प्रगतिशील लेखक संघ और प्रगतिशील लेखकों ने हिंदी में दलित लेखन के लिए आधारभूमि प्रदान की है। इन्होंने न तो कभी दलितों का और न ही दलित लेखन का विरोध किया। प्रेमचंद दरअसल उस समय लिख रहे थे, जब समाज में चारों तरफ धर्मांधता थी, अंधविश्वास था। लेकिन उन्होंने अपने साहित्य में जिस तरह से दलितों की पीड़ा को शब्द दिए, उसने वस्तुतः कई दलित लेखकों के लिए प्रेरणा का काम किया है। बेशक दलित समाज ने अतीत में काफी कुछ भोगा है, लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं कि इसके लिए आज गैर दलितों को गाली दी जाए।
प्रलेस, प्रेमचंद और डॉ नामवर सिंह को गाली देनेवाले डॉ धर्मवीर और श्यौराज सिंह बेचैन जैसे लोग वस्तुतः मनोरोगी हैं। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि इन लोगों ने न सिर्फ गैरदलित लेखकों, बल्कि दलित महिला रचनाकारों के लिए भी लेखन में अपशब्दों का प्रयोग किया है। उदाहरण के लिए, डॉ धर्मवीर ने अपनी आत्मकथा मेरी पत्नी और भेड़िया में अपनी पत्नी के बारे में काफी अनाप-शनाप लिखा है। रमणिका गुप्ता, कौशल्या वैश्यंत्री, विमल थोराट एवं अनीता भारती जैसी कई दलित लेखिकाओं के लिए इन्होंने गंदे और असांविधानिक शब्दों का प्रयोग किया है।
इतना ही नहीं, डॉ धर्मवीर ने मेरी किताब मुर्दहिया की समीक्षा करते हुए मेरी मां के बारे में एक मनगढ़ंत कहानी भी जोड़ दी है। श्यौराज सिंह बेचैन उन्हीं के पदचिह्नों पर चलते हैं। ये ऐसे आत्ममुग्ध लोग हैं, जो केवल अपनी ही रचनाओं को महान और कालजयी, न जाने, क्या-क्या बताते हैं और दुनिया के बाकी साहित्य को पढ़ने की जरूरत भी नहीं समझते। यह सभी जानते हैं कि हिंदी में दलित लेखन के लिए मराठी दलित साहित्य ने प्रेरणा का काम किया, लेकिन विद्रूप देखिए कि ये लोग अब उसे भी नकार रहे हैं। इन्हें तो समाज व्यवस्था का भी ज्ञान नहीं है।
यदि इन लोगों ने वाकई समाज रचना के प्राचीन इतिहास का अध्ययन किया होता, तो इन्हें पता चलता कि जब वर्णवादी व्यवस्था की स्थापना हो रही थी, उस समय ब्राह्मण समाज के ही सैकड़ों लोगों ने इसका विरोध किया था। यह अलग बात है कि वे इसमें सफल नहीं रहे, क्योंकि वर्णवादी व्यवस्था की वकालत करने वालों को राजा का संरक्षण प्राप्त था। राज परिवार से होने के बावजूद स्वयं बुद्ध ने वर्णवादी व्यवस्था और वैदिक संस्कृति का विरोध किया था। मौर्य और गुप्त शासन काल में न केवल जातिगत भेदभाव प्रतिबंधित था, बल्कि उसके उल्लंघन पर दंड की भी व्यवस्था थी। लेकिन ये बुद्ध का भी विरोध करते हैं और अंबेडकर की भी आलोचना करते हैं।
दरअसल इनमें और संघ परिवार के लोगों में कोई अंतर नहीं है, जिस तरह संघ परिवार के लोग नए ढंग से इतिहास की पुनर्रचना करना चाहते हैं, उसी तरह ये भी नए सिरे से दलित इतिहास लिखना चाहते हैं। प्रगतिशील लेखकों को गाली देने वाले इन लोगों से पूछा जाना चाहिए कि संघ परिवार के खिलाफ ये कभी कुछ क्यों नहीं लिखते, जिसने राजग शासन के दौरान पाठ्यपुस्तकों में मनमाना बदलाव किया था।
गांधी अगर नहीं होते, तो दलितों को जो सांविधानिक आरक्षण मिला हुआ है, वह भी नहीं मिल पाता, क्योंकि बहुत सारे धार्मिक एवं दक्षिणपंथी नेता उसका विरोध कर रहे थे। अंबेडकर के सेपरेट इलेक्ट्रोल (पृथक निर्वाचन) की मांग पर गांधी के मतभेद के चलते ये लोग अब तक गांधी को गाली देते हैं। जबकि अंबेडकर ने भी बाद में इसे इसलिए छोड़ दिया कि यह भविष्य में भारतीय समाज के लिए ठीक नहीं होगा। प्रेमचंद ने अगर गांधी को अपना राजनीतिक आदर्श चुना, तो इसकी मुख्य वजह है कि वह अंतरराष्ट्रीय हस्ती बन चुके थे और उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे। लेनिन ने भी उनकी प्रशंसा की थी। गांधी की स्वीकृति पूरे भारतीय समाज में थी।
व्यक्तिगत स्तर पर भी ये लोग इतने एहसान फरामोश हैं कि करियर और साहित्य के शुरुआती दौर में मदद करने वाले नामवर सिंह और राजेंद्र यादव को भी गाली देते हैं। इन्हें गंभीरता से लेने की जरूरत ही नहीं है।
कैसे कैसे इस जगह यह भी पढ़ने को मिल गया…सोचने की बात है…
ReplyDeleteसभी को एक तराजु मे तोलना ठीक नही हैं
ReplyDeleteसभी को एक तराजु मे तोलना ठीक नही हैं
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