गुरुवार, 29 सितंबर, 2011 को 15:25 IST तक के समाचार
बालमुकुंद की मां का आरोप है कि अध्यापकों के बुरे व्यवहार की वजह से उनके बेटे ने अपनी जान ली
भारत के बड़े कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में दाख़िला मिलना पिछड़ी जाति के छात्रों के लिए एक बेहतर ज़िन्दगी शुरू करने का ज़रिया है. पर वहां पढ़ाई करना अक़्सर सुखद अनुभव नहीं होता.
एक ग़ैर-सरकारी संस्था के मुताबिक वर्ष 2007 से भारत में बड़े शिक्षण संस्थानों में पढ़ रहे पिछड़ी जाति के 18 छात्र आत्महत्या कर चुके हैं. इनमें से दो मामले इसी वर्ष के हैं.बीबीसी ने जब राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग में निदेशक ध्रुव कुमार से बात की तो उन्होंने कहा कि आयोग में भी छात्रों की ओर से ऐसी कई शिकायतें आई हैं.
ध्रुव कुमार ने बताया, कि पहले समझ ये थी कि आरक्षण के तहत दाख़िला होना सबसे अहम् है, लेकिन पिछले छे साल से नई चुनौती सामने आई है कि दाख़िले के बाद शिक्षण संस्थानों में छात्रों को भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है.
उन्होंने कहा, “यहां जो छात्र आते हैं वो कहते हैं कि उनपर पिछड़ी जाति का होने की वजह से अत्याचार हो रहा है और उनके अध्यापक उन्हें ठीक से जांचते नहीं हैं, परीक्षाओं में बैठने नहीं देते, क्योंकि वो ज़्यादातर अध्यापक ऊंची जाति के हैं.”
कुमार ने कहा कि अब आयोग, शिक्षण संस्थानों और छात्रों के परिवारों से बातचीत और विशेष कार्यक्रमों के ज़रिए इस मुद्दे पर बेहतर समझ बनाने के प्रयास की योजना बना रहा है.
बालमुकुन्द की आत्महत्या
"यहां जो छात्र आते हैं वो कहते हैं कि उनपर पिछड़ी जाति का होने की वजह से अत्याचार हो रहा है और उनके अध्यापक उन्हें ठीक से जांचते नहीं हैं."
ध्रुव कुमार, निदेशक, राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग
लेकिन अपनी पढ़ाई के तीसरे और आखिरी साल, वर्ष 2010 में बालमुकुंद ने अपने हॉस्टल के कमरे में पंखे से लटककर आत्महत्या कर ली.
बालमुकुंद के पिता, गुलाब चन्द बताते हैं कि उनका 25 वर्षीय बेटा जाति के आधार पर किए जा रहे अत्याचार को सह नहीं पाया और बहुत समझाने-बुझाने के बावजूद उसने आख़िरकार ये कदम उठा लिया.
गुलाब चन्द ने कहा, “वो मुझे कहता था कि उसे अपनी जाति का बहुत दबाव रहता है, उसके अध्यापक उसे परेशान करते हैं और नीचा दिखाते हैं जिस वजह से उसकी पढ़ाई पर भी असर पड़ता है.”
लेकिन एम्स प्रशासन इन आरोपों से इनकार करता है.
जब बीबीसी ने एम्स के प्रवक्ता, डॉ. वाई पी गुप्ता से बात की तो उन्होंने कहा कि उनके संस्थान में जाति के आधार पर बिल्कुल कोई भेदभाव नहीं किया जाता.
लेकिन ये भी सच है कि बालमुकुंद की आत्महत्या से तीन साल पहले एक सरकारी जांच ने इसी संस्थान में छात्रों के साथ जाति के आधार पर भेदभाव के आरोपों को सही पाया था.
थोराट कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में भेदभाव कम करने और छात्रों और अध्यापकों के बीच सोहार्द बढ़ाने के लिए कुछ कदम भी सुझाए थे.
लेकिन डॉ. वाई पी गुप्ता ने खुद को इस रिपोर्ट और उसके सुझावों से अनजान बताया.
आरक्षण का प्रभाव
भारत के संविधान के मुताबिक क़रीब एक चौथाई सीटें पिछड़ी जाति के छात्रों के लिए आरक्षित की जाती हैं ताकि कुछ कम नंबर आने पर भी वो दाखिला ले सकें.लेकिन इस प्रावधान का पुरज़ोर विरोध भी हुआ है. पिछड़ी जाति के छात्र खुद बताते हैं कि रियायत की वजह से उन्हें क़ाबिल और लायक नहीं समझा जाता.
बालमुकुंद के दोस्त, डॉ अजय कुमार सिंह भी पिछड़ी जाति के हैं और अब एम्स से पढ़ाई पूरी कर चुके हैं.
"“आरक्षण हमें अवसर दे सकता है लेकिन लोगों की सोच उससे नहीं बदलेगी, उसके लिए समाज की ओर से कोशिश होनी ज़रूरी है, एक बड़े राजनीतिक-सामाजिक बदलाव की.”"
अनूप कुमार, 'इनसाइट फाउंडेशन'
अजय के मुताबिक अध्यापक ये नहीं समझते कि संस्थान में आने वाले पिछड़ी जाति के छात्र अपने समुदाय में सबसे निपुण हैं, और संस्थान में उन्हें उच्च जाति के छात्रों के स्तर तक आने में मदद की जानी चाहिए ना कि तिरस्कार.
पिछड़ी जाति के छात्रों में आत्महत्या के वाक़्यों की जानकारी जुटाई एक स्वयंसेवी संस्था, ‘इनसाइट फाउंडेशन’ ने.
ये संस्था पिछड़ी जाति के छात्रों को शिक्षा से जुड़ी जानकारी देने, भेदभाव से जुड़ी दिक्कतों में सलाह देने के लिए एक वेबसाइट और टेलीफोन हेल्पलाइन चलाती है.
इसे चलाने वाले अनूप कुमार कहते हैं, “आरक्षण हमें अवसर दे सकता है लेकिन लोगों की सोच उससे नहीं बदलेगी, पढ़े-लिखे लोगों की भी नहीं, उसके लिए समाज की ओर से कोशिश होनी ज़रूरी है, एक बड़े राजनीतिक-सामाजिक बदलाव की.”
अनूप ख़ुद पिछड़ी जाति के हैं और मानते हैं कि आरक्षण की नीति बहुत लाभदायक है क्योंकि वो उनके वर्ग के युवा को बेहतर मौके मुहैया कराती है. लेकिन साथ ही उनका कहना है कि ये उच्च वर्ग में रोष पैदा करती है और जब तक भेदभाव की मानसिकता नहीं बदलेगी, पिछड़ी जाति के लोग मुख्यधारा में नहीं आ सकेंगे.
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2011/09/110929_caste_suicide_da.shtml
एम्स से बढ़ कर दूसरी कोई संस्था नहीं जो जातिवाद को बढ़ावा देती हो. यहाँ के डॉक्टरों के व्यवहार से कई बार जनता जान चुकी है कि वे ओबीसी की क्रीमी लेयर के विद्यार्थियों को भी बर्दाश्त नहीं करते. यदि कोई क्रीमी लेयर से नहीं है तो उसके साथ ये क्या कर गुजरेंगे पता नहीं. इधर-उधर के धार्मिक-सामाजिक खर्चों को बंद करके अपने मडिकल कालेज खोलने होंगे...हर प्रकार का संघर्ष करके.
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