24 MAY 2011 3 COMMENTS
रोटी, कपड़ा और इंटरनेट
♦ राहुल कुमार
तहलका बिहार और मध्य प्रदेश के अंतिम अंक में सोशल नेटवर्क के ऊपर दो पन्नों का राहुल कुमार का एक लेख छपा है। हम वहां से वह लेख उड़ा रहे हैं। 1990 में जब टिम बर्नर्स ली ने ‘वर्ल्ड वाइड वेब’ का आविष्कार किया, तो इसका मकसद शोध के लिए जानकारियां जुटाने तक सीमित था। इस लेख में राहुल कुमार बता रहे हैं कि कैसे अब सोशल नेटवर्किंग साइटों के दौर में यह हमारी दिनचर्या में शामिल हो चुका है : मॉडरेटर
इंटरनेट किस कदर हमारी दिनचर्या में शामिल हो गया है, इसका अंदाजा लगाने के लिए जी-टॉक की अलग-अलग बत्तियों की बात करते हैं। पहले हरी बत्ती का मतलब था ‘अवेलेबल’ होना, लाल मतलब ‘बिजी’ और नारंगी मतलब ‘आइडल।’ अर्थ तो अब भी वही हैं, लेकिन इन्हें लेकर समझ बदल गयी है। इसके बदले मतलब हैं – हरा यानी निठल्ला, लाल मतलब अवेलेबल, नारंगी मतलब ‘बिजी’ और इनविजिबल यानी ‘महाबिजी’। यह कायापलट इसलिए कि पहले साइबर कैफे में बैठकर इंटरनेटी दुनिया में विचरने का दौर था और अब कम से कम महानगरों में तो घर-घर में यह उपलब्ध है। पहले जहां किसी बात पर खुद को सही साबित करने के लिए किसी बड़े भैया के पास जाना पड़ता था, अब गूगल की शरण ली जाती है। और कोई बहुत पुराना गाना जेहन में आते ही यूट्यूब पर ‘सर्च’ शुरू हो जाती है।
हमारी बैठकी में जो गप्पें हांकी जाती हैं, उनसे अगर छानेंगे तो कुछ शब्द कई बार मिलेंगे जैसे एफबी, स्टेटस, ब्लॉग, पोस्ट, कमेंट आदि। बातें कुछ इस तरह की होंगी – तुमने वो वीडियो देखा फेसबुक पर, मेरी डिस्प्ले पिक कैसी है, फलाने ब्लॉग पर अच्छे लेख लिखे जाते हैं आदि। हां, ट्विटर की बात कम होती है लेकिन उसकी कसर खबरें मिटा देती हैं। किसने (जिन्हें ट्विटररहित जनता भी पहले से जानती हो) क्या ट्वीट किया है, अखबार बताते रहते हैं। मध्यवर्गीय इसके बारे में कम बतियाते हैं, वजह यह है कि उसमें एलीटों की भरमार ज्यादा है। वहां सब उन्हीं के पीछे भागते-दौड़ते रहते हैं, आमजन को भाव ही नहीं मिलता। फेसबुक पर भाव क्विंटल में मिलता है।
इन माध्यमों की सबसे बड़ी ताकत है कि यहां आपकी बातों से असहमति रखने वालों को अपना विरोध जताने के लिए किसी के चक्कर नहीं काटने पड़ते। वे खुलकर आपका विरोध करते हैं! आप कितने ही बड़े तुर्रम खां क्यों न हों, उन्हें रोक नहीं पाते। इन सोशल साइटों पर प्रेम के कसीदे भी गढे़ जाते हैं। गुस्सा, झल्लाहट और सामाजिक चेतना भी दिखती है। सामाजिक मुद्दों पर बहस करने को तैयार खड़ा एक छोटा-सा जन समूह भी मिल ही जाता है।
यहां लोगों की मौजूदगी द्रुत गति से बढ़ रही है। अब कंप्यूटर से चिपके रहने की बाध्यता भी खत्म हो गयी है। मोबाइल का बाजार आम जीवन में सोशल साइटों के दखल को समझता है, इसलिए उनके विज्ञापनों में अपने फीचर से अधिक जोर फेसबुक/ट्विटर टूल की उपस्थिति को पिच करने पर दिया जाता है।
टाइमखोर-टाइमपास ‘फेसबुक’
बेन मेजरिक की किताब ‘द एक्सिडेंटल बिलियनेयर्स’ के अनुसार हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी में दूसरे वर्ष का छात्र मार्क जुकरबर्ग यूनिवर्सिटी के सारे कंप्यूटर सिस्टम को हैक करके कैंपस की सारी लड़कियों की तसवीरें निकालता है। फिर फेसमैश नाम की एक वेबसाइट बनाकर उनकी तसवीरें जारी करता है। इस वेबसाइट की वजह से हॉर्वर्ड का सर्वर क्रैश हो जाता है। मार्क को कॉलेज से निकाल दिये जाने की नौबत आ जाती है। इसके बाद वह अपने एक दोस्त के साथ मिलकर फेसबुक नाम की वेबसाइट बनाता है, जो दुनिया की नामी वेबसाइट तो बनती ही है, जुकरबर्ग को सबसे कम उम्र का अरबपति भी बनाती है। डेविड फिंचर की फिल्म “द सोशल नेटवर्क” भी इसी पर आधारित है। मार्क इसे फिक्शन बताते हैं जबकि बकौल बेन यह तथ्यों, दस्तावेजों और साक्षात्कारों पर आधारित एक सच्ची कहानी है।
बहरहाल, इसकी पृष्ठभूमि चाहे जो भी हो लेकिन इसमें कोई गुरेज नहीं कि इस घोर इंटरनेट युग में फेसबुक सामान्य दिनचर्या का हिस्सा बन गया है। 2004 में यह वेबसाइट हम तक आयी और अभी तक इस पर 60 करोड़ लोग आ चुके हैं। यह महज पुराने दोस्तों को ढूंढ़ने तक सीमित नहीं है। लोग फेसबुक के जरिये कल्पनाओं में जीते भी नजर आते हैं। जैसे फार्मविले में अपने एसी बेड रूम में बैठकर वर्चुअल खेती करना, कैफे वर्ल्ड में एक पूरे कैफे का मालिक होना, भले ही असल जिंदगी में आपको चाय बनानी न आती हो, पर यहां आप एक से एक लजीज व्यंजन तैयार कर सकते हैं। हाथों में जान हो कि न हो पर माफिया वार खेलते हुए एक मुक्के में चार लोगों को धराशायी करने का बचपन का सपना पूरा कर सकते हैं। गेम खेलने और जीतने के लिए अधिक से अधिक दोस्त चाहिए, ऐसे में हम धड़ल्ले से जाने-अनजाने लोगों को जोड़कर अपनी फ्रेंड लिस्ट को लंबा करने पर जोर देते हैं। मजेदार बात यह है कि दो दोस्तों के बीच की नोक-झोंक में भी फेसबुक अपनी जगह बना चुका है। दोस्तों के स्टेटस, वीडियो या उनकी तसवीरों पर कमेंट और लाइक न करने पर आप उनके कोपभाजन भी बन सकते हैं।
फेसबुक के फीचरों में सबसे बुरा क्या है? दिल्ली की शबनम खान बताती हैं, ‘टैगिंग मुझे सबसे बेकार लगता है। वैसे तो यह बहुत काम की चीज है लेकिन कुछ लोग एक-एक तसवीर में 100 लोगों को टैग कर देते हैं। ऐसे में नोटिफिकेशन उन्हीं फोटो पर आयी टिप्पणियों से भर जाता है। अगर वह फोटो आपके मतलब की नहीं है, तो यह आपके लिए बहुत झेलाऊ हो जाता है।’
सामाजिक आंदोलनों को रंग देने में भी फेसबुक कमाल की भूमिका निभा रहा है। सार्थक बहस और तर्कों की भीड़ फेसबुक की कई वॉलों पर दिखती है। गंभीर मुद्दों पर भारत में फेसबुक कितना असरदार है, इस पर व्यंग्यकार संजय ग्रोवर कहते हैं, ‘जैसी भूमिका फेसबुक की अरब दुनिया की क्रांतियों में रही, भारत के मौजूदा आंदोलन में नहीं है। यह पहली बार अरब में ही संभव हुआ कि लोगों ने लगभग बिना नायकों के ही सत्ता को खदेड़ दिया, जबकि भारत में रातों-रात नायक (रामदेव से अन्ना) बदल जाने के बावजूद जितनी भीड़ जुटी, वह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के जरिये ही संभव थी।’
लिक्खाड़ों का स्वर्ग ‘ब्लॉग’
आज से पांच साल पहले जब हिंदी के ब्लॉग नहीं थे, तब अपने विचार सार्वजनिक करने के लिए अखबारों में खूब चिट्ठियां भेजी जाती थीं। उन्हें भी महीने-दो महीने बाद काट-पीटकर छापा जाता था और लिखने वाले मन ही मन कुढ़ते थे। अब तो जितना मर्जी लिखो, जैसे मर्जी एडिट करो। इधर आइडिया आया नहीं कि उधर एक पोस्ट ठोंक दी। अगर ब्लॉग को फॉलो करने वालों की संख्या और आपके पोस्ट पर टिप्पणियों की संख्या बढ़ती जाती है, तो आपका उत्साह भी द्रुत गति से बढ़ता जाता है। सुबह-शाम ब्लॉग और विषय ही आपके दिमाग में चलते हैं, लेकिन अगर ऐसा नहीं हो रहा तो फिर धीरे-धीरे आपका ब्लॉग ठुस्स होने लगता है।
छोटे-बड़े, गंभीर-अगंभीर लगभग सारे ही मुद्दों पर लिखा जा रहा है। चिट्ठाजगत और ब्लॉगवाणी जैसे हिंदी एग्रीगेटरों ने ब्लॉगों को इस ब्लॉगिया समाज के बीच बांटने की जो जिम्मेदारी शुरू की थी, उसे आगे बढ़ाने का काम फेसबुक और ट्विटर कर रहे हैं, जहां लिंक साझा करने का बेजोड़ विकल्प है।
ब्लॉग लेखन की भी अपनी एक अलग शैली है। यहां भाषा में एक अलग-सी बेफिक्री और विचारों में प्रवाह दिखता है क्योंकि इसे कोई सेंसर नहीं कर सकता और यह किसी शक्ति विशेष द्वारा प्रायोजित नहीं होता। ब्लॉग ने हिंदी साहित्य को कई लिक्खाड़ दिये हैं और पाठकों को एक विशाल विविधता दी है। अब चाहे आप डॉक्टर हों, इंजीनियर हों या कलेक्टर ही क्यों न हों, अगर आपको लिखना रास आता है तो दुनिया आपको पढ़ने के लिए तैयार है। मुंबई के विकास कुमार, जो पेशे से इंजीनियर हैं, भी लिखते हैं। कविताएं, कहानियां, संस्मरण और अपने कैमरे से फोटो खींचकर भी लगाते हैं। विकास जैसे कई बहुमुखी प्रतिभा वाले लोग हैं, जिन्हें ब्लॉग के रूप में बेहतरीन प्लेटफॉर्म मिला हुआ है।
एलीटों का ‘ट्विटर’
2006 में अमेरिका के जैक डॉर्सी ने ओडियो नामक अमेरिकी कंपनी के कर्मचारियों को आपस में जोड़ने के लिए ट्विटर नामक इस माइक्रोब्लॉगिंग सोशल साइट का निर्माण किया था। बाद में इसका दायरा एक कंपनी और एक देश से निकलकर पूरी दुनिया तक बढ़ गया, तो ट्विटर न सिर्फ अनकही को कहने का मंच बना बल्कि कई मायनों में मीडिया का विकल्प तक बन गया। बेंगलुरु के कर्लटन टावर में आग लगने जैसे कई मौकों पर घटना की पहली सूचना और तसवीरें टीवी की बजाय ट्विटर पर ही आयी हैं।
ट्विटर पर रोजाना 14 करोड़ ट्वीट भेजे जा रहे हैं। प्रतिदिन 4,60,000 नये लोग ट्विटर से जुड़ रहे हैं और ट्विटर के कुल उपभोक्ताओं की संख्या अब बीस करोड़ से अधिक हो चुकी है। ट्विटर के साथ बस दिक्कत यह है कि आम आदमी उससे जुड़ तो रहा है, लेकिन अपनी बात कहने की बजाय वह अब भी बड़ी हस्तियों को पढ़ना ज्यादा पसंद करता है। याहू द्वारा हाल में की गयी एक रिसर्च के मुताबिक ट्विटर के कुल ट्वीटों में से आधे सिर्फ 0.05 प्रतिशत लोगों द्वारा किये जाते हैं। इन 0.05 प्रतिशत लोगों को याहू ने ‘एलीट ग्रुप’ की संज्ञा दी है।
एक तरफ से ही सही लेकिन ट्विटर उस बड़ी खाई को पाटता है, जो सेलेब्रिटी और आमजन के बीच है। मीडिया की विश्वसनीयता जब कई वजहों से प्रश्नों और संदेहों के घेरे में आ चुकी है, ऐसे में किसी भी मुद्दे पर अपनी बातें लोगों तक सीधा पहुंचाने का यह सबसे सरल माध्यम है। यह उन बड़े लोगों के लिए मुफीद है, जिनके पास पूरी रामायण लिखने का वक्त नहीं है, जो दिन भर कंप्यूटर के सामने बैठकर इंटरनेट द्वारा हो रही क्रांति के बहस-मुबाहिसों में भागीदारी नहीं कर सकते। बस मोबाइल निकालने की देर है। ट्विटर तो वैसे भी वन टच पर उपलब्ध है। फटाफट क्वर्टी कीपैड पर कुछ बटन दबाएं और हो गया ट्वीट। अब बाकी दुनिया को देखने, पसंद करने, प्रतिक्रिया देने और बहुत अच्छा लगे तो कॉपी करके अपने अकाउंट से ट्वीट करने दीजिए।
ट्विटर ने अहम मौकों पर जनभावनाओं को भी मंच देने का काम किया है। मिस्र और टयूनीशिया जैसे मुल्कों में क्रांति की बयार बहाने में फेसबुक और ट्विटर का बड़ा योगदान रहा। काहिरा में जनांदोलनों के दमन के लिए जब संचार के सारे माध्यमों को प्रतिबंधित कर दिया गया था, ट्विटर ही खैर-खबर लेने और देने का माध्यम बना था।
(तहलका के मई अंक से कॉपी-पेस्ट)
(राहुल कुमार। युवा पत्रकार। तहलका में सब एडिटर। इंटरनेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन से बैचलर डिग्री। चकल्लस नाम का ब्लॉग। onlyrahulkumar@gmail.com पर संपर्क करें।)
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