24 October 2012
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♦ गेल आम्वेट
यह लेख फारवार्ड प्रेस के अक्टूबर अंक में छपा है। इस लेख से एक बात तो
साफ होती है कि अंबेडकर भारतीय धर्मों में ही कोई ऐसी जगह तलाश रहे थे,
जहां अछूतों के लिए भी बराबरी की जगह हो। ईसाइयत और इस्लाम से अलग भारतीय
परंपरा में सिक्ख धर्म की ओर उनके कदम बढ़े, लेकिन अंतत: बौद्ध धर्म
उन्हें सबसे सटीक लगा। इस लेख में उनकी धार्मिक खोज के एक प्रसंग का
उल्लेख किया गया है : मॉडरेटर
…सन 1936 के आसपास, सिक्ख धर्म के प्रति अंबेडकर का आकर्षण हमें पहली बार दिखलाई देता है। यह आकर्षण अकारण नहीं था। सिक्ख धर्म भारतीय था और समानता में विश्वास रखता था। और अंबेडकर के लिए ये दोनों बातें महत्वपूर्ण थीं। अंबेडकर को इस बात का एहसास था कि हिंदू धर्म के “काफी नजदीक” होने के कारण, सिक्ख धर्म अपनाने से उन हिंदुओं में भी अलगाव का भाव पैदा नहीं होगा, जो कि यह मानते हैं कि धर्मपरिवर्तन से विदेशी धर्मों की ताकत बढ़ेगी। सन 1936 में अंबेडकर, हिंदू महासभा के अखिल भारतीय अध्यक्ष डाक्टर मुंजे से मिले और उन्हें इस संबंध में अपना एक विचारों पर आधारित एक वक्तव्य सौंपा। बाद में यह वक्तव्य, एमआर जयकर, एमसी राजा व अन्यों को भी सौंपा गया। यह दिलचस्प है कि जहां डाक्टर मुंजे ने कुछ शर्तों के साथ अपनी सहमति दे दी, वहीं गांधी ने सिक्ख धर्म अपनाने के इरादे की कड़े शब्दों में निंदा की।
अप्रैल 1936 में अंबेडकर अमृतसर पहुंचे, जहां उन्होंने सिक्ख मिशन द्वारा अमृतसर में आयोजित सम्मेलन में भाग लिया। उन्होंने कई भीड़ भरी सभाओं को संबोधित किया। उन्होंने सम्मेलन में कहा कि हिंदू धर्म त्यागने का निर्णय तो ले लिया है, परंतु अभी यह तय नहीं किया है कि वे कौन सा धर्म अपनाएगें। इस सम्मेलन में उनका भाग लेना, “जात-पात तोड़क मंडल” को नागवार गुजरा। मंडल ने उन्हें लाहौर में आयोजित अपने सम्मेलन में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया था, परंतु आयोजक चाहते थे कि वे अपने भाषण से वेदों की निंदा करने वाले कुछ हिस्से हटा दें। अंबेडकर ने ऐसा करने से इंकार कर दिया और भाषण को “जाति का विनाश” शीर्षक से स्वयं ही प्रकाशित करवा दिया। इस भाषण में, एक स्थान पर वे कहते हैं, “सिक्खों की राजनीतिक क्रांति के पहले, गुरु नानक के नेतृत्व में, धार्मिक व सामाजिक क्रांति हुई थी।” महाराष्ट्र के “सुधारवादी” भक्ति आंदोलन के विपरीत वे सिक्ख धर्म को क्रांतिकारी मानते थे। अंबेडकर का तर्क यह था कि सामाजिक व राजनीतिक क्रांति से पहले, मस्तिष्क की मुक्ति, दिमागी आजादी जरूरी हैः “राजनीतिक क्रांति हमेशा सामाजिक व धार्मिक क्रांति के बाद ही आती है”।
उस समय, सिक्ख धर्म को चुनने के पीछे के कारण बताने वाला उनका वक्तव्य दिलचस्प है। “शुद्धतः हिंदुओं के दृष्टिकोण से अगर देखें तो ईसाइयत, इस्लाम व सिक्ख धर्मों में से सर्वश्रेष्ठ कौन सा है? स्पष्टतः सिक्ख धर्म। अगर दमित वर्ग, मुसलमान या ईसाई बनते हैं तो वे न केवल हिंदू धर्म छोड़ेंगे बल्कि हिंदू संस्कृति को भी त्यागेंगे। दूसरी ओर, अगर वे सिक्ख धर्म का वरण करते हैं तो कम से कम हिंदू संस्कृति में तो वे बने रहेंगे। यह हिंदुओं के लिए अपने-आप में बड़ा लाभ है। इस्लाम या ईसाई धर्म कुबूल करने से, दमित वर्गों का अराष्ट्रीयकरण हो जावेगा। अगर वो इस्लाम अपनाते हैं तो मुसलमानों की संख्या दोगुनी हो जाएगी और देश में मुसलमानों का प्रभुत्व कायम होने का खतरा उत्पन्न हो जावेगा। दूसरी ओर, अगर वे ईसाई धर्म को अपनाएंगे तो उसके ब्रिटेन की भारत पर पकड़ और मजबूत होगी।”
उस दौर में बहस का एक विषय यह भी था कि क्या सिक्ख (या कोई और) धर्म अपनाने वालों को पूना पैक्ट या अन्य कानूनों के तहत अनुसूचित जाति के रूप में उन्हें मिलने वाले अधिकार मिलेंगे। मुंजे का कहना था कि सिक्ख धर्म अपनाने वालों को ये अधिकार मिलते रहेंगे।
अंततः, 18 सितंबर 1936 को अंबेडकर ने अपने अनुयायियों के एक समूह को सिक्ख धर्म का अध्ययन करने के लिए अमृतसर के सिक्ख मिशन में भेजा। वे लोग वहां अपने जोरदार स्वागत से इतने अभिभूत हो गये कि – अपने मूल उद्देश्य को भुलाकर – सिक्ख धर्म अपना लिया। उसके बाद उनके क्या हाल बने, यह कोई नहीं जानता।
सन 1939 में बैसाखी के दिन, अंबेडकर ने अपने अनुयायियों के साथ अमृतसर में अखिल भारतीय सिक्ख मिशन सम्मलेन में हिस्सेदारी की। वे सब पगड़ियां बांधे हुए थे। अंबेडकर ने अपने एक भतीजे को अमृत चख कर खालसा सिक्ख बनने की इजाजत भी दी।
बाद में, अंबेडकर और सिक्ख नेता मास्टर तारा सिंह के बीच मतभेद पैदा हो गये। तारा सिंह, निस्संदेह, अंबेडकर के राजनीतिक प्रभाव से भयभीत थे। उन्हें डर था कि अगर बहुत बड़ी संख्या में अछूत सिक्ख बन गये तो वे मूल सिक्खों पर हावी हो जाएंगे और अंबेडकर, सिक्ख पंथ के नेता बन जाएंगे। यहां तक कि, एक बार अंबेडकर को 25 हजार रुपये देने का वायदा किया गया परंतु वे रुपये अंबेडकर तक नहीं पहुंचे बल्कि तारा सिंह के अनुयायी, मास्टर सुजान सिंह सरहाली को सौंप दिए गये।
इस प्रकार, अपने जीवन के मध्यकाल में अंबेडकर का सिक्खों और उनके नेताओं से मेल-मिलाप बढ़ा और वे सिक्ख धर्म की ओर आकर्षित भी हुए। यह जानना महत्वपूर्ण है कि अंततः उन्होंने सिक्ख धर्म से मुख क्यों मोड़ लिया।
निस्संदेह, इसका एक कारण तो यह था कि अंबेडकर इस तथ्य से अनजान नहीं थे कि सिक्ख धर्म में भी अछूत प्रथा है। यद्यपि, सिद्धांत में सिक्ख धर्म समानता में विश्वास करता था तथापि दलित सिक्खों को – जिन्हें मजहबी सिक्ख या ‘रविदासी’ कहा जाता था – अलग-थलग रखा जाता था। इस प्रकार, सिक्ख धर्म में भी एक प्रकार का भेदभाव था। सामाजिक स्तर पर, पंजाब के अधिकांश दलित सिक्ख भूमिहीन थे और वे प्रभुत्वशाली जाट सिक्खों के अधीन, कृषि श्रमिक के रूप में काम करने के लिए बाध्य थे।
असल में, जिन कारणों से अंबेडकर सिक्ख धर्म की ओर आकर्षित हुए थे, उन्हीं कारणों से उनका उससे मोहभंग हो गया। अगर सिक्ख धर्म “हिंदू संस्कृति का हिस्सा” था, तो उसे अपनाने में क्या लाभ था? जातिप्रथा से ग्रस्त “हिंदू संस्कृति’ पूरे सिक्ख समाज पर हावी रहती। सिक्ख धर्म के अंदर भी दलित, अछूत ही बने रहते – पगड़ी पहने हुए अछूत।
अंबेडकर को लगने लगा के बौद्ध धर्म इस मामले में भिन्न है। सिक्ख धर्म की ही तरह वह “विदेशी” नहीं बल्कि भारतीय है और सिक्ख धर्म की ही तरह, वह न तो देश को विभाजित करेगा, न मुसलमानों का प्रभुत्व कायम करेगा और न ही ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के हाथ मजबूत करेगा।
बौद्ध धर्म में शायद एक तरह की तार्किकता थी, जिसका सिक्ख धर्म में अभाव था। अंबेडकर, बुद्ध द्वारा इस बात पर बार-बार जोर दिये जाने से बहुत प्रभावित थे कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने अनुभव और तार्किकता के आधार पर, अपने निर्णय स्वयं लेने चाहिए – अप्प दीपो भवs (अपना प्रकाश स्वयं बनो)। इस तरह, अंबेडकर का, सिक्ख धर्म की तुलना में, बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षण अधिक शक्तिशाली और स्थायी साबित हुआ। यद्यपि बौद्ध धर्म उतना सामुदायिक समर्थन नहीं दे सकता था जितना कि सिक्ख धर्म परंतु बौद्ध धर्म को अंबेडकर, दलितों की आध्यात्मिक और नैतिक जरूरतों के हिसाब से, नये कलेवर में ढाल सकते थे। सिक्खों का धार्मिक ढांचा पहले से मौजूद था और अंबेडकर चाहे कितने भी प्रभावशाली और बड़े नेता होते, उन्हें उस ढांचे के अधीन रहकर ही काम करना होता।
इस तरह, अंततः, अंबेडकर और उनके लाखों अनुयायियों के स्वयं के लिए उपयुक्त धर्म की तलाश बौद्ध धर्म पर समाप्त हुई और सिक्ख धर्म पीछे छूट गया।
http://mohallalive.com/2012/10/24/when-ambedkar-almost-became-a-sikh/
badhiya rachna
ReplyDeletebilkul sahi hai
ReplyDeleteअम्बेडकर जी की दो किताब शुद्रो की खोज ओर अच्छुत कौन ओर केसे की कुछ वेद विरुद्ध विचारधारा का उन्होंने खंडन किया था | ये उन्होंने अम्बेडकर जी के देह्वास के ५ साल पूर्व भ्रान्ति निवारण एक १६ पृष्ठीय आलेख के रूप में प्रकाशित किया ओर अम्बेडकर साहब को भी इसकी एक प्रति भेजी थी | हम यहा उसके कुछ अंश प्रस्तुत करते है – डा. अम्बेडकर – आर्य लोग निर्विवाद से दो संस्कृति ओर दो हिस्सों में बटे थे जिनमे एक ऋग्वेद आर्य ओर दुसरे यजुर्वेद आर्य थे ,जिनके बीच बहुत बड़ी सांस्कृतिक खाई थी | ऋग्वेदीय आर्य यज्ञो में विश्वास करते थे ओर अर्थ्व्वेदीय जादू टोनो में | प. शिव पूजन सिंह जी – दो आर्यों की कल्पना आपके ओर आप जेसे कुछ मष्तिस्क की उपज है ,ये केवल कपोल कल्पना ओर कल्पना विलास है केवल | इसके पीछे कोई एतिहासिक प्रमाण नही है | कोई एतिहासिक विद्वान् भी इसका समर्थन नही करता है | अर्थववेद में किसी प्रकार का जादू टोना नही है | डा. अम्बेडकर – ऋग्वेद में आर्य देवता इंद्र का सामना उसके शत्रु अहि वृत्र (सर्प देवता ) से होता है ,जो कालान्तर में नाग देवता के नाम से प्रसिद्ध हुआ | प.शिव पूजन सिंह जी – वैदिक संस्कृत ओर लौकिक संस्कृत में रात दिन का अंतर है | यहा इंद्र का अर्थ सूर्य ओर वृत्र का अर्थ मेघ है यह संघर्स आर्य देवता ओर नाग देवता का न हो कर सूर्य ओर मेघ का है | वैदिक शब्दों के पीछे नेरुक्तिको का ही मत मान्य होता है नेरुक्तिक प्रक्रिया से अनभिज्ञ होने के कारण आपको यह भ्रम हुआ | डा. अम्बेडकर – महोपाध्याय डा. काणे का यह मत है कि – ” गाय की पवित्रता के कारण ही वाजसेनी संहिता में गौ मॉस भक्षण की प्रथा थी | प.शिवपूजन सिंह जी – काणे जी ने कोई प्रमाण नही दिया है ओर न ही आपने यजुर्वेद पढने का कष्ट उठाया | जब आप यजुर्वेद का स्वाध्याय करेंगे तो स्पष्ट आपको गौ वध निषेध के प्रमाण मिलेंगे | डा. अम्बेडकर – ऋग्वेद से ही स्पष्ट है कि तत्कालीन आर्य गौ वध करते थे ओर गौ मॉस भक्षण करते थे | प. शिवपूजन सिंह जी – कुछ प्राच्य एवम पश्चमी विद्वान् आर्यों पर गौ मॉस भक्षण का दोषारोपण करते है किन्तु कुछ विद्वान् इस मत का खंडन भी करते है | वेद में गौ मॉस भक्षण का विरोध करने वाले २२ विद्वानों का मेरे पास स सन्धर्भ प्रमाण है | ऋग्वेद में आप जो गौ मॉस भक्षण का विधान आप कह रहे है वो लौकिक संस्कृत ओर वैदिक संस्कृत से अनभिज्ञ होने के कारण कह रहे है | जेसे वेद में उक्ष बल वर्धक औषधि का नाम है भले ही लौकिक अर्थ उसका बैल ही क्यूँ न हो | डा. अम्बेडकर – बिना मॉस के मधु पर्क नही हो सकता है | मधुपर्क में मॉस और विशेष रूप से गौ मॉस एक आवश्यक अंश होता है | प.शिवपूजन सिंह जी – आपका यह विधान वेद पर नही अपितु गृहसूत्रों पर आधारित है | गृहसूत्रों के वचन वेद विरोध होने से मान्य नही है | वेद को स्वत: प्रमाण मानने वाले मह्रिषी दयानद के अनुसार – दही में घी या शहद मिलाना मधुपर्क कहलाता है | उसका परिमाण १२ तौले दही में ४ तौले शहद या घी मिलाना है | डा. अम्बेडकर – अतिथि के लिए गौ हत्या की बात इतनी समान्य हो गयी थी कि अतिथि का नाम ही गौघन पड़ गया था अर्थात गौ की हत्या करने वाला |प. शिवपूजन सिंह जी – ” गौघ्न”का अर्थ गौ की हत्या करने वाले नही है | यह शब्द गौ और हन दो के योग से बना है | गौ के अनेक अर्थ है – वाणी,जल ,सुखविशेष ,नेत्र आदि | धातुपाठ में मह्रिषी पाणिनि हन का अर्थ गति ओर हिंसा बतलाते है | गति के अर्थ है – ज्ञान ,गमन ,प्राप्ति | प्राय सभी सभ्य देशो में जब कभी किसी के घर अतिथि आता है तो उसके स्वागत करने के लिए ग्रह पति घर से बहार आते हुए कुछ गति करता है ,उससे मधुर वाणी में बोलता है | फिर उसका जल से स्वागत करता है , फिर उसके लिए कुछ अन्य सामग्री प्रस्तुत करता है ,यह जानने के लिए की प्रिय अतिथि इन सत्कारो से प्रसन्न है या नही गृहपति की आँखे भी उसकी ओर टकटकी लगाये होती है | गौघ्न का अर्थ हुआ – गौ: प्राप्यते दीयते यस्मै स गौघ्न: अर्थत जिसके लिए गौदान दी जाती है , वह गौघ्न कहलाता है | डा. अम्बेडकर- हिन्दू चाहे ब्राह्मण हो या अब्राह्मण ,न केवल मासाहारी थे अपितु गौमासाहार भी थे | प.शिवपूजन सिंह जी -ये बात आपकी भ्रम है , वेदों में गौ मॉस भक्षण का विधान की बात जाने दीजिये मॉस भक्षण भी नही है | डा. अम्बेडकर – मनु ने भी गौ हत्या पर कोई कानून नही बनाया बल्कि विशेष अवसरों पर उसने गौ मॉस भक्षण को उचित ठहराया है | प.शिवपूजन सिंह जी – मनु स्मृति में कही भी मॉसभक्षण का विधान नही है ओर जो है वो प्रक्षिप्त है | आपने भी इस बात का कोई प्रमाण नही दिया की मनु ने कहा पर गौ मॉस भक्षण उचित ठहराया है | मनु (५/५१) के अनुसार मॉस खाने वाला ,पकाने वाला ,क्रय ,विक्रय करने वाला इन सबको घातक कहा है | ये उपरोक्त खंडन के कुछ अंश थे इसमें पूर्व पक्ष अम्बेडकर का अछूत कौन ओर कैसे से था |
ReplyDeleteअंबेडकरवादी बौद्ध नही बल्कि बौद्ध समाज के नाम पर कलंक है
ReplyDeleteअंबेडकरवादी अपने आप को चाहे जितना भी बौद्धिष्ट होने का दावा पेश करे किन्तु वे बौद्ध के नाम पर कलंक से ज्यादा कुछ नही है और आने वाले भविष्य मे अगर बौद्ध को बदनामी मिलती है तो इसका श्रेय केवल अंबेडकरवादियो को जाएगा |
गौतम से लेकर अब भी समाज मे जितने भी बौद्धाचार्य है उनसे से कोई भी वेद से मुह नही मोड़ता वेद को सभी स्वीकार करते है | जब गौतम बुद्ध ने वेद का अध्ययन किया तो उन्होने पाया की वेद के नाम पर समाज मे बहुत कुछ गलत हो रहा है अतः उन्हे ऐसे लोगो की निन्दा की जो वेद के नाम पर गलत करते है | इसके बाद बुद्ध उपनी शिक्षा मे कहते है “ जो लोग वेद से धर्म का ज्ञान प्राप्त करते है वे कभी विचलित नही होते ” --- प्रमाण सुत्तनिपात 292 | गौतम बुद्ध को वेद मे इतनी विश्वास था लेकिन ये अंबेडकरवादी ??? वेद का नाम सुनते ही जैसे इनकी .... मर जाती है | वेद का नाम सुनते ही अंबेडकरवादी अपना मनगढ़ंत इतिहास और मूर्खता से परिपूर्ण आक्षेप , अपने महापुरूषो और क्रान्तिकारीयो को बदनाम करने मे कोई कसर नही छोड़ते है | एक तरफ तो गौतम बुद्ध है जितना वेद मे इतना आस्था है और दुसरी तरफ ये अंबेडकरवादी जो वेद के नाम से चिढ़ते है ??? दोनो मे सच्चा कौन है गौतम बुद्ध या अंबेडकरवादी ???
गौतम बुद्ध के जो मुख्य सिद्धान्त है उनका नाम है -- १) चार आर्य सत्य , २) आर्य अष्टागिंक मार्ग
यानी गौतम बुद्ध भी आर्य शब्द का अर्थ श्रेष्ठ लेते है जो की वास्तविक है | अब अंबेडकरवादी आर्य शब्द का अर्थ बाहरी शत्रु लेते है | एक अंबेडकरवादी Jeetendra Awachar की आर्य शब्द की व्याख्या आपलोगो के सामने रख रहा हूँ ---- आर्य शब्द ' अरि ' इस शब्द से बना है , अरि = शत्रु यानी आर्य का अर्थ बाहरी आक्रमक शत्रु है |
अब मुझे कोई अंबेडकरवादी ये बताए की गौतम बुद्ध का बताया हुआ सत्य है या अंबेडकरवादियो का ?????
अगर गौतम बुद्ध गलत है और अंबेडकरवादी का अर्थ सही है तो गौतम बुद्ध के सिद्धान्त का अर्थ हुआ
१) चार आर्य सत्य = चार बाहरी आक्रमक शत्रु सत्य
२) आर्य अष्टागिंक मार्ग = बाहरी आक्रमक शत्रु अष्टागिंक मार्ग
ये बताओ सच्चा कौन गौतम बुद्ध या अंबेडकरवादी ???
अंबेडकरवादी बौद्ध नही बल्कि बौद्ध के नाम पर कलंक है ये ब्राह्मण विरोधी, नास्तिक ( वेद निन्दक ) , कुतर्की, हठी , दुराग्रही, सत्य विरोधी और मूर्खता भरी इतिहास से परिपूर्ण है |