कुणाल प्रधान/जयंत श्रीराम
| सौजन्य: इंडिया टुडे
| नई दिल्ली, 5 नवम्बर 2013 | अपडेटेड: 10:25
और भी... http://aajtak.intoday.in/story/rise-of-the-cyber-hindu-1-746312.html
ई-चुनाव का परिणाम: इंटरनेट पर छाया भगवा रंग, धड़ाधड़ हुई मोदी के लिए वोटिंग
अभी-अभी मुंबई के जुहू में सूरज उगा है. देश के इस चर्चित समुद्र तट पर
अरब सागर में उसकी किरणों की झिलमिलाहट से 35 वर्षीया गृहिणी प्रीति गांधी
की आंख खुलती है. उनका घर एकदम तट पर जो है. यह उनकी हर रोज की सुबह जैसी
ही है. वे पहले अपनी आठ वर्षीय बेटी और पांच साल के बेटे को स्कूल रवाना
करती हैं. फिर, अपने इनवेस्टमेंट बैंकर पति के साथ एक प्याली चाय का आनंद
उठाती हैं. पति के काम पर निकलने के साथ ही उनकी दूसरी जिंदगी शुरू होती
है.ई-चुनाव के पूरे परिणाम देखने के लिए यहां क्लिक करें
इधर, दिल्ली में 32 वर्षीय विकास पांडेय भी दफ्तर के लिए निकल रहे हैं. अच्छे से की गई शेव, चुस्त शर्ट, काले रंग की पैंट, गहरे रंग के मोजे और लेदर जैकेट में वे किसी आइटी कंपनी के एक्जक्यूटिव लगते हैं. दफ्तर के बाद वे अपने दोस्तों के साथ बंगाली मार्केट में काफी का मजा लेते हैं, और बीच-बीच में अपने मोबाइल सेट में खो जाते हैं. पांडेय असली दुनिया में अपनी भूमिका बखूबी निभाते हैं, जहां वे सामान्य कंप्यूटर विशेषज्ञ ही हैं. लेकिन उनकी एक समांतर दुनिया भी है और उसमें वे छोटे-मोटे सेलेब्रिटी से कम नहीं हैं.
ट्विटर पर @MrsGandhi और @iSupportNaMo के नाम से परिचित गांधी और पांडेय के आखिरी अपडेट तक क्रमश: 30,000 और 18,000 फॉलोवर थे. ये दोनों इंटरनेट पर हिंदुत्व, बीजेपी और मोदी समर्थक उस बिरादरी के सबसे जाने-पहचाने चेहरे हैं जो सोशल मीडिया और इंटरनेट पर चलने वाली हर बहस में अपनी धाक जमा रही है.
यह बिरादरी मोटे तौर पर भले ही बीजेपी की सूचना-प्रौद्योगिकी शाखा यानी दिल्ली में पार्टी मुख्यालय 11, अशोक रोड पर सोशल मीडिया मैनेजरों और टेक्नीशियनों की 100 लोगों की टोली और पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की अहमदाबाद में यूनिट से निर्देश प्राप्त करती हो, लेकिन इसमें बहुआयामी और स्वतंत्र लोगों की भरमार है.
ये लोग हमारे इर्दगिर्द चारों तरफ दिखते हैं. वे आपके दफ्तर में बगल के क्यूबिकल में या क्लास रूम में में बगल की टेबल पर बैठे हो सकते हैं. वे हमेशा अपने स्मार्टफोन पर इंटरनेट खंगालते मिलेंगे. वे एक-दूसरे से ऐसे नेटवर्क से जुड़े हैं जो विभिन्न पृष्ठभूमि के लोगों को एक मंच पर ला रहा है. उन्हें लगता है कि उनकी आवाज सुनी जा रही है और सोशल मीडिया पर सक्रिय, उन्हीं की जैसी सोच वाले पॉलिटिकल एक्टिविस्ट उनकी बात को और दूर तक ले जा रहे हैं.
इंटरनेट पर इस बिरादरी की प्रभावी पैठ का प्रमाण इंडिया टुडे समूह के इलेक्शन सर्वेक्षण में देखा जा सकता है. इस सर्वेक्षण में आम चुनाव की तर्ज पर लोकसभा क्षेत्रों में इंटरनेट और मोबाइल पर लोगों को वोट करने को कहा गया था. मोबाइल फोन पर एक बार में एक पासवर्ड से मतपत्र खोलने का प्रावधान किया गया था ताकि एक मोबाइल नंबर से एक बार ही वोट दिया जा सके और धांधली की कोई गुंजाइश न रहे.
23 सितंबर से 30 अक्तूबर तक अप्रत्याशित रूप से कुल 5,56,460 वोट डालने वाले यूजर्स में से 3,38,401 ने बीजेपी को चुना. यहां तक कि चौतरफा मुकाबले वाले उत्तर प्रदेश में भी 87.1 प्रतिशत वोट बीजेपी के पक्ष में पड़े. इस सर्वेक्षण के नतीजे भले जमीनी हकीकत का बयान न कर रहे हों पर एक बात तो शर्तिया तौर पर साबित करते हैं कि इंटरनेट भगवा रंग में रंग चुका है.
भारत में इंटरनेट की पहुंच, इस्टैटइंडिया डॉटकॉम के मुताबिक, सिर्फ 10 प्रतिशत लोगों तक ही है और यूजर करीब 11.618 करोड़ ही हैं. लेकिन दूसरी ओर अक्तूबर में गूगल के एक सर्वे के मुताबिक, हर 10 शहरी मतदाताओं में से 4 यानी 37 प्रतिशत शहरी मतदाता अब इंटरनेट पर हैं.
हिंदुत्व की ओर झुकी यह इंटरनेट बिरादरी कई बार गाली-गलौज पर उतर आती है. यह अमूमन धुर अल्पसंख्यक विरोधी और हमेशा सरकार विरोधी होती है. वह खुद को अब इंटरनेट हिंदू कहलाना पसंद करती है. गांधी कहती हैं, ''जब मुझे कोई संघी या दक्षिणपंथी या इंटरनेट हिंदू कहता है तो मेरा मन खिल उठता है. मुझे लगता है कि कहूं 'वाह! क्या बात है’.” उनकी भाषा युवा और बोलचाल वाली है. (अमेरिकी किशोरों वाले अंदाज में हर वाक्य में 'ओ वाव लाइक’ की अभ्यस्त गांधी भी इसकी पुष्टि करती हैं.) लेकिन उनका एजेंडा पोस्ट मॉडर्न और परंपरा का मिश्रण है.
यह बिरादरी खानदानशाही की राजनीति खासकर नेहरू-गांधी खानदान की विरोधी है लेकिन बीजेपी और उसके शिवसेना जैसे सहयोगियों में बाप-बेटे की राजनीति पर वह कोई राय नहीं रखती. वह अल्पसंख्यक तुष्टीकरण को 'छद्म धर्मनिरपेक्षता’ ऐसे तेवर के साथ कहती है जिसका अर्थ बड़ी आसानी से हिंदू आधिपत्य की आकांक्षा या मुस्लिम विरोध लगाया जा सकता है. ये लोग दलित और ओबीसी आरक्षण के विरोधी हैं, खासकर इसलिए क्योंकि उस पर ढंग से अमल नहीं होता. उन्हें देश की आंतरिक सुरक्षा की चिंता है. लेकिन सबसे बढ़कर वे भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं.
मोदी का चुंबकीय आकर्षण
इनके बेहद आक्रामक किस्म के ट्वीट से भले ऐसा न लगे लेकिन इस बिरादरी में तमाम ऐसे हैं जो एकाध साल के भीतर ही सोशल मीडिया पर सक्रिय हुए हैं. और उस वक्त बीजेपी या उसकी नीतियों का समर्थन शायद उनका मकसद न था. पांडेय को ही लीजिए. उन्होंने अपना ट्विटर एकाउंट उस दिन खोला जब उन्होंने सुना कि सचिन तेंडुलकर ट्विटर पर आ गए हैं. वे कहते हैं, ''मेरे परिवार में आरएसएस से जुड़े लोग रहे हैं लेकिन मैं तो सचिन को देखकर ही ट्विटर की ओर खिंचा आया. इस दुनिया में प्रवेश लेने के बाद एक के बाद दूसरा सिलसिला शुरू हो गया.”
पैंतीस वर्षीय शिल्पी तिवारी की पढ़ाई आर्किटेक्ट की है और अब वे अपने पति के साथ एक कंसल्टेंसी फर्म चलाती हैं. शिल्पी बताती हैं कि पहले वे सरकारी परियोजनाओं में शामिल रही हैं. उन्हें सबसे पहले अण्णा हजारे और उनके जन लोकपाल आंदोलन ने आकर्षित किया. वे कहती हैं, ''मैं रामलीला मैदान में हजारों लोगों के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठा रही थी.”
बाद में जब कांग्रेस और सरकार विरोधी भावनाएं तीखी होने लगीं तब उनका झुकाव बीजेपी और खासकर मोदी की ओर हुआ. अब तिवारी और उनकी तरह के तमाम लोग यह मानते हैं कि उनकी कोशिशों से ही मोदी बीजेपी में प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी की रेस जीत सके हैं. वे मुस्करा कर कहती हैं, ''हमने उनकी उम्मीदवारी का समर्थन ही नहीं किया, बल्कि उसे हासिल करवा दिया.”
दिल्ली में इंटरनेट डेमोक्रेसी प्रोजेक्ट की निदेशक अंजा कोवाक्स के मुताबिक, मध्यवर्गीय युवा बीजेपी समर्थक पूरी तरह इंटरनेट प्रसार की देन हैं. वे कहती हैं, ''दरअसल, इस इंटरनेट आंदोलन की अगुआई तकनीक के उन एक्सपर्ट्स ने की है जो विदेश चले गए हैं लेकिन हर वक्त भारत से जुडऩे के मौके की तलाश में रहते हैं. मध्यवर्गीय और आर्थिक तरक्की की आकांक्षा रखने वाले युवा, जो ज्यादातर इंटरनेट से भी जुड़े हैं, स्वाभाविक तौर पर कम्युनिस्टों के बदले बीजेपी की ओर आकर्षित होंगे.”
आइआरआइएस नॉलेज फाउंडेशन और इंटरनेट ऐंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया के एक सर्वेक्षण के मुताबिक, 2014 के आम चुनावों में सोशल मीडिया 160 लोकसभा सीटों को प्रभावित करने जा रहा है. अक्तूबर में गूगल का सर्वेक्षण कहता है कि इंटरनेट से जुड़े सभी शहरी मतदाताओं का करीब 42 प्रतिशत अभी भी मन नहीं बना पाया है कि वह किसको वोट दे. इस तरह अभी एक बड़ा वोट बैंक किसी भी ओर झुक सकता है. हालांकि इसमें किसी को हैरत नहीं होनी चाहिए कि ज्यादातर शहरी मतदाताओं ने गूगल पर सबसे ज्यादा किसी नेता को तलाशा है तो वे हैं नरेंद्र मोदी.
वैसे तो ये इंटरनेट योद्धा कई भगवा खेमे से हैं (देखें बॉक्स), लेकिन इनका बड़ा हिस्सा मोदी के प्रति बड़ी शिद्दत से आकर्षित है. उसे लगता है कि मोदी कोई गलती नहीं करेंगे. पांडेय, तिवारी और किशोरावस्था से ही आरएसएस- बीजेपी से जुड़े पटकाधारी सिख 27 वर्षीय तेजिंदरपाल सिंह बग्गा का कहना है कि वे मोदी के अंध भक्त नहीं हैं, बल्कि उनकी नीतियों, उनके विकास मंत्र और उनकी साफ-सुथरी छवि के कारण उनका समर्थन करते हैं.
लेकिन, जब उनसे पूछा गया कि क्या मोदी ने अपने समूचे राजनैतिक करिअर में ऐसा कुछ किया, जिससे वे सहमत नहीं हो पाते हैं तो किसी के पास उनकी कोई भी शिकायत नहीं थी. हमने पूछा, ''तो क्या वे हमेशा सही रहे हैं?” सभी ने कमोबेश एक ही तरीके से धीरे से जवाब दिया, ''नहीं” लेकिन किसी के पास इस सवाल का खंडन करने वाला कोई उत्तर नहीं था.
ऐसा लगता है कि अधकचरी राजनैतिक समझ और भावुक किस्म की बातें ही ऑनलाइन हिंदू स्पेस में छाई हुई हैं. इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब पैट्रियट्स ऐंड पार्टीजन्स में एक अध्याय 'हिंदुत्व हेट मेल’ को समर्पित किया है, जो उन्हें कई वर्षों में लेखक और स्तंभकार के रूप में प्राप्त हुए हैं. कई ईमेल और संपादक के नाम पत्रों में उन्हें गांधी परिवार का टट्टू वगैरह बताया गया.
गुहा का मानना है कि उनका साबका ''ऐसे लोगों से पड़ा जो मुंह अंधेरे उठते हैं, एक गिलास गाय का दूध पीते हैं, सूर्य को नमस्कार करते हैं और फिर इंटरनेट खोलकर आज के सेकुलरों को तोहमत भेजने के लिए मुहावरे की तलाश करने में जुट जाते हैं.”
गुहा की बात पर शब्दश: यकीन करने के अपने खतरे हैं. आज के हिंदू ऑनलाइन योद्धा के उनके वर्णन में आंशिक सचाई ही है. अब इस बिरादरी की एक बड़ी संख्या सुबह उठती है, जॉगिंग करने जाती है, एक कप ब्लैक कॉफी का स्वाद चखती है और हजारों एक्जिक्यूटिक्स तरह अपनी एसयूवी स्टार्ट कर लेती है. इनमें डॉक्टर, इंजीनियर, आइटी प्रोफेशनल, नौकरशाह, कॉल सेंटर में काम करने वाले, पत्रकार और व्यापार-उद्योग धंधे वाले हैं.
वे अपने काम में निपुण हैं लेकिन अक्सर उनका उथला राजनैतिक ज्ञान उन्हें हास्यास्पद बना देता है और वे बेवजह आक्रामक हो उठते हैं. उनकी दुनिया में सब कुछ काला-सफेद ही होता है, उस पर और किसी तरह का रंग चढ़ता ही नहीं.
प्रीति गांधी एआइएमआइएम नेता अकबरुद्दीन ओवैसी के पिछले दिसंबर में नफरत भरे भाषण की चर्चा करते हुए कहती हैं, ''हम मुस्लिम विरोधी नहीं हैं लेकिन अगर आप हमें मजबूर कर देंगे तो प्रतिक्रिया होनी लाजिमी ही है. वरना, मेरे कुछ अच्छे दोस्त मुसलमान हैं.” बिडंबना यह है कि ऑनलाइन मुहावरों की एक गाइड 'अर्बन डिक्शनरी’ के मुताबिक, 'मेरे कुछ अच्छे दोस्त’ का अर्थ ''कुछ पूर्वाग्रहग्रस्त लोग ऐसा कहते हैं जब वे अपने पूर्वाग्रह के चक्कर में बुरे फंसते हैं.”
एका ही उनकी ताकत
इस ऑनलाइन बिरादरी के लोग अब एक-दूसरे को हकीकत में भी जानने लगे हैं. सबके पास एक-दूसरे के ईमेल, फोन नंबर, पता, होता है और सबकी कोशिश होती है कि कुछ अंतराल पर भोजन वगैरह के लिए इकट्ठा हुआ जाए. वे एक-दूसरे के शहर में जाने पर घरों में जाते हैं और बच्चों की पढ़ाई से लेकर हर चीज पर बात करते हैं. हकीकत में एक-दूसरे से भेंट-मुलाकात इस वजह से भी होती है कि इंटरनेट पर 'छद्म धर्मनिरपेक्षवादियों’ के हमले के दौरान एक-दूसरे का साथ मिले.
एक मायने में यह ढीली-ढाली ऑनलाइन बिरादरी वक्त-जरूरत पर एक-दूसरे के काम भी आती है. महीने भर पहले 35 वर्षीय रुद्र शेखर (ट्विटर पर @RudraHindu) ने खुद ही बताया कि वे किडनी की बीमारी की वजह से अस्पताल में हैं. ऑनलाइन बिरादरी ने ट्विटर पर संदेश भेजकर इलाज के लिए 2 लाख रुपए जुटा लिए.
रुद्र शेखर का 7 अक्तूबर को निधन हो गया. उनकी अंतिम इच्छा थी कि उनका अंतिम संस्कार उनके पार्थिव शरीर को बीजेपी के झंडे में लपेट कर किया जाए. बग्गा कहते हैं, ''हम उनसे कभी मिले नहीं थे लेकिन वे हमारे दोस्त थे.” रुद्र शेखर की न सिर्फ अंतिम इच्छा पूरी की गई, बल्कि उनके पिता को मोदी ने खुद फोन करके अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की.
लेकिन इस बिरादरी के सदस्यों के खिलाफ असली शिकायत तो यह है कि वे कांग्रेस नेताओं, समर्थकों और उन पत्रकारों को ढूंढ़-ढूंढ़ कर उनका पीछा करते हैं जिन्हें वे सरकार समर्थक 'पेड मीडिया’ का गिरोह बताते हैं. वे अत्यंत आक्रामक किस्म की कूट भाषा में बात करते हैं (देखें बॉक्स) और वाद-विवाद में कमजोर पडऩे पर अकसर गाली-गलौज पर उतर आते हैं. कांग्रेस के समर्थक भी गाली-गलौज का जवाब देते हैं.
लेकिन उनमें वह तल्खी नहीं होती है. इस तरह सोशल मीडिया पर राजनैतिक बहस का स्तर काफी नीचे गिर जाता है. एक कांग्रेस समर्थक अमरेश मिश्र तो शिल्पी तिवारी को मार्च में गंभीर नतीजों की धमकी दे बैठे. हालांकि कांग्रेस की तीखी आवाजें अमूमन बीजेपी समर्थकों की संख्या और उनकी तल्ख बयानी में खो-सी जाती हैं.
सीएनएन-आइबीएन की डिप्टी एडिटर सागरिका घोष के टीवी शो और लेखों पर लगातार तीखी टिप्पणी की जाती है. वे कहती हैं कि कई ट्वीट तो यूं ही हलकी-फुलकी नुक्ताचीनी होते हैं लेकिन कुछ बेहद खतरनाक. उनके शब्दों में, ''एक बार किसी ने लिखा कि वह मेरी बच्ची के स्कूल का समय जानता है. मैं काफी डर गई. ट्विटर को ऐसे ही लोग बदनाम कर रहे हैं, वरना वह अद्भुत किस्म का लोकतांत्रिक मंच है.”
मामला यहां तक पहुंच गया कि इस मई में बीजपी की आइटी इकाई के प्रमुख अरविंद गुप्ता ने पार्टी पदाधिकारियों, सदस्यों और समर्थकों के लिए सोशल मीडिया के दिशानिर्देश जारी किए. अपनी तरह के इस इकलौते दिशानिर्देश में कहा गया कि ''तरह-तरह के मसलों पर स्वस्थ बहस का हमेशा स्वागत है क्योंकि इससे मुद्दों की जटिलता और उसके पहलुओं की समझ विकसित होती है. लेकिन बहस अशोभनीय व्यवहार में नहीं बदलनी चाहिए.”
बीजेपी या उसके समर्थकों वाले ऑनलाइन ब्रिगेड का एक हिस्सा भले ही अश्लील भाषा का इस्तेमाल न करता हो, फिर भी पार्टी उन तमाम लोगों का साथ नहीं छोड़ सकती जो उसके पक्ष में इंटरनेट पर सक्रिय हैं. @HinduIDF और @barbarindian जैसे कई अज्ञात नाम सोशल मीडिया पर लगातार अश्लील भाषा का प्रयोग करते हैं लेकिन बीजेपी समर्थक उन्हें कभी कुछ नहीं कहते.
इसके पीछे तर्क यह दिया जाता है कि 'वे रैडिकल यानी उग्रपंथी हो सकते हैं पर वे हमारे अपने रैडिकल हैं.’ गुप्ता कहते हैं, ''इंटरनेट भी सिनेमा या संगीत की तरह समाज का आईना है. गाली-गलौज अमूमन अच्छी भाषा न जानने से भी निकलती है. जैसे कॉलेज में आप किसी बहस में अपनी बात ढंग से नहीं रख पाते तो अश्लील किस्म की आक्रामकता पर उतर आते हैं. लेकिन ऐसे लोग कुल मिलाकर पांच प्रतिशत ही हैं. हमारे ज्यादातर समर्थक शिक्षित और आधुनिक हैं.”
हालांकि इस ऑनलाइन बिरादरी की भाषा, उसके अर्थ और उसकी मान्यताओं पर बहस की गुंजाइश बनी रह सकती है लेकिन ज्यादातर लोग नेक इरादों से ही आए हैं. और वह इरादा है राष्ट्रवाद का. उनमें राष्ट्रवाद का जज्बा है और वे अपने विचारों के आधार पर अन्याय के खिलाफ लडऩा चाहते हैं तथा प्रभावी बदलाव लाना चाहते हैं. थोड़े ठेठ भदेसपन, कम तर्कशक्ति और थोड़ी नकारात्मकता के साथ उनके अपने नायकों का आकलन उन्हें एक गंभीर राजनैतिक बिरादरी के रूप में तब्दील कर रहा है.
इंटरनेट पर बीजेपी के वर्चस्व पर कांग्रेस के प्रवक्ता संजय झ कहते हैं, ''दुष्प्रचार ऐसे ही काम करता है. बार-बार और ऊंची आवाज में एक ही बात बोलनी पड़ती है. वे लोगों पर शब्दों और विचारों की बौछार कर देते हैं. पिछले साल तक सोशल मीडिया पर कांग्रेस की उपस्थिति लगभग नहीं के बराबर थी, इसलिए वे इतना चढ़ गए. अब कांग्रेस ने भी इस पर काम शुरू किया है. सोशल मीडिया ऐसा मंच है, जिसमें पहले पहुंचने वाले की बढ़त थोड़े समय में ही खत्म की जा सकती है.”
लेकिन कांग्रेस की यह धारणा भी ठीक नहीं लगती कि बीजेपी के इंटरनेट समर्थकों का आधार गढ़ा हुआ और फर्जी है, क्योंकि आंकड़े भी कुछ कहते हैं. सोशल मीडिया ने साफ जाहिर कर दिया है कि 2014 के आम चुनावों में वह क्या चाहता है. दूसरी पार्टियां यह सोचकर दिलासा पा सकती हैं कि ऑनलाइन बिरादरी ही यह तय नहीं करेगी कि देश की सत्ता किसे मिले. न ही अभी आप अपने वोट ट्वीट कर सकते हैं. कम-से-कम अभी तो यह संभव नहीं.
इधर, दिल्ली में 32 वर्षीय विकास पांडेय भी दफ्तर के लिए निकल रहे हैं. अच्छे से की गई शेव, चुस्त शर्ट, काले रंग की पैंट, गहरे रंग के मोजे और लेदर जैकेट में वे किसी आइटी कंपनी के एक्जक्यूटिव लगते हैं. दफ्तर के बाद वे अपने दोस्तों के साथ बंगाली मार्केट में काफी का मजा लेते हैं, और बीच-बीच में अपने मोबाइल सेट में खो जाते हैं. पांडेय असली दुनिया में अपनी भूमिका बखूबी निभाते हैं, जहां वे सामान्य कंप्यूटर विशेषज्ञ ही हैं. लेकिन उनकी एक समांतर दुनिया भी है और उसमें वे छोटे-मोटे सेलेब्रिटी से कम नहीं हैं.
ट्विटर पर @MrsGandhi और @iSupportNaMo के नाम से परिचित गांधी और पांडेय के आखिरी अपडेट तक क्रमश: 30,000 और 18,000 फॉलोवर थे. ये दोनों इंटरनेट पर हिंदुत्व, बीजेपी और मोदी समर्थक उस बिरादरी के सबसे जाने-पहचाने चेहरे हैं जो सोशल मीडिया और इंटरनेट पर चलने वाली हर बहस में अपनी धाक जमा रही है.
यह बिरादरी मोटे तौर पर भले ही बीजेपी की सूचना-प्रौद्योगिकी शाखा यानी दिल्ली में पार्टी मुख्यालय 11, अशोक रोड पर सोशल मीडिया मैनेजरों और टेक्नीशियनों की 100 लोगों की टोली और पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की अहमदाबाद में यूनिट से निर्देश प्राप्त करती हो, लेकिन इसमें बहुआयामी और स्वतंत्र लोगों की भरमार है.
ये लोग हमारे इर्दगिर्द चारों तरफ दिखते हैं. वे आपके दफ्तर में बगल के क्यूबिकल में या क्लास रूम में में बगल की टेबल पर बैठे हो सकते हैं. वे हमेशा अपने स्मार्टफोन पर इंटरनेट खंगालते मिलेंगे. वे एक-दूसरे से ऐसे नेटवर्क से जुड़े हैं जो विभिन्न पृष्ठभूमि के लोगों को एक मंच पर ला रहा है. उन्हें लगता है कि उनकी आवाज सुनी जा रही है और सोशल मीडिया पर सक्रिय, उन्हीं की जैसी सोच वाले पॉलिटिकल एक्टिविस्ट उनकी बात को और दूर तक ले जा रहे हैं.
इंटरनेट पर इस बिरादरी की प्रभावी पैठ का प्रमाण इंडिया टुडे समूह के इलेक्शन सर्वेक्षण में देखा जा सकता है. इस सर्वेक्षण में आम चुनाव की तर्ज पर लोकसभा क्षेत्रों में इंटरनेट और मोबाइल पर लोगों को वोट करने को कहा गया था. मोबाइल फोन पर एक बार में एक पासवर्ड से मतपत्र खोलने का प्रावधान किया गया था ताकि एक मोबाइल नंबर से एक बार ही वोट दिया जा सके और धांधली की कोई गुंजाइश न रहे.
23 सितंबर से 30 अक्तूबर तक अप्रत्याशित रूप से कुल 5,56,460 वोट डालने वाले यूजर्स में से 3,38,401 ने बीजेपी को चुना. यहां तक कि चौतरफा मुकाबले वाले उत्तर प्रदेश में भी 87.1 प्रतिशत वोट बीजेपी के पक्ष में पड़े. इस सर्वेक्षण के नतीजे भले जमीनी हकीकत का बयान न कर रहे हों पर एक बात तो शर्तिया तौर पर साबित करते हैं कि इंटरनेट भगवा रंग में रंग चुका है.
भारत में इंटरनेट की पहुंच, इस्टैटइंडिया डॉटकॉम के मुताबिक, सिर्फ 10 प्रतिशत लोगों तक ही है और यूजर करीब 11.618 करोड़ ही हैं. लेकिन दूसरी ओर अक्तूबर में गूगल के एक सर्वे के मुताबिक, हर 10 शहरी मतदाताओं में से 4 यानी 37 प्रतिशत शहरी मतदाता अब इंटरनेट पर हैं.
हिंदुत्व की ओर झुकी यह इंटरनेट बिरादरी कई बार गाली-गलौज पर उतर आती है. यह अमूमन धुर अल्पसंख्यक विरोधी और हमेशा सरकार विरोधी होती है. वह खुद को अब इंटरनेट हिंदू कहलाना पसंद करती है. गांधी कहती हैं, ''जब मुझे कोई संघी या दक्षिणपंथी या इंटरनेट हिंदू कहता है तो मेरा मन खिल उठता है. मुझे लगता है कि कहूं 'वाह! क्या बात है’.” उनकी भाषा युवा और बोलचाल वाली है. (अमेरिकी किशोरों वाले अंदाज में हर वाक्य में 'ओ वाव लाइक’ की अभ्यस्त गांधी भी इसकी पुष्टि करती हैं.) लेकिन उनका एजेंडा पोस्ट मॉडर्न और परंपरा का मिश्रण है.
यह बिरादरी खानदानशाही की राजनीति खासकर नेहरू-गांधी खानदान की विरोधी है लेकिन बीजेपी और उसके शिवसेना जैसे सहयोगियों में बाप-बेटे की राजनीति पर वह कोई राय नहीं रखती. वह अल्पसंख्यक तुष्टीकरण को 'छद्म धर्मनिरपेक्षता’ ऐसे तेवर के साथ कहती है जिसका अर्थ बड़ी आसानी से हिंदू आधिपत्य की आकांक्षा या मुस्लिम विरोध लगाया जा सकता है. ये लोग दलित और ओबीसी आरक्षण के विरोधी हैं, खासकर इसलिए क्योंकि उस पर ढंग से अमल नहीं होता. उन्हें देश की आंतरिक सुरक्षा की चिंता है. लेकिन सबसे बढ़कर वे भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं.
मोदी का चुंबकीय आकर्षण
इनके बेहद आक्रामक किस्म के ट्वीट से भले ऐसा न लगे लेकिन इस बिरादरी में तमाम ऐसे हैं जो एकाध साल के भीतर ही सोशल मीडिया पर सक्रिय हुए हैं. और उस वक्त बीजेपी या उसकी नीतियों का समर्थन शायद उनका मकसद न था. पांडेय को ही लीजिए. उन्होंने अपना ट्विटर एकाउंट उस दिन खोला जब उन्होंने सुना कि सचिन तेंडुलकर ट्विटर पर आ गए हैं. वे कहते हैं, ''मेरे परिवार में आरएसएस से जुड़े लोग रहे हैं लेकिन मैं तो सचिन को देखकर ही ट्विटर की ओर खिंचा आया. इस दुनिया में प्रवेश लेने के बाद एक के बाद दूसरा सिलसिला शुरू हो गया.”
पैंतीस वर्षीय शिल्पी तिवारी की पढ़ाई आर्किटेक्ट की है और अब वे अपने पति के साथ एक कंसल्टेंसी फर्म चलाती हैं. शिल्पी बताती हैं कि पहले वे सरकारी परियोजनाओं में शामिल रही हैं. उन्हें सबसे पहले अण्णा हजारे और उनके जन लोकपाल आंदोलन ने आकर्षित किया. वे कहती हैं, ''मैं रामलीला मैदान में हजारों लोगों के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठा रही थी.”
बाद में जब कांग्रेस और सरकार विरोधी भावनाएं तीखी होने लगीं तब उनका झुकाव बीजेपी और खासकर मोदी की ओर हुआ. अब तिवारी और उनकी तरह के तमाम लोग यह मानते हैं कि उनकी कोशिशों से ही मोदी बीजेपी में प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी की रेस जीत सके हैं. वे मुस्करा कर कहती हैं, ''हमने उनकी उम्मीदवारी का समर्थन ही नहीं किया, बल्कि उसे हासिल करवा दिया.”
दिल्ली में इंटरनेट डेमोक्रेसी प्रोजेक्ट की निदेशक अंजा कोवाक्स के मुताबिक, मध्यवर्गीय युवा बीजेपी समर्थक पूरी तरह इंटरनेट प्रसार की देन हैं. वे कहती हैं, ''दरअसल, इस इंटरनेट आंदोलन की अगुआई तकनीक के उन एक्सपर्ट्स ने की है जो विदेश चले गए हैं लेकिन हर वक्त भारत से जुडऩे के मौके की तलाश में रहते हैं. मध्यवर्गीय और आर्थिक तरक्की की आकांक्षा रखने वाले युवा, जो ज्यादातर इंटरनेट से भी जुड़े हैं, स्वाभाविक तौर पर कम्युनिस्टों के बदले बीजेपी की ओर आकर्षित होंगे.”
आइआरआइएस नॉलेज फाउंडेशन और इंटरनेट ऐंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया के एक सर्वेक्षण के मुताबिक, 2014 के आम चुनावों में सोशल मीडिया 160 लोकसभा सीटों को प्रभावित करने जा रहा है. अक्तूबर में गूगल का सर्वेक्षण कहता है कि इंटरनेट से जुड़े सभी शहरी मतदाताओं का करीब 42 प्रतिशत अभी भी मन नहीं बना पाया है कि वह किसको वोट दे. इस तरह अभी एक बड़ा वोट बैंक किसी भी ओर झुक सकता है. हालांकि इसमें किसी को हैरत नहीं होनी चाहिए कि ज्यादातर शहरी मतदाताओं ने गूगल पर सबसे ज्यादा किसी नेता को तलाशा है तो वे हैं नरेंद्र मोदी.
वैसे तो ये इंटरनेट योद्धा कई भगवा खेमे से हैं (देखें बॉक्स), लेकिन इनका बड़ा हिस्सा मोदी के प्रति बड़ी शिद्दत से आकर्षित है. उसे लगता है कि मोदी कोई गलती नहीं करेंगे. पांडेय, तिवारी और किशोरावस्था से ही आरएसएस- बीजेपी से जुड़े पटकाधारी सिख 27 वर्षीय तेजिंदरपाल सिंह बग्गा का कहना है कि वे मोदी के अंध भक्त नहीं हैं, बल्कि उनकी नीतियों, उनके विकास मंत्र और उनकी साफ-सुथरी छवि के कारण उनका समर्थन करते हैं.
लेकिन, जब उनसे पूछा गया कि क्या मोदी ने अपने समूचे राजनैतिक करिअर में ऐसा कुछ किया, जिससे वे सहमत नहीं हो पाते हैं तो किसी के पास उनकी कोई भी शिकायत नहीं थी. हमने पूछा, ''तो क्या वे हमेशा सही रहे हैं?” सभी ने कमोबेश एक ही तरीके से धीरे से जवाब दिया, ''नहीं” लेकिन किसी के पास इस सवाल का खंडन करने वाला कोई उत्तर नहीं था.
ऐसा लगता है कि अधकचरी राजनैतिक समझ और भावुक किस्म की बातें ही ऑनलाइन हिंदू स्पेस में छाई हुई हैं. इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब पैट्रियट्स ऐंड पार्टीजन्स में एक अध्याय 'हिंदुत्व हेट मेल’ को समर्पित किया है, जो उन्हें कई वर्षों में लेखक और स्तंभकार के रूप में प्राप्त हुए हैं. कई ईमेल और संपादक के नाम पत्रों में उन्हें गांधी परिवार का टट्टू वगैरह बताया गया.
गुहा का मानना है कि उनका साबका ''ऐसे लोगों से पड़ा जो मुंह अंधेरे उठते हैं, एक गिलास गाय का दूध पीते हैं, सूर्य को नमस्कार करते हैं और फिर इंटरनेट खोलकर आज के सेकुलरों को तोहमत भेजने के लिए मुहावरे की तलाश करने में जुट जाते हैं.”
गुहा की बात पर शब्दश: यकीन करने के अपने खतरे हैं. आज के हिंदू ऑनलाइन योद्धा के उनके वर्णन में आंशिक सचाई ही है. अब इस बिरादरी की एक बड़ी संख्या सुबह उठती है, जॉगिंग करने जाती है, एक कप ब्लैक कॉफी का स्वाद चखती है और हजारों एक्जिक्यूटिक्स तरह अपनी एसयूवी स्टार्ट कर लेती है. इनमें डॉक्टर, इंजीनियर, आइटी प्रोफेशनल, नौकरशाह, कॉल सेंटर में काम करने वाले, पत्रकार और व्यापार-उद्योग धंधे वाले हैं.
वे अपने काम में निपुण हैं लेकिन अक्सर उनका उथला राजनैतिक ज्ञान उन्हें हास्यास्पद बना देता है और वे बेवजह आक्रामक हो उठते हैं. उनकी दुनिया में सब कुछ काला-सफेद ही होता है, उस पर और किसी तरह का रंग चढ़ता ही नहीं.
प्रीति गांधी एआइएमआइएम नेता अकबरुद्दीन ओवैसी के पिछले दिसंबर में नफरत भरे भाषण की चर्चा करते हुए कहती हैं, ''हम मुस्लिम विरोधी नहीं हैं लेकिन अगर आप हमें मजबूर कर देंगे तो प्रतिक्रिया होनी लाजिमी ही है. वरना, मेरे कुछ अच्छे दोस्त मुसलमान हैं.” बिडंबना यह है कि ऑनलाइन मुहावरों की एक गाइड 'अर्बन डिक्शनरी’ के मुताबिक, 'मेरे कुछ अच्छे दोस्त’ का अर्थ ''कुछ पूर्वाग्रहग्रस्त लोग ऐसा कहते हैं जब वे अपने पूर्वाग्रह के चक्कर में बुरे फंसते हैं.”
एका ही उनकी ताकत
इस ऑनलाइन बिरादरी के लोग अब एक-दूसरे को हकीकत में भी जानने लगे हैं. सबके पास एक-दूसरे के ईमेल, फोन नंबर, पता, होता है और सबकी कोशिश होती है कि कुछ अंतराल पर भोजन वगैरह के लिए इकट्ठा हुआ जाए. वे एक-दूसरे के शहर में जाने पर घरों में जाते हैं और बच्चों की पढ़ाई से लेकर हर चीज पर बात करते हैं. हकीकत में एक-दूसरे से भेंट-मुलाकात इस वजह से भी होती है कि इंटरनेट पर 'छद्म धर्मनिरपेक्षवादियों’ के हमले के दौरान एक-दूसरे का साथ मिले.
एक मायने में यह ढीली-ढाली ऑनलाइन बिरादरी वक्त-जरूरत पर एक-दूसरे के काम भी आती है. महीने भर पहले 35 वर्षीय रुद्र शेखर (ट्विटर पर @RudraHindu) ने खुद ही बताया कि वे किडनी की बीमारी की वजह से अस्पताल में हैं. ऑनलाइन बिरादरी ने ट्विटर पर संदेश भेजकर इलाज के लिए 2 लाख रुपए जुटा लिए.
रुद्र शेखर का 7 अक्तूबर को निधन हो गया. उनकी अंतिम इच्छा थी कि उनका अंतिम संस्कार उनके पार्थिव शरीर को बीजेपी के झंडे में लपेट कर किया जाए. बग्गा कहते हैं, ''हम उनसे कभी मिले नहीं थे लेकिन वे हमारे दोस्त थे.” रुद्र शेखर की न सिर्फ अंतिम इच्छा पूरी की गई, बल्कि उनके पिता को मोदी ने खुद फोन करके अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की.
लेकिन इस बिरादरी के सदस्यों के खिलाफ असली शिकायत तो यह है कि वे कांग्रेस नेताओं, समर्थकों और उन पत्रकारों को ढूंढ़-ढूंढ़ कर उनका पीछा करते हैं जिन्हें वे सरकार समर्थक 'पेड मीडिया’ का गिरोह बताते हैं. वे अत्यंत आक्रामक किस्म की कूट भाषा में बात करते हैं (देखें बॉक्स) और वाद-विवाद में कमजोर पडऩे पर अकसर गाली-गलौज पर उतर आते हैं. कांग्रेस के समर्थक भी गाली-गलौज का जवाब देते हैं.
लेकिन उनमें वह तल्खी नहीं होती है. इस तरह सोशल मीडिया पर राजनैतिक बहस का स्तर काफी नीचे गिर जाता है. एक कांग्रेस समर्थक अमरेश मिश्र तो शिल्पी तिवारी को मार्च में गंभीर नतीजों की धमकी दे बैठे. हालांकि कांग्रेस की तीखी आवाजें अमूमन बीजेपी समर्थकों की संख्या और उनकी तल्ख बयानी में खो-सी जाती हैं.
सीएनएन-आइबीएन की डिप्टी एडिटर सागरिका घोष के टीवी शो और लेखों पर लगातार तीखी टिप्पणी की जाती है. वे कहती हैं कि कई ट्वीट तो यूं ही हलकी-फुलकी नुक्ताचीनी होते हैं लेकिन कुछ बेहद खतरनाक. उनके शब्दों में, ''एक बार किसी ने लिखा कि वह मेरी बच्ची के स्कूल का समय जानता है. मैं काफी डर गई. ट्विटर को ऐसे ही लोग बदनाम कर रहे हैं, वरना वह अद्भुत किस्म का लोकतांत्रिक मंच है.”
मामला यहां तक पहुंच गया कि इस मई में बीजपी की आइटी इकाई के प्रमुख अरविंद गुप्ता ने पार्टी पदाधिकारियों, सदस्यों और समर्थकों के लिए सोशल मीडिया के दिशानिर्देश जारी किए. अपनी तरह के इस इकलौते दिशानिर्देश में कहा गया कि ''तरह-तरह के मसलों पर स्वस्थ बहस का हमेशा स्वागत है क्योंकि इससे मुद्दों की जटिलता और उसके पहलुओं की समझ विकसित होती है. लेकिन बहस अशोभनीय व्यवहार में नहीं बदलनी चाहिए.”
बीजेपी या उसके समर्थकों वाले ऑनलाइन ब्रिगेड का एक हिस्सा भले ही अश्लील भाषा का इस्तेमाल न करता हो, फिर भी पार्टी उन तमाम लोगों का साथ नहीं छोड़ सकती जो उसके पक्ष में इंटरनेट पर सक्रिय हैं. @HinduIDF और @barbarindian जैसे कई अज्ञात नाम सोशल मीडिया पर लगातार अश्लील भाषा का प्रयोग करते हैं लेकिन बीजेपी समर्थक उन्हें कभी कुछ नहीं कहते.
इसके पीछे तर्क यह दिया जाता है कि 'वे रैडिकल यानी उग्रपंथी हो सकते हैं पर वे हमारे अपने रैडिकल हैं.’ गुप्ता कहते हैं, ''इंटरनेट भी सिनेमा या संगीत की तरह समाज का आईना है. गाली-गलौज अमूमन अच्छी भाषा न जानने से भी निकलती है. जैसे कॉलेज में आप किसी बहस में अपनी बात ढंग से नहीं रख पाते तो अश्लील किस्म की आक्रामकता पर उतर आते हैं. लेकिन ऐसे लोग कुल मिलाकर पांच प्रतिशत ही हैं. हमारे ज्यादातर समर्थक शिक्षित और आधुनिक हैं.”
हालांकि इस ऑनलाइन बिरादरी की भाषा, उसके अर्थ और उसकी मान्यताओं पर बहस की गुंजाइश बनी रह सकती है लेकिन ज्यादातर लोग नेक इरादों से ही आए हैं. और वह इरादा है राष्ट्रवाद का. उनमें राष्ट्रवाद का जज्बा है और वे अपने विचारों के आधार पर अन्याय के खिलाफ लडऩा चाहते हैं तथा प्रभावी बदलाव लाना चाहते हैं. थोड़े ठेठ भदेसपन, कम तर्कशक्ति और थोड़ी नकारात्मकता के साथ उनके अपने नायकों का आकलन उन्हें एक गंभीर राजनैतिक बिरादरी के रूप में तब्दील कर रहा है.
इंटरनेट पर बीजेपी के वर्चस्व पर कांग्रेस के प्रवक्ता संजय झ कहते हैं, ''दुष्प्रचार ऐसे ही काम करता है. बार-बार और ऊंची आवाज में एक ही बात बोलनी पड़ती है. वे लोगों पर शब्दों और विचारों की बौछार कर देते हैं. पिछले साल तक सोशल मीडिया पर कांग्रेस की उपस्थिति लगभग नहीं के बराबर थी, इसलिए वे इतना चढ़ गए. अब कांग्रेस ने भी इस पर काम शुरू किया है. सोशल मीडिया ऐसा मंच है, जिसमें पहले पहुंचने वाले की बढ़त थोड़े समय में ही खत्म की जा सकती है.”
लेकिन कांग्रेस की यह धारणा भी ठीक नहीं लगती कि बीजेपी के इंटरनेट समर्थकों का आधार गढ़ा हुआ और फर्जी है, क्योंकि आंकड़े भी कुछ कहते हैं. सोशल मीडिया ने साफ जाहिर कर दिया है कि 2014 के आम चुनावों में वह क्या चाहता है. दूसरी पार्टियां यह सोचकर दिलासा पा सकती हैं कि ऑनलाइन बिरादरी ही यह तय नहीं करेगी कि देश की सत्ता किसे मिले. न ही अभी आप अपने वोट ट्वीट कर सकते हैं. कम-से-कम अभी तो यह संभव नहीं.
और भी... http://aajtak.intoday.in/story/rise-of-the-cyber-hindu-1-746312.html
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