जानी-मानी
लेखिका और बुकर सम्मान से सम्मानित अरुंधति राय जब भी कुछ लिखती हैं या
फिर बोलती हैं तो वे विवादों से घिर जाती हैं। वे अपनी बेबाक टिप्पणी के
लिए पूरी दुनिया में जानी जाती हैं। इस इंटरव्यू के दौरान अरुंधति ने न
सिर्फ विस्थापन पर बेबाकी से अपनी बात रखी बल्कि अयोध्या फैसले,केन्द्र
सरकार और भाजपा कांग्रेस की नीतियों पर भी सवालिया निशान लगाया है। अरुंधति
से खास बातचीत की आशीष महर्षि ने। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश-
पूरे देश में बड़े पैमाने पर
विस्थापन हो रहा है। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में कहीं भी कोई भी बच्चों के
अधिकारों की बात नहीं कर रहा है।
ऐसी परिस्थिति में बच्चे न तो घर वालों की
प्राथमिकता में रहते हैं और न सरकार की। लोग खुद की जिंदगी को बचाने में
ही लग जाते हैं। लेकिन सबसे अधिक अफसोस की बात यह है कि सरकार की
जिम्मेदारी है कि वह हरेक के मूल अधिकारों की न सिर्फ रक्षा करे बल्कि वह
देखे कि हर बच्चे को शिक्षा व स्वास्थ्य से जोड़ा जाए। लेकिन हो नहीं रहा
है।
विस्थापन को आप किस प्रकार से देखती हैं, खासतौर से जंगलों से जिन लोगों को बेदखल किया जा रहा है।
संविधान में साफ शब्दों में लिखा है कि
जल, जंगल और जमीन से उन पर आश्रित लोगों को नहीं हटाया जा सकता है। लेकिन
अफसोस सरकार संविधान की भावना को ताक पर रखकर करोड़ों लोगों को सिर्फ इसलिए
विस्थापित कर रही है ताकि कुछेक मुट्ठी भर लोगों की तिजोरियों को भरा जाए।
दंतेवाड़ा में सात सौ गांवों को खाली करा लिया गया। वहां से करीब साढ़े
तीन लाख लोग दर-दर भटक रहे हैं। लेकिन उन्हें पूछने वाला कोई नहीं है। यह
हाल सिर्फ दंतेवाड़ा का नहीं है। मध्य प्रदेश हो या फिर झारखंड, जंगलों को
निजी कम्पनियों के लिए खाली कराने का काम तेजी से चल रहा है।
अहिंसात्मक आंदोलन पर आप क्या कहेगीं ?
देखिये, आप किसी भूखे आदमी से अहिंसात्मक
आंदोलन की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। आंदोलनों में विविधता होना जरुरी है।
यदि कोई व्यक्ति जंतर मंतर पर अहिंसात्मक तरीक से आंदोलन कर रहा है तो वही
व्यक्ति जंगलों में अपने तरीके से आंदोलन कर सकता है। अहिंसात्मक आंदोलन ही
झूठ है। हमें इस तरीके से आजादी नहीं मिली है। भारत पाक विभाजन के दौरान
भयानक हिंसा हुई। इसमें दस लाख लोग मारे गए थे। इसे आप इस सदी की सबसे
भयानक हिंसा कह सकते हैं। मौजूदा वक्त में आप भूखे आदमी से इस तरीके से
आंदोलन की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। गरीबों के संघर्ष में इस तरह के आंदोलन
का कोई अर्थ नहीं है।
नर्मदा बचाओ आंदोलन से दूरी क्यों ?
नहीं उनसे मेरी कोई दूरी नहीं है। यह तो
मीडिया के एक तबके के द्वारा फैलाई गई अफवाह है। मैं पहले भी नर्मदा आंदोलन
के साथ थी और आज भी हूं।
आप नक्सलवाद और नक्सलवादियों को बड़े रुमानी अंदाज में पेश करती हैं।
बिलकुल करती हूं। और इस पर मुझे गर्व है।
मुझे हर उस इंसान और विचारधारा पर गर्व है जो गरीब आदिवासियों के हक में
अपनी आवाज बुलंद करता है। यदि नक्सली ऐसा करते हैं तो इसमें क्या गलत है।
आखिर लोग रोमांच से क्यों डरते हैं। दुनिया में हर व्यक्ति को रोमांच करना
चाहिए। इस पर गर्व होना चाहिए। मैं हर उस आंदोलन से रोमांच करती रहूंगी जो
गरीबों के लिए लड़ा जा रहा है।
अयोध्या के विवादित फैसले पर आप क्या कहेंगी ?
बहुत अफसोसजनक। मुझे एक बात समझ में नहीं
आती है कि दुनिया की कोई भी अदालत यह कैसे तय कर सकती है कि भगवान राम कहां
पैदा हुए थे और कहां नहीं। ऐसे फैसले पर तो अफसोस ही जताया जा सकता है।
लेकिन इससे साफ हो गया है कि न्यायपालिका का भी साम्प्रदायिकरण हो गया है।
कोर्ट ने भगवान को इंसान मान लिया। इससे तो भगवान राम का अपमान ही हुआ है
और वे छोटे हुए हैं। मुझे समझ में नहीं आता है कि अदालत जब यह फैसला दे रही
थी तो उसका दिमाग कहां चला गया था।
गृहमंत्री से कोई खास नाराजगी ?
गृहमंत्री पी चिदंबरम आदिवासियों, दलितों
और गरीबों के हितों के खिलाफ हैं और मैं इन सब के साथ। तो खुद ब खुद मैं
इनके साथ और गृहमंत्री की विरोधी हो जाती हूं। जो कोई भी आदिवासी और गरीब
किसानों की लड़ाई लड़ता है, वह सरकार की नजर में माओवादी घोषित हो जाता है।
और मामला यहीं खत्म नहीं होता है, सरकार उन्हें हर तरह से कुचलने की कोशिश
करती है। यही मंत्री विदेशों में जाकर देश की हर उस चीज के निजीकरण की
वकालत करते हैं जो गरीबों से जुड़ी हैं।
माओवादियों की हिंसा पर आप क्या कहेंगी ?
देखिए ऐसा नहीं है कि माओवादी सिर्फ
बंदूकों के बल पर ही आंदोलन चला रहे हैं। वे लगातार तीस सालों से लड़ रहे
हैं। वे जंगलों में बसे आदिवासियों के हितों के लिए न सिर्फ व्यवस्था से
लड़ रहे हैं बल्कि राज्य से भी लोहा ले रहे हैं। वे सिर्फ बंदूकों से लड़ते
तो शायद इतनी लंबी लड़ाई वे भी नहीं लड़ पाते। वे आदिवासियों के भले के
लिए भी समानान्तर कुछ न कुछ करते ही रहते हैं।
भाजपा कांग्रेस में कोई अंतर नजर आता है आपको ?
सही बताऊं तो बिल्कुल नहीं। इनके नाम
सिर्फ अलग हैं, नीतियां एक ही हैं। वे यह है कि निजी कम्पनियों को अधिक से
अधिक लाभ कमवाना है। इसके लिए उन्हें चाहे आदिवासियों की जमीन उन्हें देनी
हो या फिर किसानों को जमीन से बेदखल करना। वे इसके लिए हमेशा तैयार रहती
हैं।
(साभार – “संस्कृति मीमांसा” ब्लॉग )
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