ऐसे संत के चरणों में क्यों न झुकें हम!
हरिवंश
वर्ष 2009 में, दो दिसंबर को (पूर्णिमा) भरी सभा में उन्होंने बताया, कि अगले वर्ष यहां नहीं रहेंगे। यह संकेत, जो पा सकते थे, पा गये। आठ-दस माह पूर्व एक दिन उन्होंने स्वामी सत्संगी जी को बताया कि हमारी समाधि कहां रहेगी? किस मुद्रा में रहेगी? किस दिशा में चेहरा होगा? एक-एक बारीक बातें। विधान। इसके बाद फ़िर कन्या भोज के दिन न रहने की चर्चा की। पर सबसे आश्चर्य, जिस दिन समाधि ली, रात 10 बजे के बाद स्वामी सत्संगी जी को बुलाया। रात में वह अपनी कुटिया में अकेले रहते थे। लोग बताते थे कि रात को वह ध्यान-साधना में ही लीन रहते थे। स्वामी सत्संगी जी पहुंचीं। परमहंस जी पद्मासन में बैठे थे। कहा, अब जा रहा हूं। शोक नहीं। हमारी मान्यता है कि आत्मा अमर है। फ़िर गीता में कहा भी है कि शरीर क्या है, यह स्वामी जी ने बताया।
उनके चेहरे पर अद्भुत शांति और कांति थी। सत्संगी जी से कहा, बिल्कुल परेशान नहीं होना है। कुछ नहीं करना है। मौत, जीवन का अभिन्न अंग है। सरल-सहज। उन्होंने कहा, मौत के पूर्व कामना है कि इन्हीं आंखों से विराट का साक्षात्कार हो। स्वामी सत्संगी जी अंतिम दृश्य का उल्लेख करती हैं, उनके चेहरे पर अलौकिक और अपूर्व तेज था, जो विस्मृत नहीं होता। स्वामी जी ने जब शरीर छोड़ा, तब वह सिद्धासन मुद्रा में थे। योग की ऐसी स्थिति में आप बैठें, तन पर कोई वस्त्र न हो, तब भी शरीर के कुछ हिस्से नजरों से ओझल रहते हैं। उन्होंने बैठे-बैठे प्राण त्यागा। दृष्टि आसमान में। उनकी यह अंतिम तस्वीर समाचार पत्रों में छपी। इसी मुद्रा में उन्हें समाधि भी दी गयी। कई जगह विवरण पढ़ा था कि योगी इच्छा से शरीर भी छोड़ते हैं। गोपीनाथ कविराज और विश्वनाथ मुखर्जी की पुस्तकों में ऐसे योगियों की चर्चा है।
देर रात स्वामी जी ने शरीर त्यागा। स्वामी निरंजनानंद जी रात तीन बजे तक मुंगेर से रिखिया पहुंच चुके थे। सुना, स्वामी जी ने जब देह छोड़ने की बात की, तो स्वामी निरंजनानंद जी मुंगेर से रिखिया के लिए निकल चुके थे। वह रात तीन बजे के पहले रिखियापीठ में थे। स्वामी जी का इस तरह शरीर छोड़ना ही अद्भुत घटना है। जीवन का जो पक्ष हम नहीं जानते, उस पर एक रोशनी।
उनका जीवन ही विशिष्ट रहा। मोटे तौर पर उनके जीवन में 20-20 वर्षो का चक्र रहा। घर में 20 वर्ष रहे। 20 वर्षो तक ऋषिकेश में। स्वामी शिवानंद सरस्वती के साथ। कठोर तप, व्रत, संयम और श्रम। फ़िर मुंगेर में 20 वर्षों रहे। योग को विश्व में पहुंचाया। फ़िर रिखिया पहुंचे 89 के आसपास। यहां भी 20 वर्ष रहे। दिसंबर 2009 तक। इसे वह जागृत जगह मानते थे। पिछले माह दो दिसंबर को गांववालों से बहुत कुछ कहा? बड़े पैमाने पर बच्चे-बच्चियां थे। पूछा, तुम्हें साल में पांच बार ड्रेस कौन देता है? किताबें कौन देता है? अंग्रेजी सीखने, कंप्यूटर पढ़ने की व्यवस्था कौन करता है? फ़िर पूछा, तुम्हारा पिता कौन है? बच्चों ने कहा, आप! वहां बच्चों के मां-बाप बैठे थे। फ़िर स्वामी जी ने अभिभावकों से कहा, घर में शराब पीते हो? औरत पर अत्याचार करते हो? बच्चों को पीटते हो? घर की लक्ष्मी (पत्नी) को पीटते हो, पर उसे एक बाथरूम मुहैया नहीं करा सकते। यह सब बंद करो।
आज रिखिया पंचायत के लगभग 60,000 परिवारों का आश्रम से रिश्ता है। हर परिवार की जरूरत पर आश्रम गौर करता है। कंबल, जूता, बाल्टी, बरतन, कपड़े। शादी के बाद लड़कियों की विदाई, अपनी बेटी की तरह। साज-सामान के साथ। 2500 कन्याएं-बटुकों को आश्रम मदद करता है। देहात के बच्चे अंगरेजी-कंप्यूटर में पारंगत। उच्चारण अद्भुत ढंग से शुद्ध और सही। पिता रिक्शा चलाते हैं-ठेला लगाते हैं, बच्चे देश के श्रेष्ठ-महंगे स्कूलों के बच्चों की तरह ज्ञान संपन्न। पर उनसे अधिक संस्कारवान। वृद्ध लोगों को महीने में एक बार भोजन पर निमंत्रण। वृद्धों को परमहंस जी 'फ़ेलो ट्रेवलर्स' (साथी सहयात्री) पुकारते थे। नवरात्रि या शिवरात्रि जैसे विशिष्ट अवसरों पर भी वृद्ध आमंत्रित रहते थे।
यह सब आश्रम कहां से करता है? श्रद्धालुओं के सहयोग से। स्वामी जी की पुस्तकों की आमद से। कहीं कोई बड़ी राशि नहीं। जो आया सो गया। पर इन एक-एक चीजों का श्रेष्ठता से प्रबंध शैली और अनुशासन बेमिसाल है। परमहंस जी का एक और प्रोजेक्ट था। प्रदोष भोजन का। बच्चों को शाम का भोजन। विशालकाय किचेन बन कर तैयार है। कई हजार बच्चे एक साथ भोजन कर सकते हैं। साथ, पंगत में। स्वामी जी की समाधि की सूचना पाकर 42 देशों से लोग आये। हर कुछ इतना अनुशासित, स्वच्छ और सौंदर्य से भरा-पूरा। जबरदस्त भीड़, पर एक अलौकिक शांति का माहौल। आश्रम के लोग कहते हैं, परमहंस जी कहते थे, दो पंख हैं। योग और सेवा के। योग केंद्र, मुंगेर। सेवा केंद्र, रिखिया। हर जगह लोग समर्पण के साथ अपने-अपने काम में डूबे हैं। मौन रह कर काम में डूबे? क्या यही अनाशक्ति योग का व्यावहारिक चेहरा है?
आश्रम की सादगी, नैतिक भव्यता और अनुशासन देख कर बार-बार सवाल उठा। परमहंस के पास क्या था? राजपरिवार में पैदा हुए। फ़िर सब छोड़ दिया। फ़कीर बन गये। न सत्ता थी। न धन। न राज्य की कामना, न निजी इच्छा। एकांत साधना में रमे। घोर तप किया। पर जब समाधि ली, तो कम से कम पांच-सात पंचायतों के किसी घर में चूल्हा नहीं जला। 42 देशों के लोग आये। पूरे देश से श्रद्धालु पधारे। श्रेष्ठ साधकों ने संदेश दिया, इतना बड़ा अब कोई दूसरा साधक नहीं है। समाधि के दिन से ही देश-विदेश से हजारों स्त्री-पुरुष उमड़े। अलग-अलग धर्मो के। भिन्न-भिन्न परिवेशों से। आश्रम की ओर खींचे हुए, बहते हुए, खोजते हुए, जो जन प्रवाह देखा, वह एक अनुभव है। यह लोक ताकत है। आज यह लोक आस्था-श्रद्धा, कहां दिखाई पड़ती है? जिनके पास सत्ता, वैभव है, लोग उनकी परिक्रमा करते हैं। पर सत्ता-पैसा जाते ही कोई पूछनहारा नहीं। मन पूछता है, स्वामी जी के पास क्या लौकिक चीजें थीं? वह तो कभी-कभार ही मिलते थे? तन पर मामूली वस्त्र, एकांत साधना यही न! पर यहां यह जन सैलाब क्यों? क्योंकि संतों का जीवन ही दूसरों के लिए होता है। उनका जीवन तो और विशिष्ट रहा। वह देवत्व की श्रेणी में पहुंचे। जीते जी किंवदंती बन कर। चोला त्याग कर। समाधि लेकर। योग-सेवा का रास्ता दिखा कर। प्रचार संसार से दूर रह कर।
एक आदमी एक जीवन में इतना कुछ कर सकता है? परमहंस की उपलब्धियों को देख कर यकीन नहीं होता। पर वह तो परमहंस थे। ऋषि थे। इतनी पुस्तकें, इतनी संस्थाएं, दुनिया में योग का प्रचार। सेवा का काम। फ़िर सब छोड़-छाड़ दिया। एक चीज भी अपने पास नहीं। वहां के लोगों को लगता था कि कभी यहां से भी यह सब छोड़-छाड़ कर चल न दें। यह विरक्ति, वैराग्य, जीवन की अंतिम घड़ी-क्षण-पहर तक। संतों के संदर्भ में सुना था, परमार्थ (लोकहित) के कारण, साधुन धरा शरीर! परमार्थ के लिए ही परमहंस सत्यानंद जी ने जीवन जीया। उनके न रहने पर जिस तरह हर धर्म, समुदाय, देश-विदेश और विभिन्न क्षेत्रों के लोगों ने उन्हें स्मरण किया, यह उदार भारत का चेहरा है। उनकी हर बातचीत (जिसे खुद सुना) का सार था, भारत कैसे जगतगुरु बने। समृद्ध हो। आधुनिक हो। नैतिक हो। सामाजिक बुराइयों (जाति, धर्म वगैरह) से परे हो। उनकी समाधि के संदेश भी यही हैं।
[साभार; भड़ास4मीडिया]
(लेखक झारखंड के प्रमुख समाचार पत्र ‘प्रभात खबर’ के प्रधान संपादक हैं)
वीएचवी। 6 मार्च 2010.
http://www.vhv.org.in/story.aspx?aid=847
हरिवंश
एक आदमी एक जीवन में इतना कुछ कर सकता है, परमहंस की उपलब्धियां देख यकीन
नहीं होता; राजपरिवार में पैदा हुए, फिर सब छोड़ दिया, फकीर बन गए; एक
मित्र छुट्टी मना कर लौटे हैं। इजिप्ट, जॉर्डन वगैरह से। पिरामिड, ममी, डेड
सी जैसी चीजें देख कर। प्रकृति के विविध रहस्यों-रूपों से स्तब्ध। कई हजार
वर्षो पुराने रहस्य-तकनीक देख कर विस्मित। पर जब से रिखिया (देवघर) से मैं
लौटा, जीवन रहस्य देख कर निरूत्तर हूं। बनारस के विश्वविद्यालय प्रकाशन व
अनुराग प्रकाशन से छपी कुछ पुस्तकें पहले पढ़ी थीं। विश्वनाथ मुखर्जी की
भारत के महान योगी (8-10 खंडों में), डॉ भगवती प्रसाद सिंह की गोपीनाथ
कविराज जी पर मनीषी की लोकयात्रा और भारत के महान संतों-साधुओं-सन्यासियों-
वैरागियों का जीवन वृत्त। पर कई अविश्वसनीय प्रसंगों को पढ़ कर लगा कि क्या
ऐसा सचमुच संभव है? द्वंद्व का भाव। अविश्वास का बोध।
पाल ब्रंटन जैसे रेशनलिस्ट (बुद्धिवादी) की पुस्तकों (खासतौर से गुप्त भारत की खोज) को पढ़ कर भी कई चीजों पर सहजता से यकीन नहीं होता। पर परमहंस सत्यानंद सरस्वती का समाधिस्थ होना, तो जीवन-संसार को भिन्न दृष्टि से देखने के लिए विवश करता है। तब से यह प्रसंग मन-मस्तिष्क पर छाया है कि जीवन, जो हम जानते व देखते हैं, उससे कितना भिन्न-अलग है?
पाल ब्रंटन जैसे रेशनलिस्ट (बुद्धिवादी) की पुस्तकों (खासतौर से गुप्त भारत की खोज) को पढ़ कर भी कई चीजों पर सहजता से यकीन नहीं होता। पर परमहंस सत्यानंद सरस्वती का समाधिस्थ होना, तो जीवन-संसार को भिन्न दृष्टि से देखने के लिए विवश करता है। तब से यह प्रसंग मन-मस्तिष्क पर छाया है कि जीवन, जो हम जानते व देखते हैं, उससे कितना भिन्न-अलग है?
वर्ष 2009 में, दो दिसंबर को (पूर्णिमा) भरी सभा में उन्होंने बताया, कि अगले वर्ष यहां नहीं रहेंगे। यह संकेत, जो पा सकते थे, पा गये। आठ-दस माह पूर्व एक दिन उन्होंने स्वामी सत्संगी जी को बताया कि हमारी समाधि कहां रहेगी? किस मुद्रा में रहेगी? किस दिशा में चेहरा होगा? एक-एक बारीक बातें। विधान। इसके बाद फ़िर कन्या भोज के दिन न रहने की चर्चा की। पर सबसे आश्चर्य, जिस दिन समाधि ली, रात 10 बजे के बाद स्वामी सत्संगी जी को बुलाया। रात में वह अपनी कुटिया में अकेले रहते थे। लोग बताते थे कि रात को वह ध्यान-साधना में ही लीन रहते थे। स्वामी सत्संगी जी पहुंचीं। परमहंस जी पद्मासन में बैठे थे। कहा, अब जा रहा हूं। शोक नहीं। हमारी मान्यता है कि आत्मा अमर है। फ़िर गीता में कहा भी है कि शरीर क्या है, यह स्वामी जी ने बताया।
उनके चेहरे पर अद्भुत शांति और कांति थी। सत्संगी जी से कहा, बिल्कुल परेशान नहीं होना है। कुछ नहीं करना है। मौत, जीवन का अभिन्न अंग है। सरल-सहज। उन्होंने कहा, मौत के पूर्व कामना है कि इन्हीं आंखों से विराट का साक्षात्कार हो। स्वामी सत्संगी जी अंतिम दृश्य का उल्लेख करती हैं, उनके चेहरे पर अलौकिक और अपूर्व तेज था, जो विस्मृत नहीं होता। स्वामी जी ने जब शरीर छोड़ा, तब वह सिद्धासन मुद्रा में थे। योग की ऐसी स्थिति में आप बैठें, तन पर कोई वस्त्र न हो, तब भी शरीर के कुछ हिस्से नजरों से ओझल रहते हैं। उन्होंने बैठे-बैठे प्राण त्यागा। दृष्टि आसमान में। उनकी यह अंतिम तस्वीर समाचार पत्रों में छपी। इसी मुद्रा में उन्हें समाधि भी दी गयी। कई जगह विवरण पढ़ा था कि योगी इच्छा से शरीर भी छोड़ते हैं। गोपीनाथ कविराज और विश्वनाथ मुखर्जी की पुस्तकों में ऐसे योगियों की चर्चा है।
देर रात स्वामी जी ने शरीर त्यागा। स्वामी निरंजनानंद जी रात तीन बजे तक मुंगेर से रिखिया पहुंच चुके थे। सुना, स्वामी जी ने जब देह छोड़ने की बात की, तो स्वामी निरंजनानंद जी मुंगेर से रिखिया के लिए निकल चुके थे। वह रात तीन बजे के पहले रिखियापीठ में थे। स्वामी जी का इस तरह शरीर छोड़ना ही अद्भुत घटना है। जीवन का जो पक्ष हम नहीं जानते, उस पर एक रोशनी।
उनका जीवन ही विशिष्ट रहा। मोटे तौर पर उनके जीवन में 20-20 वर्षो का चक्र रहा। घर में 20 वर्ष रहे। 20 वर्षो तक ऋषिकेश में। स्वामी शिवानंद सरस्वती के साथ। कठोर तप, व्रत, संयम और श्रम। फ़िर मुंगेर में 20 वर्षों रहे। योग को विश्व में पहुंचाया। फ़िर रिखिया पहुंचे 89 के आसपास। यहां भी 20 वर्ष रहे। दिसंबर 2009 तक। इसे वह जागृत जगह मानते थे। पिछले माह दो दिसंबर को गांववालों से बहुत कुछ कहा? बड़े पैमाने पर बच्चे-बच्चियां थे। पूछा, तुम्हें साल में पांच बार ड्रेस कौन देता है? किताबें कौन देता है? अंग्रेजी सीखने, कंप्यूटर पढ़ने की व्यवस्था कौन करता है? फ़िर पूछा, तुम्हारा पिता कौन है? बच्चों ने कहा, आप! वहां बच्चों के मां-बाप बैठे थे। फ़िर स्वामी जी ने अभिभावकों से कहा, घर में शराब पीते हो? औरत पर अत्याचार करते हो? बच्चों को पीटते हो? घर की लक्ष्मी (पत्नी) को पीटते हो, पर उसे एक बाथरूम मुहैया नहीं करा सकते। यह सब बंद करो।
आज रिखिया पंचायत के लगभग 60,000 परिवारों का आश्रम से रिश्ता है। हर परिवार की जरूरत पर आश्रम गौर करता है। कंबल, जूता, बाल्टी, बरतन, कपड़े। शादी के बाद लड़कियों की विदाई, अपनी बेटी की तरह। साज-सामान के साथ। 2500 कन्याएं-बटुकों को आश्रम मदद करता है। देहात के बच्चे अंगरेजी-कंप्यूटर में पारंगत। उच्चारण अद्भुत ढंग से शुद्ध और सही। पिता रिक्शा चलाते हैं-ठेला लगाते हैं, बच्चे देश के श्रेष्ठ-महंगे स्कूलों के बच्चों की तरह ज्ञान संपन्न। पर उनसे अधिक संस्कारवान। वृद्ध लोगों को महीने में एक बार भोजन पर निमंत्रण। वृद्धों को परमहंस जी 'फ़ेलो ट्रेवलर्स' (साथी सहयात्री) पुकारते थे। नवरात्रि या शिवरात्रि जैसे विशिष्ट अवसरों पर भी वृद्ध आमंत्रित रहते थे।
यह सब आश्रम कहां से करता है? श्रद्धालुओं के सहयोग से। स्वामी जी की पुस्तकों की आमद से। कहीं कोई बड़ी राशि नहीं। जो आया सो गया। पर इन एक-एक चीजों का श्रेष्ठता से प्रबंध शैली और अनुशासन बेमिसाल है। परमहंस जी का एक और प्रोजेक्ट था। प्रदोष भोजन का। बच्चों को शाम का भोजन। विशालकाय किचेन बन कर तैयार है। कई हजार बच्चे एक साथ भोजन कर सकते हैं। साथ, पंगत में। स्वामी जी की समाधि की सूचना पाकर 42 देशों से लोग आये। हर कुछ इतना अनुशासित, स्वच्छ और सौंदर्य से भरा-पूरा। जबरदस्त भीड़, पर एक अलौकिक शांति का माहौल। आश्रम के लोग कहते हैं, परमहंस जी कहते थे, दो पंख हैं। योग और सेवा के। योग केंद्र, मुंगेर। सेवा केंद्र, रिखिया। हर जगह लोग समर्पण के साथ अपने-अपने काम में डूबे हैं। मौन रह कर काम में डूबे? क्या यही अनाशक्ति योग का व्यावहारिक चेहरा है?
आश्रम की सादगी, नैतिक भव्यता और अनुशासन देख कर बार-बार सवाल उठा। परमहंस के पास क्या था? राजपरिवार में पैदा हुए। फ़िर सब छोड़ दिया। फ़कीर बन गये। न सत्ता थी। न धन। न राज्य की कामना, न निजी इच्छा। एकांत साधना में रमे। घोर तप किया। पर जब समाधि ली, तो कम से कम पांच-सात पंचायतों के किसी घर में चूल्हा नहीं जला। 42 देशों के लोग आये। पूरे देश से श्रद्धालु पधारे। श्रेष्ठ साधकों ने संदेश दिया, इतना बड़ा अब कोई दूसरा साधक नहीं है। समाधि के दिन से ही देश-विदेश से हजारों स्त्री-पुरुष उमड़े। अलग-अलग धर्मो के। भिन्न-भिन्न परिवेशों से। आश्रम की ओर खींचे हुए, बहते हुए, खोजते हुए, जो जन प्रवाह देखा, वह एक अनुभव है। यह लोक ताकत है। आज यह लोक आस्था-श्रद्धा, कहां दिखाई पड़ती है? जिनके पास सत्ता, वैभव है, लोग उनकी परिक्रमा करते हैं। पर सत्ता-पैसा जाते ही कोई पूछनहारा नहीं। मन पूछता है, स्वामी जी के पास क्या लौकिक चीजें थीं? वह तो कभी-कभार ही मिलते थे? तन पर मामूली वस्त्र, एकांत साधना यही न! पर यहां यह जन सैलाब क्यों? क्योंकि संतों का जीवन ही दूसरों के लिए होता है। उनका जीवन तो और विशिष्ट रहा। वह देवत्व की श्रेणी में पहुंचे। जीते जी किंवदंती बन कर। चोला त्याग कर। समाधि लेकर। योग-सेवा का रास्ता दिखा कर। प्रचार संसार से दूर रह कर।
एक आदमी एक जीवन में इतना कुछ कर सकता है? परमहंस की उपलब्धियों को देख कर यकीन नहीं होता। पर वह तो परमहंस थे। ऋषि थे। इतनी पुस्तकें, इतनी संस्थाएं, दुनिया में योग का प्रचार। सेवा का काम। फ़िर सब छोड़-छाड़ दिया। एक चीज भी अपने पास नहीं। वहां के लोगों को लगता था कि कभी यहां से भी यह सब छोड़-छाड़ कर चल न दें। यह विरक्ति, वैराग्य, जीवन की अंतिम घड़ी-क्षण-पहर तक। संतों के संदर्भ में सुना था, परमार्थ (लोकहित) के कारण, साधुन धरा शरीर! परमार्थ के लिए ही परमहंस सत्यानंद जी ने जीवन जीया। उनके न रहने पर जिस तरह हर धर्म, समुदाय, देश-विदेश और विभिन्न क्षेत्रों के लोगों ने उन्हें स्मरण किया, यह उदार भारत का चेहरा है। उनकी हर बातचीत (जिसे खुद सुना) का सार था, भारत कैसे जगतगुरु बने। समृद्ध हो। आधुनिक हो। नैतिक हो। सामाजिक बुराइयों (जाति, धर्म वगैरह) से परे हो। उनकी समाधि के संदेश भी यही हैं।
[साभार; भड़ास4मीडिया]
(लेखक झारखंड के प्रमुख समाचार पत्र ‘प्रभात खबर’ के प्रधान संपादक हैं)
वीएचवी। 6 मार्च 2010.
http://www.vhv.org.in/story.aspx?aid=847
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