सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटी यानी सीएसडीएस
के फोर्ड फाउंडेशन समेत कई देशी-विदेशी आर्थिक स्रोत होंगे। गूगल सर्च में
अगर आप सीएसडीएस और फोर्ड फाउंडेशन डालकर सर्च करेंगे तो दोनों संस्थाओं के
रिश्तों के बारे में आपको कई तथ्य
मिलेंगे। लेकिन यह बात यहां महत्वपूर्ण नहीं है। ज्यादा बड़ी बात यह है कि
सीएसडीएस को सबसे ज्यादा पैसा भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय
के संस्थान इंडियन कौंसिल ऑफ सोशल साइंस रिसर्च (ICSSR) से मिलता है।
सीएसडीएस की साइट पर आप यह तथ्य देख सकते हैं।
इस बात का जिक्र करना यहां सिर्फ इसलिए जरूरी है कि सरकारी पैसे का इस्तेमाल कर रहा यह संस्थान इन दिनों भारतीय लोकतंत्र में जनता के विचारों की सबसे महत्वपूर्ण और प्रामाणिक संस्था लोकसभा में जाति जनगणना पर बनी आम सहमति के खिलाफ अभियान चला रहा है। सामाजशास्त्रीय शोध के लिए चलाया जा रहा यह संस्थान सामाजिक विविधता के आंकड़े जुटाये जाने के खिलाफ अभियान क्यों चला रहा है, इसे समझना मुश्किल नहीं है। सीएसडीएस पर भारतीय समाज के कथित रूप से उच्च वर्ण कहे जाने वालों का वर्चस्व स्पष्ट नजर आता है और जो अवर्ण लोग वहां मौजूद हैं वो फौरी फायदे, सरकारी समितियों में जाने की हड़बड़ी या दब्बूपन की वजह से प्रभावी विचार के साथ हां में हां मिलाते हैं। देश में समाजशास्त्र के सभी अध्ययन संस्थानों पर ब्राह्मणवादियों की जबर्दस्त पकड़ है।
जिस सवाल पर भारतीय समाज में इतना जबर्दस्त बंटवारा है, उसे लेकर सीएसडीएस में कोई दो राय नहीं है। यहां सभी लोग इस बात पर सहमत है कि जाति आधारित जनगणना नहीं होनी चाहिए और सवर्णों की गिनती करने से तो इनके विचार से देश पर मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ेगा। सीएसडीएस के विचारकों की ऐसी राय पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है क्योंकि ये लोग खुद को समाजवादी, लोकतांत्रिक और जनपक्षीय भी बताते हैं।
आप देखिए कि सीएसडीएस के अध्येताओं ने जाति जनगणना के खिलाफ कैसे-कैसे तर्क दिये हैं। मूल स्रोतों में जाकर आप इन आलेखों को विस्तार से पढ़ सकते हैं :
जाति ने आज इन सबको एक साथ ला दिया है। जाति के अलावा किसी और संस्था में लोगों को इस तरह जोड़ने का गुण आपने देखा है?
http://mohallalive.com/2010/06/28/caste-based-census-and-cii-csds-rss/
इस बात का जिक्र करना यहां सिर्फ इसलिए जरूरी है कि सरकारी पैसे का इस्तेमाल कर रहा यह संस्थान इन दिनों भारतीय लोकतंत्र में जनता के विचारों की सबसे महत्वपूर्ण और प्रामाणिक संस्था लोकसभा में जाति जनगणना पर बनी आम सहमति के खिलाफ अभियान चला रहा है। सामाजशास्त्रीय शोध के लिए चलाया जा रहा यह संस्थान सामाजिक विविधता के आंकड़े जुटाये जाने के खिलाफ अभियान क्यों चला रहा है, इसे समझना मुश्किल नहीं है। सीएसडीएस पर भारतीय समाज के कथित रूप से उच्च वर्ण कहे जाने वालों का वर्चस्व स्पष्ट नजर आता है और जो अवर्ण लोग वहां मौजूद हैं वो फौरी फायदे, सरकारी समितियों में जाने की हड़बड़ी या दब्बूपन की वजह से प्रभावी विचार के साथ हां में हां मिलाते हैं। देश में समाजशास्त्र के सभी अध्ययन संस्थानों पर ब्राह्मणवादियों की जबर्दस्त पकड़ है।
जिस सवाल पर भारतीय समाज में इतना जबर्दस्त बंटवारा है, उसे लेकर सीएसडीएस में कोई दो राय नहीं है। यहां सभी लोग इस बात पर सहमत है कि जाति आधारित जनगणना नहीं होनी चाहिए और सवर्णों की गिनती करने से तो इनके विचार से देश पर मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ेगा। सीएसडीएस के विचारकों की ऐसी राय पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है क्योंकि ये लोग खुद को समाजवादी, लोकतांत्रिक और जनपक्षीय भी बताते हैं।
आप देखिए कि सीएसडीएस के अध्येताओं ने जाति जनगणना के खिलाफ कैसे-कैसे तर्क दिये हैं। मूल स्रोतों में जाकर आप इन आलेखों को विस्तार से पढ़ सकते हैं :
डी एल शेठयह बात रोचक है और मजेदार भी कि जाति की गणना से उद्योग संगठन सीआईआई को भी डर लगता है और आरएसएस की भी की मान्यता है कि जाति की गिनती से देश का सत्यानाश हो जाएगा। जाति की जनगणना के सवाल ने सीआईआई, सीएसडीएस और आरएसएस को एक मंच पर ला खड़ा किया है।
http://www.indianexpress.com/news/caste-in-the-right-mould/637379/0
जाति जनगणना यानी हर भारतीय को जाति के खांचे में रखना न सिर्फ अव्यावहारिक है बल्कि संविधान की भावना के खिलाफ है… सरकार और ओबीसी नेता सभी भारतीय की जाति के आधार पर गणना करना चाहते हैं। अगर ऐसा हुआ तो यह भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का सबसे दुखद दिन होगा।
योगेंद्र यादव (सीएसडीएस) – सतीश देशपांडे (दिल्ली विवि)
औपनिवेशिक दौर की जाति जनगणना, जिसमें ‘सवर्ण ’ हिंदू सहित सभी जातियों की गिनती की जाती है, न तो व्यावहारिक है और न ही वांछनीय। (सागरिका घोष के अमर उजाला में छपे आलेख से)
योगेंद्र यादव
अमर उजाला में छपे आलेख से
असल में सरकार ने क्या फैसला किया है, इस बारे में भी स्थिति स्पष्ट न होने से अफरातफरी बढ़ी है। मीडिया इसे जातिगत जनगणना ही बताने लगा है। इससे यह धारणा बनने लगी है कि सरकार औपनिवेशिक काल में हिंदुओं की जाति और उस जातियों के आधार पर गिनती की पुरानी व्यवस्था वापस ला रही है। लेकिन इस बारे में आये प्रणब मुखर्जी के बयान से लगता है कि सरकार कुछ बहुत सीमित आंकड़े चाहती है – वह अनुसूचित जातियों और जनजातियों की तरह ओबीसी की संख्या गिनना चाहती है। अर्थात जनगणनाकर्मी आपसे सिर्फ यह पूछेंगे कि क्या आप एससी/एसटी या ओबीसी हैं और अगर आप हां कहते हैं, तभी आपकी जाति भी दर्ज करेंगे। अन्य लोगों से जाति का नाम नहीं पूछा जाएगा। जाति आधारित जनगणना की मांग की मौजूदा संदर्भों में यह सबसे तार्किक व्याख्या है।
सत्येंद्र रंजन
जनसत्ता में प्रकाशित लेख से
मुद्दा दरअसल रूढ़ हो गयी सोच से निकलने का है। जरूरत न्याय के एकांगी जुनून से बाहर आने और न्याय की समग्र सोच विकसित करने की है। समाजशास्त्री नंदिनी सुंदर ने जातीय जन-गणना के सवाल पर लिखे अपने लेख में इस बात का जिक्र किया है कि तृतीय पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति ओ चिनप्पा रेड्डी ने आजादी के बाद से जाति को जन-गणना से अलग की समझ पर विचार किया था। उन्होंने कहा था कि अगर जाति को जन-गणना में शामिल किया गया होता, तो आयोग को बहुत सी समस्याओं का सामना न करना पड़ता। लेकिन इसके साथ ही उन्होंने कहा, “लेकिन अधिक निकट जाकर सोचने पर मुझे लगता है कि जन-गणना प्रक्रिया में जाति को शामिल न कर ठीक ही किया गया। जाति को भूलने की शुरुआत आखिर कहीं न कहीं से तो करनी होगी।” यह तमाम समस्याओं के बीच भी नये समाज के निर्माण के लिए नये ढंग से सोचने की एक मिसाल है। आज यह मिसाल बेशकीमती है। इसकी अनदेखी हम अपने उच्चतर आदर्शों की अनदेखी करके ही कर सकते हैं।
अभय कुमार दुबे
http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/5922004.cms
यहां यह सवाल पूछना जायज है कि अगर जनगणना में हर नागरिक की जाति का जिक्र किया जाता , तो उसके क्या परिणाम निकलते? उसका पहला नतीजा यह निकलता कि आजादी के बाद समाज में राजनीति और बाजार के जरिये सामाजिक ऊंच-नीच की भावना में अब तक जो कमी आयी है, वह काम नहीं हो पाता। दूसरे, जिस परिघटना को अभी हम वोट बैंक कहते हैं, वह एक मोटी-मोटी अवधारणा ही है। दरअसल व्यावहारिक अर्थ में किसी जाति का वोट बैंक मौजूद नहीं है। चुनावी आंकड़े बताते हैं कि जातियों का वोट एक पार्टी को कुछ ज्यादा मिलता है, पर बाकी वोट विविध कारणों से बंट जाते हैं। इससे असल जमीन पर जातिगत समुदायों का कोई राष्ट्रीय एकीकरण नहीं हो पाता है और उनके सेक्युलरीकरण की व्यापक प्रक्रिया बिना धक्का खाये धीरे-धीरे ही सही, पर चलती रहती है। अगर सभी नागरिकों से जनगणना के दौरान उनकी जाति पूछी जाती तो हमारी राजनीति को असल में वोट बैंक का स्वाद पता चलता। तीसरे, गिनती से जुड़े हुए मौजूदा फायदों को उठाने के लिए तो लोग अपनी जातियों को बदल कर पेश तो करते ही, उनकी संख्या का अहसास ही उन्हें फायदों की राजनीति करने के लिए उकसाता। आज उनके पास निश्चित संख्याएं नहीं हैं, इसलिए ऐसी कई मांगों को नजरअंदाज किया जा सकता है। मसलन, महिला आरक्षण विधेयक में पिछड़ी जातियों का कोटा शामिल करने की मांग को ठुकराना तब नामुमकिन हो जाता और संविधान की भावना का उल्लंघन करते हुए स्त्रियों के नाम पर पिछड़ी जातियों द्वारा राजनीतिक आरक्षण हड़पने की संभावना बढ़ जाती।
जाति ने आज इन सबको एक साथ ला दिया है। जाति के अलावा किसी और संस्था में लोगों को इस तरह जोड़ने का गुण आपने देखा है?
http://mohallalive.com/2010/06/28/caste-based-census-and-cii-csds-rss/
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