महात्मा गांधी जी ( हरिजन , २० अप्रैल , १९४० ) कहते है कि ” धर्म – परिवर्तन ओ जहर है जो सत्य और व्यक्ति की जड़ों को खोखला कर देता है ! मिशनरियों के प्रभाव से हिन्दू परिवार की भाषा , वेशभूषा , रीतिरिवाज के द्वारा विघटन हुआ है ! यदि मुझे कानून बनाने का अधिकार होता तो मै धर्म – परिवर्तन बंद करवा देता ! इसे मिशनरियों ने एक व्यापर बना लिया है ! ” धर्म तो आत्मा की उन्नति का विषय है ! रोती , कपडा और मकान के बदले में उसे बेचा या बदला नहीं जा सकता और धर्म – परिवर्तन द्वारा ऊँच – नीच की भावना कभी दूर नहीं हो सकती ! ”
महात्मा गांधी ( गांधी वांग्मय , खंड ४५ , पेज ३३९ ) के अनुसार ” यदि वे पूरी तरह से मानवीय कार्यों तथा गरीबी की सेवा करने के बजाय डाक्टरी सहायता , शिक्षा आदि के द्वारा धर्म – परिवर्तन करेंगे तो मै निश्चित ही उन्हें चले जाने को कहूँगा ! प्रत्येक राष्ट्र का धर्म अन्य किसी राष्ट्र के धर्म के समान ही श्रेष्ठ है ! निश्चित ही भारत के धर्म यहाँ के लोगों के लिए पर्याप्त है ! हमें धर्म – परिवर्तन की कोई आवश्यकता नहीं है !
तो क्या ऐसा मान लिया जाय कि आज गांधी जी की ये विचार प्रासंगिक नहीं रहे ? यदि ये प्रासंगिक है तो इन पर विचार क्यों नहीं किया गया ? ये वनवासी भाई ऐसी यातनाये सहने के लिए क्यों मजबूर है ?
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