Tuesday, December 11, 2012

आप कितने भोले हैं कि "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:" में रमन करने का मतलब आपकी समझ में नहीं आता. डिक्शनरी आप देखना नहीं चाहते. भांड़ में जाइए.

अछूत स्त्री नहीं ' नायर ' जाति की स्त्री की कहानी है यह. बहुत पूर्व नहीं अंगेजों के समय तक नायर स्त्रियों को अपनी छाती ढंकने तक का भी अधिकार नहीं था समाज में, भरे बाजार में उन्हें अपने स्तन नंगे रख कर ही निकलना पडता था ब्राह्मणों के आदेशानुसार . ब्राह्मण को अधिकार था कि वो किसी भी नायर के घर में रात में .....

आज भी हवस का शिकार होने की मजबूरी

 मंगलवार, 11 दिसंबर, 2012 को 08:48 IST तक के समाचार


अपनी समस्याओं के लेकर हैदराबाद में 500 देवदासियां एक जन सुनवाई में एकत्र हुई.
देवदासी प्रथा कहते ही आपके मन में आती हैं वो महिलाएं जो धर्म के नाम पर दान कर दी गईं और फिर उनका जीवन धर्म और शारीरिक शोषण के बीच जूझता रहा.
लेकिन क्या आप जानते हैं कि ये घिनौनी प्रथा आज भी जारी है.
आंध्र प्रदेश की लक्ष्मम्मा अधेड़ उम्र की हैं और उनके मां-बाप ने भी उन्हें मंदिर को देवदासी बनाने के लिए दान कर दिया.
इसकी वजह लक्ष्मम्मा कुछ यू बयां करती हैं,"मेरे माता-पिता की तीनों संतानें लड़कियां थीं. दो लड़कियों की तो उन्होंने शादी कर दी लेकिन मुझे देवदासी बना दिया ताकि मैं उनके बुढ़ापे का सहारा बन सकूं.”
आज भी आंध्र प्रदेश में, विशेषकर तेलंगाना क्षेत्र में दलित महिलाओं को देवदासी बनाने या देवी देवताओं के नाम पर मंदिरों में छोड़े जाने की रस्म चल रही है.
लक्ष्मम्मा देवदासी होने की पीड़ा जानती हैं, वो प्रथा जिसमें उन्हें खुद उनके माता-पिता ने ढकेला था.

शारीरिक शोषण


"ऐसे सारे बच्चों का डीएनए टेस्ट करवाया जाए ताकि उन के पिता का पता लग सके और उन की संपत्ति में इन बच्चों को भी हिस्सा मिल सके."
लक्ष्मम्मा, अध्यक्ष,पोराटा संघम
लक्ष्मम्मा मानती हैं कि उनका भी शारीरिक शोषण हुआ लेकिन वो अपना दर्द किसी के साथ बांटना नहीं चाहतीं.
देवदासियों की जन सुनवाई में शामिल और दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर विमला थोराट कहती हैं, "देवदासी बनी महिलाओं को इस बात का भी अधिकार नहीं रह जाता कि वो किसी की हवस का शिकार होने से इनकार कर सकें".
जिस शारीरिक शोषण के शिकार होने के सिर्फ जिक्र भर से रुह कांप जाती हैं, उस दिल दहला देने वाले शोषण को सामना ये देवदासियां हर दिन करती हैं.
ये दर्द इकलौती लक्ष्मम्मा का नहीं है, आंध्र प्रदेश में लगभग 30 हज़ार देवदासियां हैं जो धर्म के नाम पर शारीरिक शोषण का शिकार होती हैं.
लेकिन लक्ष्मम्मा बाकी देवदासियों की तरह बदकिस्मत नहीं थीं ना ही उनमें किसी हिम्मत की कमी थी.
जब लक्ष्मम्मा को मौका मिला तो न केवल वो उस व्यवस्था से निकल गईं बल्कि उसके खिलाफ संघर्ष में उठ खडी हुईं और आज वो इस व्यवस्था का शिकार बनने वाली महिलाओं के लिए आशा की एक किरण बन गई हैं.

देवदासियों का हाल

"देवदासी बनी महिलाओं को इस बात का भी अधिकार नहीं रह जाता की वो किसी की हवस का शिकार होने से इंकार कर सकें"
विमला थोराट, प्रोफेसर दिल्ली विश्वविद्यालय
लक्ष्मम्मा उस पोराटा संघम की अध्यक्ष हैं जो देवदासी व्यवस्था के विरुद्ध सामाजिक जागरूकता लाने के लिए काम कर रही है.
सभी लक्ष्मम्मा की तरह इस दलदल से नहीं निकल पातीं या कहें कि निकलने की हिम्मत नहीं कर पातीं.
निज़ामाबाद जिले की कट्टी पोसनी भी ऐसी ही एक महिला हैं.
कट्टी पोसनी कहती हैं "मेरी जो हालत है भगवान ना करे कि वो हालत किसी और की हो. मुझे केवल इसलिए देवदासी बनाया गया कि मेरा भाई बीमार रहता था. अब मैं इस से निकलना भी चाहूं तो नहीं निकल सकती क्योंकि अब मुझसे विवाह कौन करेगा और फिर मेरा स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहेगा".
लक्ष्मम्मा और लगभग 500 देवदासियां हाल ही में हैदराबाद में हुई एक जनसुनवाई के लिए इकट्ठा हुईं, जहां देवदासियों के हाल पर चर्चा की गई.
जनसुनवाई में देवदासी महिलाओं की समस्याओं पर भी चर्चा हुई जिसमें उन बच्चों का भी जिक्र आया जो इन नाजायज़ रिश्तों की पैदाइश हैं.

नाजायज़ बच्चों का हक

जन सुनवाई में अपनी बेटी के साथ मौजूद एक देवदासी.
एक और देवदासी अशम्मा कहती हैं, "केवल महबूब नगर जिले में ऐसे रिश्तों से पैदा हुए पांच से दस हज़ार बच्चे हैं. पहले उनका सर्वे होना चाहिए. इन बच्चों के लिए विशेष स्कूल और हॉस्टल होने चाहिए और उन्हें नौकरी मिलनी चाहिए ताकि वो भी सम्मान के साथ जीवन बिता सकें.”
इससे भी एक कदम आगे बढ़कर लक्ष्मम्मा ने मांग उठाई, "ऐसे सारे बच्चों का डीएनए टेस्ट करवाया जाए ताकि उनके पिता का पता लग सके और उनकी संपत्ति में इन बच्चों को भी हिस्सा मिल सके."
लक्ष्मम्मा कहती हैं कि ऐसा करने से किसी पुरुष की देवदासी के नाम पर इन महिलाओं का शोषण करने की हिम्मत नहीं होगी.

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