क्या दबंग हमारे संपूर्ण मनो रंजन का राष्ट्रीय मानक है?
26 MAY 2011 13 COMMENTS
♦ मयंक सक्सेना
दबंग पर यह बहस फेसबुक से शुरू हुई थी, जिसे मोहल्ला लाइव ने प्रकाशित किया था, घटिया मनोरंजन को राष्ट्रीय मनोरंजन मानना अपराध है : मॉडरेटर
58वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की घोषणा होती है और दबंग नाम की एक फिल्म को सर्वश्रेष्ठ मनोरंजक फिल्म का पुरस्कार मिलता है। आपको शायद इस पर खुशी हो, पर मुझे चयन समिति की योग्यता पर शक होता है। एक भ्रष्ट पुलिस वाले को दबंग बताती और सलमान खान की बेहूदी एक्टिंग से भरी फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार, हमारी राष्ट्रीयता पर गर्व का नहीं, विमर्श का मौका है। लेकिन कैसा विमर्श, ये वही देश है जहां आर्थिक अपराधी संत सिंह चटवाल और नीरा राडिया के जरिये राजा को घोटालेबाज बना डालने वाले रतन टाटा को पद्म पुरस्कार दे दिये जाते हैं, टाटा तो शायद अगर ये घोटाला सामने न आता, तो भारत रत्न भी बन जाते।
ये वाकई समय है भयंकर विमर्श का कि क्या वाकई हम एक पॉपुलिस्ट संस्कृति वाले राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर हैं। एक ऐसा राज्य जहां देखा-देखी और केवल लोकप्रियता के आधार पर वो सब कुछ भी किया जाएगा, जो नहीं होना चाहिए। क्योंकि किसी को तीन करोड़ लोग धर्म की अफीम खा कर भगवान मानते हैं, जिसमें बड़े नेता, अभिनेता और क्रिकेटर शामिल हैं तो इसलिए उस पर लगे तमाम आरोपों को दरकिनार कर उसे भगवान मान लिया जाए। किसी के तमाम अपराधों को किनारे करते हुए केवल उसे अस्पताल और स्कूल खुलवाने के लिए समाजसेवक मान लिया जाए। दबंग का नायक फिल्म में खुद को रॉबिनहुड कहता है तो साल में ही आयी एक और फिल्म दरअसल दबंग के इसी नकली रॉबिनहुड को पूरा करती दिखती है, जब अक्षय कुमार कहते हैं कि वो आधे रॉबिनहुड हैं, जो अमीरों से पैसा लूटते जरूर हैं, पर गरीबों में उसे बांटते नहीं हैं। दबंग दरअसल अपवाद नहीं है, हमारे सार्वजनिक जीवन के खोखले नायकों की ही तरह इस फिल्म में भी एक नायक है, जिसकी एक फर्जी रॉबिनहुडाई छवि बना दी जाती है, गोया वो वाकई महान हो।
किस तरह का संदेश था फिल्म में? क्या वाकई इस लायक कि उसे राष्ट्रीय पुरस्कार दिया जाए। कई साहेबानों को आपत्ति होगी कि अरे भई मनोरंजक फिल्म का पुरस्कार मिला है, न कि सर्वश्रेष्ठ फिल्म का तो फिर हमें बिना शक ये भी चर्चा करनी होगी कि आखिर मनोरंजन क्या है? किस तरह के मनोरंजन की बात करेंगे हम? क्या मनोरंजन स्वस्थ होना चाहिए या बिना सर पैर के किसी भी बकवास को मनोरंजन के नाम पर परोसा जा सकता है? फिर ऐसे में आप केवल हिंदी के समाचार चैनलों को क्यों कोसें? वे भी बिना सोचे-समझे खबरों को मनोरंजक बना रहे हैं। थ्री यूसेज ऑफ नाइफ में डेविड मैमे कहते हैं कि, “जब आप थिएटर में घुसें तब आपको यह कहने में सक्षम होना चाहिए कि, “हम यहां एक संवाद में आये हैं, ये जानने के लिए कि हमारे आसपास की दुनिया में क्या-क्या हो रहा है” और अगर थिएटर से बाहर निकलने पर हम ये कह पाने में सक्षम नहीं हैं, तो हम कला की जगह केवल मनोरंजन लेकर निकले हैं और वो भी घटिया दर्जे का मनोरंजन।”
ऐसे में जब आप दबंग जैसी विचारहीन फिल्म को सर्वश्रेष्ठ मनोरंजक फिल्म का पुरस्कार देते हैं, तो देश में उस साल बनी तमाम बेहतर, स्वस्थ, विचारवान, दिशावान और स्तरीय फिल्मों को दरकिनार कर के दबंग टाइप सिनेमा को राष्ट्रीय मनोरंजन का मानक घोषित कर रहे होते हैं। सवाल ये है कि आखिर किस तरह के नागरिक चाहते हैं हम? क्यों आखिर राष्ट्रीय पुरस्कारों में भी फिल्मफेयर सरीखी घटिया पसंद अपनायी जाती है? क्या यहां भी लॉबीइंग आ गयी है? क्या हमें भ्रष्ट पुलिसवाले चाहिए, जो कभी भी किसी का भी एनकाउंटर कर के उसे जायज ठहराएं? क्या हम गुजरात में बंजारा को सलमान खान वाले मानकों पर तौलेंगे? क्या हम तमाम आईपीएस का घूस लेना बर्दाश्त करेंगे? क्या हम पुलिस थानों में शराब की भट्टियां लगाने और पुलिसकर्मियों के ड्यूटी पर नशे में झूमने की कवायद शुरू करेंगे या फिर महिलाओं के लिए वाकई अपमानजनक गीतों (मुन्नी…) का सस्वर पाठ करेंगे? और अगर हम इस सब के समर्थक नहीं हैं, तो कैसे दबंग हमारे राष्ट्रीय मनोरंजन का पैमाना बन सकती है? माफ कीजिएगा पर अगर दबंग हमें मनोरंजित मतलब खुश करती है, तो हम एक अपराधी, मनोविकृत और सामंती पुरुषवादी समाज बनने की ओर बढ़ रहे हैं, जहां समता, मूल्यों, ईमानदारी और महिलाओं के लिए सम्मान जैसी कोई चीज नहीं होगी।
दबंग के पहले इस पुरस्कार से पुरस्कृत फिल्मों पर हम जब नजर दौड़ाते हैं तो हम पाते हैं कि पुरस्कृत लगभग हर फिल्म दबंग से न केवल कई गुना बेहतर थी बल्कि बेहतर कंटेंट, स्तरीय अभिनय और कम से कम एक संदेश से जुड़ी हुई वो फिल्में थीं, जो हमारे वक्त की हकीकत हमें बताती थी और हमें उद्वेलित कर रही थी। इन फिल्मों की सूची में 3 इडियट्स, लगे रहो मुन्नाभाई, चक दे, रंग दे बसंती, ऑटोग्राफ (तमिल), लगान, माचिस, गीतांजलि(तेलुगू) और कोरा कागज जैसी फिल्में थीं। इनमें से किसी भी फिल्म से दबंग की तुलना कर के देखें तो आप पाएंगे कि या तो दबंग को ये पुरस्कार दिया जाना विसंगति है या फिर इन सारी फिल्मों को दिया जाना। दरअसल ये पुरस्कार पूरे सरकारी तंत्र के दोषपूर्ण क्रियान्वयन के एक और उदाहरण के तौर पर देखे जा सकते हैं, जहां हर काम केवल जनता को लुभाने के लिए तो हो सकता है, पर उसे जगाने के लिए नहीं। ये प्रवृत्ति हमारे समाज के हर हिस्से में पायी जाती है। हमारे यहां लोकप्रिय शिक्षा केवल नौकरी पाने के लिए है, कानून केवल सजा देने के लिए, लोकप्रिय सरकारें केवल बने रहने के लिए और ऐसे ही लोकप्रिय फिल्में केवल सस्ता मनोरंजन देने के लिए। आप हैरान नहीं होते हैं जब मुन्नी जैसे आइटम नंबर वाली फिल्म, थाने में शराब बहाती फिल्म, इतनी गोलियां मारूंगा जैसे संवादों वाली और भयंकर हिंसा से भरी फिल्में आपके घर के नन्हें बच्चे भी देखते हैं और इन्हें बिना पीजी प्रमाणपत्र के रिलीज कर ऊपर चेंप दिया जाता है, महान पारिवारिक फिल्म। जब ब्लू अंब्रेला सरीखी बच्चों की फिल्में बनती हैं, तो आप उन्हें अपने बच्चों को दिखाने की जहमत नहीं उठाते हैं और तमाम बेहतर फिल्में बनाने वाले फिल्मकार अंततः अच्छे सिनेमा से या फिर सिनेमा से ही तौबा कर लेते हैं। लेकिन उससे भी बड़ा सवाल कहीं न कहीं ये है कि आखिर कैसे सरकारी तंत्र इस तरह के सिनेमा को महिमामंडित कर सकता है।
मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि हममें से ज्यादातर या तो इस पुरस्कार के समर्थन में होंगे या उन्हें इससे फर्क नहीं पड़ता होगा और दरअसल सरकारें भी तो यही दशा बनाये रखना चाहती हैं कि या तो सिनेमा केवल सतही मनोरंजन परोसे या फिर उसके होने या न होने का फर्क ही न पड़े।
ज्यादा न भी कहूं तो सितंबर में बहसतलब में फिल्म के निर्देशक अभिनव के बड़े भाई और प्रसिद्ध निर्देशक अनुराग कश्यप से बात करते हुए दबंग के जिक्र पर अनुराग ने मुझसे जो कहा, वो आपको बताता हूं। अनुराग ने स्पष्ट कहा कि, “फिल्म की शुरुआती स्क्रिप्ट बिल्कुल अलग थी। शायद काफी संजीदा… लेकिन सलमान को अभिनेता और अरबाज का निर्माता बनाने के अलग साइड इफेक्ट्स होते हैं। उनकी शर्तों पर फिल्म बनती है। और वो कितने बौद्धिक होते हैं, इस पर फिल्म का संजीदा होना निर्भर करता है। तब आप शायद केवल मुनाफा कमाने के लिए काम करते हैं। मैं अभिनव से अपनी तरह की फिल्म बनाकर और घाटा सहने को नहीं कह सकता। हालांकि मैं उस अभिनेता को लेकर फिल्म भी नहीं बना सकता, जिसे नहलाना बोलने तक सा सलीका न हो, जो नहलाऊंगा को निलाऊंगा बोलता हो…”
अनुराग के थोड़े कहे को ज्यादा समझना होगा। दरअसल हमें ये तय तो करना ही होगा कि फिल्में अगर मनोरंजन का माध्यम भी हैं, तो संपूर्ण मनोरंजन की परिभाषा और उसके पैमाने क्या होंगे। क्या हम जब संपूर्ण मनोरंजन की बात करेंगे तो फिल्म का संदेश, कथानक और स्तर उसमें से निकाल देंगे और फिर इस आधार पर भी दबंग से ज्यादा बेहतर फिल्में पिछले साल बनी होंगी, क्यों न इस पुरस्कार का नाम बदल कर साल की सर्वश्रेष्ठ बाजारू फिल्म, सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय फिल्म या सर्वाधिक कमाऊ फिल्म रख दें। जाहिर है, सरकार भी कॉर्पोरेट शैली में काम कर रही है। जो ज्यादा कमाएगा, उसी का सम्मान होगा… बाकी कर्म करें, फल की इच्छा नहीं।
(मयंक सक्सेना। युवा आंदोलनी पत्रकार। लखनऊ विश्वविद्यालय से पोस्ट ग्रैजुएट। माखन लाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से ब्रॉडकास्ट जर्नलिज्म में एमए। सीएनईबी और यूएनआई टीवी से जुड़े रहे। फिलहाल आजाद हैं। उनसे mailmayanksaxena@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
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