बाल मुकुंद
पिछले दिनों अखबारों में मैंने कुछ हंसती हुई लड़कियों की तस्वीरें देखीं। वे तस्वीरें विज्ञापनों में छपी थीं। उनमें से मां बनने जा रही एक लड़की किसी मजाक पर अपने पति के साथ हंस रही थी। दूसरी अपने प्रेमी के साथ हल्के-फुल्के क्षणों का आनंद उठा रही थी। तीसरी तस्वीर में एक लड़की अपनी पसंद की स्पेगटी पहन कर खुश हो रही थी। वे सब खुलकर हंस रही थीं- उन्मुक्त, निर्मल।
अपने समाज में रोजमर्रा की जिंदगी में लड़कियां या औरतें खुलकर नहीं हंसतीं- ऐसा दृश्य या तो आप फिल्मों में देखते हैं या विज्ञापनों में। कभी-कभी असली जीवन में खुलकर वे तब हंसती हैं, जब सिर्फ अपनी सहेलियों या औरतों के समूह के बीच हों- जहां मर्द का प्रवेश वर्जित हो।
हमारी एक प्राचीन और गौरवपूर्ण सभ्यता है। हमने पूरी दुनिया को ज्ञान की रोशनी दी है। तो पहला ज्ञान तो हम अपनी बेटियों को ही दे देते हैं- ये क्या लड़कों की तरह मुंह फाड़कर हंस रही हो? लड़कियों को बचपन से ही सिखाया जाता है- धीरे-धीरे हंसो। भीतर घर में जाकर हंसो। इतना जोर से मत हंसो कि उसकी आवाज सुनकर लोग पलट कर तुम्हें देखने लग जाएं।
लेकिन दूसरी तरफ मर्द कहीं भी ठहाके लगा सकते हैं। पहले घर की बैठक उनके हंसी-मजाक के लिए हुआ करती थी। वे हंसें तो उसकी आवाज भीतर तक जा सकती थी। लेकिन भीतर से जनानखाने से हंसी की आवाज बैठक तक बिल्कुल नहीं पहुंचनी चाहिए।
लेकिन पारंपरिक रूप से ऐसी पाबंदी स्त्रियों के रोने पर नहीं रही है। वे सिसक-सिसक कर रोएं या जोर-जोर से बुक्का फाड़कर। उलटे किसी के यहां गमी हो जाए और औरतखाने से रोने की आवाज नहीं आए, तो बिरादरी में बड़ी शिकायत होती थी। रुदाली की परंपरा के बारे में तो आपने सुना ही होगा।
शादी के बाद विदा होते समय भी लड़की को ही रोना होता है- वह खुशी-खुशी अपना नया घर बसाने नहीं जा सकती। इस अवसर पर दूल्हा नहीं रोता- वह कुटिलता से मुस्कराता रहता है। जिस दूल्हे ने मन में घर जमाई बनने का सपना संजो रखा हो, वह भी विदाई के समय नहीं रोता। बारात निकलते समय एक रस्म में जब मां पूछती है कि नई स्त्री के कारण अब दूध का मोल तो नहीं भूल जाओगे? तब भी बेटा नहीं रोता, मां ही रोती है।
हंसना और रोना मनुष्य को प्रकृति की नैसर्गिक देन है। लेकिन हमारी महान सभ्यता में औरतों को इसके लिए भी आजादी नहीं दी गई है। हंसना-रोना उनका अपना है, लेकिन उस पर पहरा मर्दों का है। इसलिए औरतों ने सिर्फ मुस्करा देना सीखा। लेकिन पृथ्वीराज चौहान के इस देश में उस मुस्कान से भी अर्थ निकालने के लिए पुरुष स्वतंत्र है। यहां बहुत सारे लोग मानकर चलते हैं कि 'हंसी तो फंसी।' पृथ्वीराज उसी हंसी पर फिदा होकर संयोगिता को ले उड़े थे।
हमारे दादा-दादी के जमाने में शादी के बाद भी औरतें यह स्वीकार नहीं कर पाती थीं कि उनका पति उनके कमरे में आया था। इसलिए रात में बहू के कमरे से बेटे की घुटी हुई हंसी सुनाई दे तो क्षम्य था, पर बहू की खिलखिलाहट नहीं सुनाई देनी चाहिए। इस सभ्यता में मर्द का उच्छृंखल होना भी उसकी मर्दानगी है, लेकिन औरत का बेपरवाह होना उसकी असभ्यता है।
वैसे आजकल लड़कियां इन परंपराओं को तोड़ने लगी हैं- वे खुलकर हंसने लगी हैं। अंतरंग क्षणों में, किसी पसंदीदा मजाक पर या किसी मर्द की बेवकूफी भरी रसिकता पर। वे जोर-जोर से हंसती हैं। इसीलिए लगता है कि वे हाथ से निकलती जा रही हैं, वे बगावत कर रही हैं। लेकिन मुझे तो लड़कियों का खिलखिला कर हंसना अच्छा लगता है, कानों में घंटी सी बजने लगती है।
पिछले दिनों अखबारों में मैंने कुछ हंसती हुई लड़कियों की तस्वीरें देखीं। वे तस्वीरें विज्ञापनों में छपी थीं। उनमें से मां बनने जा रही एक लड़की किसी मजाक पर अपने पति के साथ हंस रही थी। दूसरी अपने प्रेमी के साथ हल्के-फुल्के क्षणों का आनंद उठा रही थी। तीसरी तस्वीर में एक लड़की अपनी पसंद की स्पेगटी पहन कर खुश हो रही थी। वे सब खुलकर हंस रही थीं- उन्मुक्त, निर्मल।
अपने समाज में रोजमर्रा की जिंदगी में लड़कियां या औरतें खुलकर नहीं हंसतीं- ऐसा दृश्य या तो आप फिल्मों में देखते हैं या विज्ञापनों में। कभी-कभी असली जीवन में खुलकर वे तब हंसती हैं, जब सिर्फ अपनी सहेलियों या औरतों के समूह के बीच हों- जहां मर्द का प्रवेश वर्जित हो।
हमारी एक प्राचीन और गौरवपूर्ण सभ्यता है। हमने पूरी दुनिया को ज्ञान की रोशनी दी है। तो पहला ज्ञान तो हम अपनी बेटियों को ही दे देते हैं- ये क्या लड़कों की तरह मुंह फाड़कर हंस रही हो? लड़कियों को बचपन से ही सिखाया जाता है- धीरे-धीरे हंसो। भीतर घर में जाकर हंसो। इतना जोर से मत हंसो कि उसकी आवाज सुनकर लोग पलट कर तुम्हें देखने लग जाएं।
लेकिन दूसरी तरफ मर्द कहीं भी ठहाके लगा सकते हैं। पहले घर की बैठक उनके हंसी-मजाक के लिए हुआ करती थी। वे हंसें तो उसकी आवाज भीतर तक जा सकती थी। लेकिन भीतर से जनानखाने से हंसी की आवाज बैठक तक बिल्कुल नहीं पहुंचनी चाहिए।
लेकिन पारंपरिक रूप से ऐसी पाबंदी स्त्रियों के रोने पर नहीं रही है। वे सिसक-सिसक कर रोएं या जोर-जोर से बुक्का फाड़कर। उलटे किसी के यहां गमी हो जाए और औरतखाने से रोने की आवाज नहीं आए, तो बिरादरी में बड़ी शिकायत होती थी। रुदाली की परंपरा के बारे में तो आपने सुना ही होगा।
शादी के बाद विदा होते समय भी लड़की को ही रोना होता है- वह खुशी-खुशी अपना नया घर बसाने नहीं जा सकती। इस अवसर पर दूल्हा नहीं रोता- वह कुटिलता से मुस्कराता रहता है। जिस दूल्हे ने मन में घर जमाई बनने का सपना संजो रखा हो, वह भी विदाई के समय नहीं रोता। बारात निकलते समय एक रस्म में जब मां पूछती है कि नई स्त्री के कारण अब दूध का मोल तो नहीं भूल जाओगे? तब भी बेटा नहीं रोता, मां ही रोती है।
हंसना और रोना मनुष्य को प्रकृति की नैसर्गिक देन है। लेकिन हमारी महान सभ्यता में औरतों को इसके लिए भी आजादी नहीं दी गई है। हंसना-रोना उनका अपना है, लेकिन उस पर पहरा मर्दों का है। इसलिए औरतों ने सिर्फ मुस्करा देना सीखा। लेकिन पृथ्वीराज चौहान के इस देश में उस मुस्कान से भी अर्थ निकालने के लिए पुरुष स्वतंत्र है। यहां बहुत सारे लोग मानकर चलते हैं कि 'हंसी तो फंसी।' पृथ्वीराज उसी हंसी पर फिदा होकर संयोगिता को ले उड़े थे।
हमारे दादा-दादी के जमाने में शादी के बाद भी औरतें यह स्वीकार नहीं कर पाती थीं कि उनका पति उनके कमरे में आया था। इसलिए रात में बहू के कमरे से बेटे की घुटी हुई हंसी सुनाई दे तो क्षम्य था, पर बहू की खिलखिलाहट नहीं सुनाई देनी चाहिए। इस सभ्यता में मर्द का उच्छृंखल होना भी उसकी मर्दानगी है, लेकिन औरत का बेपरवाह होना उसकी असभ्यता है।
वैसे आजकल लड़कियां इन परंपराओं को तोड़ने लगी हैं- वे खुलकर हंसने लगी हैं। अंतरंग क्षणों में, किसी पसंदीदा मजाक पर या किसी मर्द की बेवकूफी भरी रसिकता पर। वे जोर-जोर से हंसती हैं। इसीलिए लगता है कि वे हाथ से निकलती जा रही हैं, वे बगावत कर रही हैं। लेकिन मुझे तो लड़कियों का खिलखिला कर हंसना अच्छा लगता है, कानों में घंटी सी बजने लगती है।
स्त्रियों के लिए जोर से हँसना वर्जित रहा जबकि जोर से रोने पर पाबन्दी नहीं थी !
ReplyDeleteहंसती हुई स्त्री चुभती है आँखों में .
सही कह रहे हैं आप... यह सब मर्दों की ज़बरदस्ती की चौधराहट है.....
ReplyDeleteबिल्कुल सटीक विश्लेषण कि्या है।
ReplyDeleteबहुत सही विश्लेषण किया है आपने आज की नारी स्वाधीन, स्वावलंबी ,शिक्षित है सब पुरातन बे सर पैर की बेड़ियों को तोड़ कर आगे बढ़ रही है खुल कर हँसना अपना तर्क रखना ये सब आज उसके सुन्दर व्यक्तित्व की पहचान है आत्मविश्वास की पहचान है
ReplyDeleteab fiza badal rhi hai , khushi is baat ki hai ab janana thahake sunai dene lage hai .
ReplyDeletesundar post !
ek naye mudde ko ukerta lekh. sach kaha aapne .
ReplyDeletehttp://jaisudhir.blogspot.in/2012/04/blog-post_28.html
Deleteहवा में उड़ गया जो दुपट्टा