः।
तत्र राजा भवेद्दण्ड्यः सहस्रमिति धारणा।।
(मनु0, 8-335)
भावार्थ - साधारण प्रजा को जिस अपराध के लिए एक पैसा दंड दिया जाता है, उसी अपराध में लिप्त होने पर राजा पर हजार पैसा दंड लगाया जाना चाहिए।
अष्टापद्यं तु शुद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्।
षौडशैस्तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत्क्षत्रियस्य च।।
(मनु0, 8-236)
भावार्थ- यदि चोरी शुद्र, वैश्य या क्षत्रिय करता है तो उन्हें पाप का क्रमशः आठ, सोलह और बत्तीस गुना भागीदार बनना पड़ता है।
ब्राह्मणस्य चतुःषष्टि पूर्णं वापि शतं भवेत्।
द्विगुणा च चतुःषष्टिस्तद्दोषगुण विद्धि सः।
(मनु0, 8-337)
भावार्थ - इसी प्रकार चूंकि ब्राह्मण को चोरी के गुण-दोष का सर्वाधिक ज्ञान होता है, अतः वह चोरी करता है तो उसे पाप का चैसठ गुना भागीदार बनना पड़ता है।
यहां स्वामी जी ने वर्ण को ज्ञान और प्रतिष्ठा का आधार माना है और ब्राह्मण वर्ण को ज्ञान और प्रतिष्ठा में अन्य वर्णों क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र से ऊंचा मानते हुए किसी अपराध में ब्राह्मण के लिए अधिक सजा का प्रावधान किया है। स्वामी दयानंद ने अपनी दंड
विधान की धारणा को मनुस्मृति के उक्त ‘लोकों से सत्य साबित करने का प्रयास अपनी पुस्तक ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में किया है। (6-27)
अगर उक्त ‘लोकों से स्वामी दयानंद की यह धारणा कि दंड का विधान ज्ञान और प्रतिष्ठा के आधार पर होना चाहिए, सत्य साबित हो भी जाता है तो अब मुनस्मृति के निम्न ‘लोक भी देखिए, उनसे क्या साबित हो रहा है?
उभावपि तु तावेव ब्राह्मण्या गुप्तया सह।
विलुप्तौ शुद्रवद्दण्ड्यौ दग्ध्व्यौ वा कटाग्निना।।
(मनु0, 8-376)
भावार्थ - यदि रक्षिण ब्राह्मणी से वैश्य या क्षत्रिय शारीरिक संबंध स्थापित करे तो उन्हें शुद्र के समान दंड देते हुए आग में जलाकर मार देना चाहिए।
सहस्रं ब्राह्मणो दण्ड्योगुप्तां विप्रां बलाद् व्रजन्।
शतानि पत्र्च दण्ड्यः स्यादिच्छन्त्या सह सड्.गतः।।
(मनु0, 8-377)
भावार्थ - रक्षित ब्राह्मणी से यदि ब्राह्मण बलात मैथुन करता है तो उस पर दो हजार पैसा दंड लगाना चाहिए। यदि ब्राह्मणी की सहमति से ऐसा करता है तो उसे पांच सौ पैसा दंड देना चाहिए।
मौण्ड्यं प्राणान्तिकोदण्डोब्राह्मणस्य विधीन्यते।
इतरेषां तु वर्णानां दण्डः प्राणान्तिको भवेत्।।
(मनु0, 8-378)
भावार्थ - ब्राह्मण के सिर मुंडवाने का अर्थ ही उसको मृत्युदंड देना है, जबकि अन्य वर्णवालों को मृत्युदंड मिलने पर उनका सचमुच वध किया जाना चाहिए।
न जातु ब्राह्मणं हन्यात्सर्वपापेष्वपि स्थितम्।
राष्ट्रादेनं बहिः कुर्यात्समग्रधनमक्षतम्।।
(मनु0, 8-379)
भावार्थ- भले ही ब्राह्मण ने अनेक महापाप किए हों, किंतु उसका वध करना निषिद्ध है। उसे देश निकाले की सजा दी जा सकती है, ऐसी स्थिति में उसका धन उसे दे देना उचित है।
न ब्राह्मणवधाद्भूयानधर्मा विद्यते भुवि।
तस्मादस्य वधं राजा मनसापि न चिन्तयेत्।।
(मनु0, 8-380)
भावार्थ- ब्राह्मण के वध से बढ़कर और कोई पाप नहीं। ब्राह्मण का वध करने की तो राजा को कल्पना भी नहीं करना चाहिए।
शतं ब्राह्मणमाक्रुश्य क्षत्रियो दण्डमर्हति।
वैश्योऽप्यर्धशतं द्वे वा शुद्रस्तुवधमर्हति।।
(मनु0, 8-266)
भावार्थ- ब्राह्मण को यदि क्षत्रिय, वैश्य या शुद्र द्वारा अपशब्द या कठोर वचन कहा जाए तो उन्हें क्रमशः सौ पैसा, डेड़ सौ पैसा तथा वध का दंड देना चाहिए।
पत्र्चाशद् ब्राह्मणो दण्डः क्षत्रियस्याभिशंसने।
वैश्ये स्यादर्धपत्र्चाशच्छूद्रे द्वादशको दम्ः।।
(मनु0, 8-267)
भावार्थ- यदि ब्राह्मण द्वारा क्षत्रिय, वैश्य या शुद्र को अपशब्द कहा जाए तो उसे क्रमशः पचास, पच्चीस और बारह पैसा आर्थिक दंड देना चाहिए।
एकाजातिद्र्विजातीस्तु वाचा दारूण या क्षिपन्।
जिह्नयाः प्राप्नुयाच्छेदं जघन्यप्रभवो हि सः।।
(मनु0, 8-269)
भावार्थ - शुद्र द्वारा द्विजातियों को अपशब्द कहा जाए तो उसकी जिह्ना काट लेनी चाहिए, ऐसे अधम के लिए यही दंड उचित है।
नामजातिग्रहं त्वेषामभिद्रोहेण कुर्वतः।
निक्षेप्योऽयोमयः ‘ांकुज्र्वलन्नास्ये दशांगुलः ।।
(मनु0, 8-270)
भावार्थ - यदि शुद्र प्रभाव के अहंकार में द्विजातियों के नाम व जाति का उपहास करता है तो आग में तप्त दस उंगली शलाका (लोहे की छड़) उसके मुंह में डाल देनी चाहिए।
धर्मोपदेशं दर्पेण विप्राणामस्य कुर्वतः।
तप्तमासेचयेत्तैलं वक्तृ श्रोत्रे च पार्थिवः ।।
(मनु0, 8-271)
भावार्थ- यादि शुद्र दर्प में आकर द्विजातियों को धर्मोपदेश देने की धृष्टता करे तो राजा उसके मुंह व कान में खौलता तेल डलवा दे मनुस्मृति के उक्त ‘लोकों में दंड विधान को बदल दिया गया है। स्वामी दयानंद ने जहां ब्राह्मण को किसी अपराध में अन्य वर्णों से अधिक दंड का अधिकारी माना है, वहीं उक्त ‘लोकों में ब्राह्मण के लिए अन्य वर्णों से कम दंड का प्रावधान किया गया है। जैसा कि उक्त ‘लोकों से स्पष्ट है कि अगर क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र व्यभिचार करें तो उनको जलाकर मार देना चाहिए, जबकि ब्राह्मण को मात्र सिर मुंडवाने की सजा देनी चाहिए। स्वामी दयानंद के मतानुसार तो ब्राह्मण को जलाकर मारने से भी कोई बड़ी सजा दी जानी चाहिए। मगर यहां ब्राह्मण को सिर मुंडाने जैसी नाममात्र की सजा रखी गई है। जहां ब्राह्मण को अपशब्द कहने पर शुद्र के मुक़ाबले वैश्य को और वैश्य के मुकाबले क्षत्रिय को अधिक दंड देना चाहिए था, वहीं ‘लोक (8-266) में उक्त प्रावधान को उलट दिया गया है, क्षत्रिय और वैश्य को आर्थिक दंड रखा गया है वहीं शुद्र के लिए मृत्यु दंड की बात कही गई है। ‘लोक (8-269, 270, 271) में शुद्र द्वारा द्विजातियों को मात्र अपशब्द कहने पर अमानवीय सजा का प्रावधान किया गया है। क्या सजा का यह प्रावधान बुद्धिसम्मत और न्यायसंगत है? जिस अपराध में ब्राह्मण को क्षत्रिय से अधिक सजा होनी चाहिए थी वहीं ‘लोक (8-267) में ब्राह्मण को अन्य वर्णों से कम सजा का प्रावधान किया गया है। अब कहां गया स्वामी जी का ज्ञान और प्रतिष्ठा पर आधारित दंड विधान? क्या स्वामी जी ने पूरी मनुस्मृति नहीं पढ़ी थी?
अब क्या स्वामी दयानंद अथवा मनुस्मृति द्वारा प्रतिपादित दंड विधान की धारणा न्यायसंगत और व्यावहारिक लगती है ? क्या कोई शासन व्यवस्था उक्त दंड विधान को मान्य करार दे सकती है? क्या उक्त विधान हास्यास्पद और अक्ल के ख़िलाफ़ नहीं है?

19 comments:

  1. विजयादशमी की शुभकामनाएं |
    सादर --

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    1.  "स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम " अर्थात् स्त्री और शूद्र ज्ञान प्राप्त न करें  सायद ब्राह्मणों को ज्ञात था कि ज्ञान ही जीवन की सबसे बड़ी शक्ति है । और ---जो व्यक्ति शक्ति सम्पन्न है , वह किसी की दासता स्वीकार नहीं करेगा ।

      मनु-स्मृति में वर्णित विधान शूद्रों के दमन हेतु निर्धारित किये गये थे ।
      :- धर्मोपदेश विप्राणाम् अस्य कुवर्त: ।
      तप्तम् आसेचयेत् तैलं वक्त्रे श्रोत्रे च पार्थिव:।।
        ------------------------------------ ---
        यदि शूद्र ब्राह्मणों का धर्म उपदेश श्रवण कर रहा हो अथवा किसी को धर्म उपदेश कर रहा हो तो गर्म (तप्त) तैल को राजा इसके कान और मुँह में डलबा दे
      ----------------------------------------------------------
      अर्थात् शूद्रों को केवल ब्राह्मण समुदाय का आदेश सुनकर उसे शिरोधार्य करने का कर्तव्य नियत था ,
      उन्हें धर्म संगत करने का भी अधिकार नहीं था ,
      यदि वे ऐसा कर भी लेते आत्म-कल्याण की भावना से तो,  वैदिक विधान पारित कर , शूद्र जन-जाति की
      ज्ञान प्राप्त करने की चेष्टा पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया गया.और इसका दण्ड भी बड़ा ही यातना-पूर्ण था ।
      उनके मुख और कानों में तप्त तैल डाल दिया जाता था --------------------------------------------------------------
        सभी वर्णों का अपराध कुछ आर्थिक दण्ड के रूप में निस्तारित हो जाता था , परन्तु शूद्रों के लिए केवल मृत्यु का ही विधान था ...
      ----------------------------------------------------
      देखें ---शतं ब्राह्मण माक्रश्य क्षत्रियो दण्डं अर्हति।
      वैश्योप्यर्ध शतं द्वेवा शूद्रस्तु वधम् अर्हसि ।।।
                                                  (मनु-स्मृति-- ८/२६७/)
      मनु-स्मृति में वर्णित है ,कि ब्राह्मण बुरे कर्म करे तब भी पूज्य है ।
      क्योंकि ये भू- मण्डल का परम देवता है ।
      देखें---
      राम चरित मानस के अरण्यकाण्ड मे तुलसी दास लिखते हैं ।
      " पूजयें विप्र सकल गुण हीना ।
      शूद्र ना पूजिये ज्ञान प्रवीणा ।।
      _________________________________
      अर्थात् ब्राह्मण व्यभिचारी होने पर भी पूज्य है ,
      परन्तु शूद्र विद्वान होने पर भी पूज्य नहीं है "
      -------------------------------------------
      मनु स्मृति में भी कुछ ऐसा ही लिखा है ।
      --------------------------------------------------
      एवं यद्यपि अनिष्टेषु वर्तन्ते सर्व कर्मसु ।
      सर्वथा ब्राह्मणा पूज्या: परमं दैवतं हितत् ।।
          --------------------------------                                मनु-स्मृति-९/३१९
      निश्चित रूप से तुलसी दास जी ने मनु-स्मृति का अनुशरण किया है ।
        मनु के नाम पर निर्मित मनु-स्मृति में

      ब्राह्मणों ने विधान पारित कर दिया :--- कि शूद्र  ब्राह्मण तथा अन्य क्षत्रिय वर्णों  का झूँठन ही खायें , तथा उनकी वमन (उल्टी)भी  चाटे ..
        देखें---
      __________________________________________
      उच्छिष्टं अन्नं दातव्यं जीर्णानि वसनानि च ।
      पुलकाश्चैव धान्यानां जीर्णाश्चैव परिच्छदा:।।
      ------------------------------------------------
      ---अर्थात् उस शूद्र या सेवक को उच्छिष्ट झूँठन
      बचा हुआ भोजन दें ।
      फटे पुराने कपड़े , तथा खराब अनाज दें...
      ----------------------------------------------------
       
         क्या खाद्य है ?
        क्या अखाद्य है ?    
      इसका निर्धारण भी तत्कालीन ब्राह्मण समाज के निहित स्वार्थ को ध्वनित करता है।
      यहाँ ब्राह्मण समाज की कुत्सित मानसिकता व कपट भावना मुखर हो गयी है ।
      ______________________________
      अर्थात् ब्राह्मण माँस भक्षण करे , तो भी यह धर्म युक्त है
      ब्राह्मण हिंसा (शर्मण) करे  , तब यह मेध है ।
      जैसा कि कहा
      मनु-स्मृति में-------
      "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति"
      मनु-स्मृति- में देखें--- ब्राह्मण को माँस खाने का
      विधान पारित हुआ है ।
      -----------------------------------------------------------
                    विधान.......
      --यज्ञार्थ ब्राह्मणैर्वध्या: प्रशस्ता मृगपक्षिण:
      प्रोक्षितं भक्षयन् मासं ब्राह्मणानां च काम्यया ।।
      -----------------------------------------------------------------
      अर्थात् - ब्राह्मण पशु ,पक्षीयों का  ,
      यज्ञ के लिए अत्यधिक वध करें ।
      तथा अपनी इच्छानुसार ब्राह्मण उनके मांस को धोकर खायें

      स्मृति ग्रंथों में कुरीतियों की भरमार है ये तथ्य समस्त हिंदुओ को समझना और मानना चाहिए। सत्यता का सरोकार धर्मांधता की उबड़ खाबड़ स्थान में नहीं, निष्पक्षता के समतल पृष्ठिभूमि पर ही हो सकती है।

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  2. सामान्य व्यक्तियों की बात छोड दीजिये, डॉ. अम्बेडकर जैसा व्यापक अध्येता भी मनु-विरोध के प्रवाह में इतना बहक गया है कि उन्हें प्रत्येक शूद्र-विरोध मनुविहित नजर आता हैं| शंकराचार्य द्वारा लिखित शूद्रविरोधी वचनों को भी उन्होंने मनुस्मृति-प्रोक्त कहकर मनु के खाते में जोड दिया हैं | साधारण लेखकों में मनु के नाम पर जो अराजकता पायी जाती हैं, उसका विवरण लम्बा है| ये सब बातें इंगित करती हैं कि मनुस्मृति को गम्भीरता से पढा नहीं जाता |
    मनु की वर्णव्यवस्था गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित और वेदमूलक-मनुस्मृति में वर्णित गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित वेदमूलक हैं|
    वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था में अन्तर और परस्परविरोध-मनु की वैदिक वर्णव्यवस्था गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित हैं,जन्म पर आधारित नहीं| यह समझ लेना आवश्यक है कि वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था परस्पर विरोधी व्यवस्थाएं हैं| एक की उपस्थिति में दूसरी नहीं टिक सकती| इनके अन्तर्निहित अर्थभेद को समझकर इनके मौलिक अन्तर को आसानी से समझा जा सकता हैं| वर्णव्यवस्था में वर्ण प्रमुख हैं और जातिव्यवस्था में जाति अर्थात् ‘जन्म’ प्रमुख हैं| जिन्होंने इनका समानार्थ में प्रयोग किया है उन्होंने स्वयं को और पाठकों को भ्रान्त कर दिया| ‘वर्ण’ शब्द ‘वृत्र्-वरणे’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है-‘जिसको वरण किया जाये’ वह समुदाय
    ‘वर्णः वृणोतेः’’ (२.१४) = वरण करने से ‘वर्ण’ कहलाता है| जबकि जाति का अर्थ है-जन्म |
    शूद्रों को वर्ण परिवर्तन के व्यावहारिक अवसर-जो लोग अपने आपको ‘शूद्र’ समझते हैं और अभी तक किसी कारण से स्वयं को ‘शूद्रकोटि’ में मानकर मानवीय अधिकारों से वंचित रखा हुआ है, मनु को धर्मगुरु माननेवाला और मनु के सिध्दान्तों तथा व्यवस्थाओं पर चलनेवाला ‘आर्यसमाज’ योग्यतानुसार किसी भी वर्ण में दीक्षित होने का उनका आव्हान करता है और उन्हें व्यावहारिक अवसर देता हैं|
    भारतीय लेखकों में मनु के विरोध की परम्परा के प्रमुख संवाहक और प्रेरणास्त्रोत डॉ. भीमराव अम्बेडकर थे
    यह भी उनके जीवन की वास्तविकता है कि डॉ.अम्बेडकर संस्कृत के ज्ञाता नहीं थे| जैसा कि उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है, उन्होंने मनुसम्बन्धी समस्त अध्ययन-विश्‍लेषण अंग्रेजी भाषा में लिखी आलोचनाओं के माध्यम से ग्रहण किया है, अतः वे मौलिक-प्रक्षिप्त आदि पहलुओं, श्‍लोकों के प्रसंगों आदि पर विचार नहीं कर सके| जो अंग्रेजी समालोचनाओं में पढा, वही धारणाएं बन गयीं| डॉ.अम्बेडकर के समय तक मनुस्मृति के प्रक्षेपों पर कोई शोधकार्य भी नहीं हुआ था, अतः उन्हें मौलिक और प्रक्षिप्त श्‍लोकों में भेद करने का कोई स्त्रोत नहीं मिला | यदि उक्त कारण न होते तो शायद वे मनु और मनुस्मृति का इतना अविचारित विरोध नहीं करते|

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    1. सहमत हैं हम आपसे, मनुस्मृति को अम्बेडकर ने देश के सामने गलत तरीके से पेश किया, अम्बेडकर अपनी जाति के लिए लड़ रहे थे, देशवासी देश के लिए लड़ रहे थे, अम्बेडकर ने मनुस्मृति को दलित विरोधी बताकर उसे जलाने लगे, अम्बेडकर1कब के संस्कृत के ज्ञाता थे जो मनुस्मृति के श्लोको का सही अर्थ समझ गए, अम्बेडकर ने अपनी जाति के लिए सवर्णो को टारगेट किया।

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    2. Jo sahi likha hai aap hi bata do

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    3. Bhai vo Teri tarh bev kuf nhi the

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    4. Shrikant bhai ek baar unki qualifications ke baare me hi pad le tujhe pta chal jayega

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    5. बेटा इन श्लोक को तुम अच्छे से पढ़ के अर्थ बता? तुम ज्यादा ज्ञानी बन रहा है:
      तनिक अपने विद्वानों को बुलाओ और इन श्लोकों और दोहे का सकारात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करें।
       "स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम " अर्थात् स्त्री और शूद्र ज्ञान प्राप्त न करें  सायद ब्राह्मणों को ज्ञात था कि ज्ञान ही जीवन की सबसे बड़ी शक्ति है । और ---जो व्यक्ति शक्ति सम्पन्न है , वह किसी की दासता स्वीकार नहीं करेगा ।

      मनु-स्मृति में वर्णित विधान शूद्रों के दमन हेतु निर्धारित किये गये थे ।
      :- धर्मोपदेश विप्राणाम् अस्य कुवर्त: ।
      तप्तम् आसेचयेत् तैलं वक्त्रे श्रोत्रे च पार्थिव:।।
        ------------------------------------ ---
        यदि शूद्र ब्राह्मणों का धर्म उपदेश श्रवण कर रहा हो अथवा किसी को धर्म उपदेश कर रहा हो तो गर्म (तप्त) तैल को राजा इसके कान और मुँह में डलबा दे
      ----------------------------------------------------------
      अर्थात् शूद्रों को केवल ब्राह्मण समुदाय का आदेश सुनकर उसे शिरोधार्य करने का कर्तव्य नियत था ,
      उन्हें धर्म संगत करने का भी अधिकार नहीं था ,
      यदि वे ऐसा कर भी लेते आत्म-कल्याण की भावना से तो,  वैदिक विधान पारित कर , शूद्र जन-जाति की
      ज्ञान प्राप्त करने की चेष्टा पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया गया.और इसका दण्ड भी बड़ा ही यातना-पूर्ण था ।
      उनके मुख और कानों में तप्त तैल डाल दिया जाता था --------------------------------------------------------------
        सभी वर्णों का अपराध कुछ आर्थिक दण्ड के रूप में निस्तारित हो जाता था , परन्तु शूद्रों के लिए केवल मृत्यु का ही विधान था ...
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      देखें ---शतं ब्राह्मण माक्रश्य क्षत्रियो दण्डं अर्हति।
      वैश्योप्यर्ध शतं द्वेवा शूद्रस्तु वधम् अर्हसि ।।।
                                                  (मनु-स्मृति-- ८/२६७/)
      मनु-स्मृति में वर्णित है ,कि ब्राह्मण बुरे कर्म करे तब भी पूज्य है ।
      क्योंकि ये भू- मण्डल का परम देवता है ।
      देखें---
      राम चरित मानस के अरण्यकाण्ड मे तुलसी दास लिखते हैं ।
      " पूजयें विप्र सकल गुण हीना ।
      शूद्र ना पूजिये ज्ञान प्रवीणा ।।
      _________________________________
      अर्थात् ब्राह्मण व्यभिचारी होने पर भी पूज्य है ,
      परन्तु शूद्र विद्वान होने पर भी पूज्य नहीं है "
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      मनु स्मृति में भी कुछ ऐसा ही लिखा है ।
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      एवं यद्यपि अनिष्टेषु वर्तन्ते सर्व कर्मसु ।
      सर्वथा ब्राह्मणा पूज्या: परमं दैवतं हितत् ।।
          --------------------------------                                मनु-स्मृति-९/३१९
      निश्चित रूप से तुलसी दास जी ने मनु-स्मृति का अनुशरण किया है ।
        मनु के नाम पर निर्मित मनु-स्मृति में

      ब्राह्मणों ने विधान पारित कर दिया :--- कि शूद्र  ब्राह्मण तथा अन्य क्षत्रिय वर्णों  का झूँठन ही खायें , तथा उनकी वमन (उल्टी)भी  चाटे ..
        देखें---
      __________________________________________
      उच्छिष्टं अन्नं दातव्यं जीर्णानि वसनानि च ।
      पुलकाश्चैव धान्यानां जीर्णाश्चैव परिच्छदा:।।
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      ---अर्थात् उस शूद्र या सेवक को उच्छिष्ट झूँठन
      बचा हुआ भोजन दें ।
      फटे पुराने कपड़े , तथा खराब अनाज दें...
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         क्या खाद्य है ?
        क्या अखाद्य है ?    
      इसका निर्धारण भी तत्कालीन ब्राह्मण समाज के निहित स्वार्थ को ध्वनित करता है।
      यहाँ ब्राह्मण समाज की कुत्सित मानसिकता व कपट भावना मुखर हो गयी है ।
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      अर्थात् ब्राह्मण माँस भक्षण करे , तो भी यह धर्म युक्त है
      ब्राह्मण हिंसा (शर्मण) करे  , तब यह मेध है ।
      जैसा कि कहा
      मनु-स्मृति में-------
      "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति"
      मनु-स्मृति- में देखें--- ब्राह्मण को माँस खाने का
      विधान पारित हुआ है ।
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                    विधान.......
      --यज्ञार्थ ब्राह्मणैर्वध्या: प्रशस्ता मृगपक्षिण:
      प्रोक्षितं भक्षयन् मासं ब्राह्मणानां च काम्यया ।।
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      अर्थात् - ब्राह्मण पशु ,पक्षीयों का  ,
      यज्ञ के लिए अत्यधिक वध करें ।
      तथा अपनी इच्छानुसार ब्राह्मण उनके मांस को धोकर खायें

      स्मृति ग्रंथों में कुरीतियों की भरमार है ये तथ्य समस्त हिंदुओ को समझना और मानना चाहिए। सत्यता का सरोकार धर्मांधता की उबड़ खाबड़ स्थान में नहीं, निष्पक्षता के समतल पृष्ठिभूमि पर ही हो सकती है।

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  3. यह भी उनके जीवन की वास्तविकता है कि डॉ.अम्बेडकर संस्कृत के ज्ञाता नहीं थे| जैसा कि उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है, उन्होंने मनुसम्बन्धी समस्त अध्ययन-विश्‍लेषण अंग्रेजी भाषा में लिखी आलोचनाओं के माध्यम से ग्रहण किया है, अतः वे मौलिक-प्रक्षिप्त आदि पहलुओं, श्‍लोकों के प्रसंगों आदि पर विचार नहीं कर सके| जो अंग्रेजी समालोचनाओं में पढा, वही धारणाएं बन गयीं| डॉ.अम्बेडकर के समय तक मनुस्मृति के प्रक्षेपों पर कोई शोधकार्य भी नहीं हुआ था, अतः उन्हें मौलिक और प्रक्षिप्त श्‍लोकों में भेद करने का कोई स्त्रोत नहीं मिला | यदि उक्त कारण न होते तो शायद वे मनु और मनुस्मृति का इतना अविचारित विरोध नहीं करते|
    एक बात मैं आप लोगों को बताना चाहता हूँ कि मनु ने जाति के विधान का निर्माण नहीं किया और न वह ऐसा कर सकता था| जातिप्रथा मनु से पूर्व विद्यमान थी|’’ (भारत में जातिप्रथा पृ० २९)
    मैं मानता हूँ कि स्वामी दयानन्द व कुछ अन्य लोगों ने वर्ण के वैदिक सिध्दान्त की जो व्याख्या की है, वह बुध्दिमत्तापूर्ण है और घृणास्पद नहीं है| मैं यह व्याख्या नहीं मानता कि जन्म किसी व्यक्ति का समाज में स्थान निश्‍चित करने का निर्धारक तत्व हो| वह केवल योग्यता को मान्यता देती है|’’ (जातिप्रथा उन्मूलन, पृ० ११९) ह्न ‘‘वेद में वर्ण की धारणा
    वेद में वर्ण की धारणा का सारांश यह है कि व्यक्ति वह पेशा अपनाए, जो उसकी स्वाभाविक योग्यता के लिए उपयुक्त हो|’’ (वही पृ० ११९)
    बौध्द बनने के बाद डॉ.अम्बेडकर ने भी बौध्द विचारों का प्रचार-प्रसार किया है| यदि उनका यह कार्य उचित है, तो मनु का भी उचित है| इतनी स्वीकारोक्तियॉं होने के उपरान्त भी, आश्‍चर्य है कि डॉ.अम्बेडकर मनु को स्थान-स्थान पर जातिवाद का जिम्मेदार ठहरा कर उनकी निन्दा करते हैं| परवर्ती सामाजिक व्यवस्थाओं को मनु पर थोंपकर उन्हें कटु वचन कहना कहॉं का न्याय हैं?
    संविधान में चवालीस वर्षों में अस्सी के लगभग संशोधन किये जा चुके हैं, जिनमें कुछ संविधान की मूल भावना के प्रतिकुल हैं, जैसे-अंग्रेजी की अवधि बढाना,मुसलमानों में गुजाराभत्ता की शर्त हटाना आदि, क्या इन परवर्ती संशोधनों का, और भावी संशोधनों का जिम्मेदार डॉ.अम्बेडकर को ठहराया जा सकता है? यदि नहीं, तो हजारों वर्ष परवर्ती विकृत व्यवस्थाओं के लिए मनु को जिम्मेदार कैसे ठहराया जा सकता हैं?
    वर्ण को जाति का जनक मानकर मनु को इस तरह दोषी ठहराया जा रहा हैं, जैसे मनु पहले ही जानते थे कि भविष्य में वर्ण से जाति का जन्म होगा, और इस आशा में वे जान बुझकर वर्ण का पोषण कर रहे थे| डॉ.अम्बेडकर ने वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था का पोषण किया है| क्या वे जानते थे कि इससे भविष्य में कौन सी व्यवस्था का जन्म होगा? बिल्कुल नहीं| इसी प्रकार मनु को भी नहीं पता था कि वर्णव्यवस्था का भविष्य में क्या रुप होगा|
    डॉ.अम्बेडकर वर्तमान जाति-पांति रहित संविधान के निर्माता एवं पोषक हैं| दुर्भाग्य से, सैकडों वर्षों के बाद यदि यह जातिवादी रुप ले जाये तो क्या डॉ. अम्बेडकर उस के जनक होने के जिम्मेदार बनेंगे? सभी कहेंगे-नहीं, वे तो जातिवाद के विरोधी हैं, उन्हें जनक क्यों कहा जाये| इसी प्रकार जातिव्यवस्था, वर्णव्यवस्था की विरोधी व्यवस्था है| मनु को अपनी वर्णव्यवस्था की विरोधी जातिव्यवस्था का जनक कैसे कहा जा सकता है? इस प्रकार उन पर जातिव्यवस्था का जनक होने का आरोप सरासर गलत हैं| सच यह है कि बाद के समाज ने मनु की वर्णव्यवस्था को विकृत कर दिया और उसे जातिव्यवस्था में बदल दिया, अतः वही समाज इसका जनक भी है, दोषी भी|

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    1. किया ये मजाक है भाई तुम किया बोल रहे हो मनु से पहले जाति प्रथा थी तुम नशा तो नही किए हो बंधु ब्राह्मण धर्म के अनुसार मनु से ही मनुष्य का उत्पति हुआ है ये तुम्हारे सभी ब्राह्मणवाद मनुवाद मानसिकता वाले का मानना है फिर तुम किस आधार पर कह रहे हो की मनु से पहले जाति प्रथा थी ???

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  4. आप मुझे एक बात बताये ठीक है मनु नहीं जानते थे कि हज़ारों वर्षो बाद वर्ण व्यवस्था जाती व्यवस्था बन जाएगी कोई नहीं मे सहमत हू
    पर ये बन तो गयी ना ये तो व्यावहारिक बात है अब प्रश्न ये है कि बनाई किसने है तो मे आपसे पूछना चाहता हू क्या किसी शूद्र ने बनाई है? संभवत आप अगर विद्वान होंगे तो ना ही करेंगे सवाल ये है कि डॉ अंबेडकर ने बनाई है जवाब होगा नहीं तो फिर केसे बन गयी?
    अपने आप शायद नहीं!
    इसका केवल एक ही जवाब है और वो है ब्राह्मण ने केवल स्वार्थ सिद्धि के उद्देश्य से इसको जन्म आधारित बनाया और हज़ारों सालो से इसका पोषक रहा जिसने इसके खिलाफ आवाज उठाई उसको नेस्तनाबूद कर दिया
    तो जिम्मेदार कोण है बताइए जरा आप विद्वान लोग
    डॉ अम्बेडकर कुछ नहीं करते अगर उनको इस जहर को पीना नहीं पड़ता अगर उनका अपमान ना हुआ होता केवल जाति के कारण उनको तो वकालत ही करनी थी जेसे गांधी जी को केवल साउथ अफ्रीका मे
    लेकिन उनकी जीवन परिस्थिति ऐसी बनी की उनको सब कुछ छोड़कर ये सब चुन ना प़डा
    शायद अब आप विद्वान लोग समझ गए होंगे है ना??

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    1. Tb ye bhi ho skta hai ki jb वर्ण व्यवस्था थी तब कुछ शूद्र भी ब्राह्मण हुए होंगे और कुछ ब्राह्मण भी शूद्र हुए होंगे तथा क्षत्रिय भी शूद्र हुए होंगे और कुछ शूद्र भी छत्रिय हुए होंगे हुए होंगे तो क्या हम और तुम अपने पूर्वजों को दोषी ठहरा सकते हैं तब तो ए मिलीभगत हुई aur unhone hi jaati vyavastha banai Ho

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  5. Ambedkar Sala ghatia , chutiya tha .pata nahi kid haramjade me isko sawindhan likhne ko kaha

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    1. Thoda soch samajh kr Likha kr

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    2. Kutte ki tarah aise hi bhonk aur mar ja sale kutte ki aulad

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  6. Kuch videshi barhammano ki aulad Ambedkar ko gali derahe hen kiya vo nahi jante desh me qanoon kiska he Ambedkar ka auor manu ki baat kare to manu 5000 saal pahle aaye the dunya me aor unki kitaab thi manu smarty jo poori tarah sahi thi par unke senkdon saal baad manu ko badla gaya barhamman rishiyon duwara taki neechi jatiyon par zulm kar sake barhamman auor jo bhi bolta uska munh bad kardete the kiyonki manu me qanoon hi aese bana diye the barhamman rishiyon ne jo manu ke time ki manusmarty thi ab woh 80% badal chuki he to istarah ghalat manu nahi the woh to ek auotar the ishwar ke jo logon ko ek ishwar ki baat batane aaye the jis manu ke bare me gamete Quraan me bhi likha he ghalat to ye aaj ke barhamman log hen jo ki bohot thode hen auor pore desh me dange felaye huve hen aaj ki manusmarty barhamman rishiyon ki likh hui hui auor iska bahiskaar karna bohot zarori he poori dunya me itni ghalat baten kisi bhi dharmik pustak me nahi likhi hen yahan tak ki hindu dharam ke char vedo me Geeta me ramayan me kuch ghalat nahi par manusmarty poori tarah ghalat he

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    1. लिखना तोह सीख लीजिए पहले बाद में तर्क करना ✍️

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