[दैनिक जागरण में 05-07-2014 को प्रकाशित]
सर्वोच्च न्यायालय का दहेज़ को आपराधिक और दंडनीय बनाने वाले भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए के दुष्प्रयोग की बात करते हुए ससुराल पक्ष के लोगों को तुरंत गिरफ्तार न करने का निर्देश चौंकाने वाला है. ख़ास तौर पर इसलिए कि इसके पहले सर्वोच्च न्यायालय ऐसे ही मामलों में निचली अदालतों ही नहीं बल्कि उच्च न्यायालयों तक द्वारा दी गयी जमानतों पर नाराजगी व्यक्त करते हुए उन्हें निरस्त करता रहा है. उदाहरण के लिए समुन्दर सिंह विरुद्ध राजस्थान राज्य (1987) का फैसला याद किया जा सकता है. उस फैसले में शादी के कुछ ही दिनों के भीतर पुत्रवधु की ससुराल में हुई मृत्यु के मामले में आरोपियों को उच्च न्यायालय द्वारा दी गयी अग्रिम जमानत को खारिज कर दिया था. साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले को दहेज़ जैसे मामलों में पूर्वाग्रह का सबूत बताते हुए उसने निचली अदालतों को ऐसे सभी मामलों में सतर्कता बरतने का आदेश भी दिया था.
फिर ऐसा क्या हुआ कि उसी सर्वोच्च न्यायालय ने दहेज़ उत्पीड़न के ही मामलों में मुकदमा दर्ज होते ही गिरफ्तारी न करने का निर्देश ही नहीं दिया बल्कि 9 बिन्दुओं की एक जांच सूची भी बना दी जिनके बाद ही गिरफ्तारी की जा सकती है. दिलचस्प यह है कि यह आदेश इसके बाद यह भी सुनिश्चित करता है कि विवेचना अधिकारी के इन बिन्दुओं पर निश्चिन्त होने के बावजूद भी मजिस्ट्रेट उनका परिक्षण करेगा और स्वयं संतुष्ट होने के बाद ही आरोपियों को अभिरक्षा में भेजा जाएगा. इतना ही नहीं, सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रक्रिया का दायरा सिर्फ आईपीसी 498 ए या दहेज़ प्रतिषेध अधिनियम के सेक्शन 4 तक ही सीमित नहीं रखा है. अदालत ने इसे ऐसे सभी मामलों के लिए लागू किया है जिनमे अपराध की सजा जुर्माने के साथ या बिना सात वर्ष से कम हो या अधिकतम सात साल तक ही बढ़ाई जा सकती हो.
दिलचस्प यह भी है कि यह आदेश कोई अकेला आदेश नहीं कि इसे किसी एक न्यायमूर्ति का निजी विचार कह कर खारिज किया जा सके. इस मामले के ठीक पहले लिव इन संबंधों में दरार के बाद महिलाओं द्वारा लगाए गए बलात्कार के आरोपों पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने तुरंत गिरफ्तारी न करने का आदेश दिया था. 27 जून 2014 को दिए गए उस फैसले में न्यायमूर्ति विक्रमजीत सेन और एस के सिंह की पीठ ने पूछा था कि क्या सहमति के संबंधों का असफल हो जाना पुरुष के खिलाफ बलात्कार का आरोप लगाने तक जा सकता है? ऐसी ही चिंता पिछले साल बॉम्बे उच्च न्यायालय समेत और भी न्यायालय जता चुके हैं.
आशानुरूप, इस फैसले से नारीवादी संगठनों से लेकर सिविल सोसायटी के अन्य हिस्सों को भी गहरी निराशा हुई है. उनमें से तमाम ने इस फैसले को भारतीय समाज में अब भी मौजूद पितृसत्ता और स्त्रीद्वेष का प्रतिफलन भी लगा है. उनका तर्क अपने आप में गलत भी नहीं है. भारतीय समाज आज भी स्त्रियों को दोयम दर्जे का समझने वाला मर्दवादी समाज है. यह समझने के लिए कहीं दूर जाने की भी जरुरत नहीं है. नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के सालाना आंकड़े अपने समाज में स्त्रियों की सामान्य तौर पर भयावह स्तिथि ही नहीं बल्कि दहेज़ के मामलों में भी कोई ख़ास कमी न आने की तरफ साफ़ इशारा करते हैं. फिर अभियोग साबित न होने की दर भी दहेज़ के मामलों में अन्य अपराधों से कुछ ख़ास अलग नहीं है. कानून के दुरुपयोग की बात भी अकेले दहेज़ और बलात्कार के मामलों पर लागू नहीं होती बल्कि तमाम अन्य मामलों में स्तिथि ऐसी ही है.
पर इसी जगह अपने आप में नकारात्मक दिखता हुआ यह फैसला भारतीय आपराधिक न्याय व्यवस्था की तमाम बड़ी दिक्कतों की तरफ इशारा भी करता है. जैसे कि पीठ का खुद का ही दिया आंकड़ा कि अकेले 2012 में इस कानून के तहत गिरफ्तार कुल लोगों का चौथाई हिस्सा महिलाओं का था. कहना न होगा कि यह सभी महिलाएं आरोपी पुरुष की रिश्तेदार होंगी. अब बताएं कि हजार दोषी छूट जाएँ एक निर्दोष सजा न पाए जिस न्याय व्यवस्था का मूल आधार हो उसमे इन महिला बंदियों में सालों जेल काट कर बाइज्जत बरी होने वाली महिलाओं को न्याय कौन देगा? फिर सवाल केवल महिलाओं का ही नहीं है.
भारतीय न्यायव्यवस्था ही नहीं बल्कि अभियोग साबित होने तक निर्दोषता की अवधारणा कॉमन लॉ मानने वाली सभी आपराधिक न्यायव्यवस्थाओं का मूल आधार है. इसके आगे यह कि विधि के शासन वाली इसी राज्य व्यवस्था में किसी भी आरोपी को खुद अपने खिलाफ गवाही देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता. यहाँ तक कि यह अधिकार रंगे हाथ पकडे गए आरोपी को भी है. विधि के शासन को स्वीकार करने वाली सभी न्याय व्यवस्थाओं का अगला मूल आधार है कि जमानत सामान्य प्रक्रिया होनी चाहिए और गिरफ्तारी केवल अंतिम विकल्प. इस मामले में भी बेंच ने साफ़ किया है कि क्योंकि गिरफ्तारी नागरिकों के अधिकारों को सीमित करती है, उन्हें अपमानित करती है और उनके ऊपर एक अमित धब्बा लगा देती है, इसीलिए वह मानते हैं कि कोई भी गिरफ्तारी सिर्फ इस आधार पर नहीं होनी चाहिए कि आरोप संज्ञेय और गैरजमानती हैं.
अगला सवाल इससे भी बड़ा है. मैजिस्ट्रसी की अवधारणा का उदय न केवल इसीलिए हुआ था कि क़ानून लागू करवाने वाली संस्थाओं का नागरिकों की आजादी छीनने का असीमित आधार सीमित किया जा सके बल्कि इसलिए भी ताकि यह आजादी गलत तरीके से न छीनी जा सके. क्या इस मामले में कोई संशय है कि भारतीय पुलिस अक्षम ही नहीं बल्कि भ्रष्ट भी है और वह तमाम मामलों में गिरफ्तारी को घूस का सबसे बड़ा जरिया बनाने के लिए जानी जाती रही है? अफ़सोस यह है कि दहेज़ उत्पीड़न के मामलों में परिवार की महिला सदस्यों की गिरफ्तारी की आजादी एक मर्दवादी समाज में पुलिस की इस ताकत को असीमित बना देती रही है. एक दूसरी नजर से भी देखें ज्यादातर परिवार द्वारा तय किये गए विवाहों वाले देश में वर और वधू पक्ष लगभग समान सामाजिक और आर्थिक स्तिथि के होते हैं. कितने भी कम मामलों में सही, विवाह विच्छेद को सामाजिक अपमान मानने वाले ऐसे समाज में फिर किसी भी कारण से हुए विच्छेद को दहेज़ उत्पीड़न का रूप देने में कितनी देर लगेगी?
या फिर दहेज़ के ही मामलों में क्यों, सालों से विचाराधीन कैदियों से भरी हुई भारतीय जेलें इस समस्या का एक और सबूत हैं. ऐसे में 7 साल की कम सजा में समयबद्ध विवेचना के बाद गिफ्तारी स्तिथि को बेहतर बनाएगी ख़राब नहीं.
बेशक इस फैसले की नारीवादी आलोचना कुछ पहलुओं पर ठीक है. पर शायद उन्हें भी याद करना चाहिए कि विधि के शासन वाली किसी न्यायप्रणाली में आरोप लगते ही गिरफ्तारी का प्राविधान नहीं है. यह भी कि वे स्वयं अन्य मामलों जैसे आतंकवाद के अभियोग में सिर्फ आरोपों के आधार पर दशकों जेल में सड़ने को मजबूर किये जाने वाले अल्पसंख्यक युवकों के लिए लड़ते रहे हैं. पर फिर, इस समस्या का समाधान क्रूर कानून बनाने में नहीं बल्कि विवेचना से लेकर न्याय तक आपराधिक न्यायवस्था को ठीक करने में ही है. और वह सुप्रीम कोर्ट के द्वारा संगठित अपराधियों का गिरोह कही गयी पुलिस और उच्चतम न्यायालय के द्वारा स्वीकार की गयी भ्रष्ट निचली न्यायपलिका के रहते होगा नहीं.
हमें याद करना चाहिए कि ब्रिटेन, जहाँ से हमारी न्यायव्यवस्था निकलती है से लेकर दुनिया के किसी देश में बलात्कार का या अन्य प्रकार की यौन हिंसा का आरोप लगते ही गिरफ्तारी का कोई प्राविधान नहीं है. फिर क्या वह हमसे ज्यादा स्त्रीद्वेषी हैं या वहां स्त्रियों के खिलाफ हमसे ज्यादा अपराध होते हैं? नहीं न, और यह इसलिए नहीं है कि वे पितृसत्तामुक्त हैं या वहाँ स्त्रियों ने बराबरी हासिल कर ली है. क्रूर कानून न होने के बावजूद वहाँ यह अपराध इसलिए कम हैं क्योंकि उनकी न्यायव्यवस्था काम करती है.
हमें यह भी ख्याल रखना होगा कि १६ दिसंबर गैंगरेप प्रतिरोध के खिलाफ हमारा न्यायोचित गुस्से का इस्तेमाल पितृसत्ता ने एक और अपराध में मृत्युदंड जैसी सजा ले आने में किया था. इस बार का फैसला अगर 7 साल से कम सजा वाले सभी अभियोगों में सीआरपीसी की धारा 41 के तहत दी गयी सुरक्षाओं के बाद ही गिरफ्तारी सुनिश्चित कर रहा है तो यह कतई गलत नहीं है.
http://www.mofussilmusings.com/2014/07/blog-post_5.html
सर्वोच्च न्यायालय का दहेज़ को आपराधिक और दंडनीय बनाने वाले भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए के दुष्प्रयोग की बात करते हुए ससुराल पक्ष के लोगों को तुरंत गिरफ्तार न करने का निर्देश चौंकाने वाला है. ख़ास तौर पर इसलिए कि इसके पहले सर्वोच्च न्यायालय ऐसे ही मामलों में निचली अदालतों ही नहीं बल्कि उच्च न्यायालयों तक द्वारा दी गयी जमानतों पर नाराजगी व्यक्त करते हुए उन्हें निरस्त करता रहा है. उदाहरण के लिए समुन्दर सिंह विरुद्ध राजस्थान राज्य (1987) का फैसला याद किया जा सकता है. उस फैसले में शादी के कुछ ही दिनों के भीतर पुत्रवधु की ससुराल में हुई मृत्यु के मामले में आरोपियों को उच्च न्यायालय द्वारा दी गयी अग्रिम जमानत को खारिज कर दिया था. साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले को दहेज़ जैसे मामलों में पूर्वाग्रह का सबूत बताते हुए उसने निचली अदालतों को ऐसे सभी मामलों में सतर्कता बरतने का आदेश भी दिया था.
फिर ऐसा क्या हुआ कि उसी सर्वोच्च न्यायालय ने दहेज़ उत्पीड़न के ही मामलों में मुकदमा दर्ज होते ही गिरफ्तारी न करने का निर्देश ही नहीं दिया बल्कि 9 बिन्दुओं की एक जांच सूची भी बना दी जिनके बाद ही गिरफ्तारी की जा सकती है. दिलचस्प यह है कि यह आदेश इसके बाद यह भी सुनिश्चित करता है कि विवेचना अधिकारी के इन बिन्दुओं पर निश्चिन्त होने के बावजूद भी मजिस्ट्रेट उनका परिक्षण करेगा और स्वयं संतुष्ट होने के बाद ही आरोपियों को अभिरक्षा में भेजा जाएगा. इतना ही नहीं, सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रक्रिया का दायरा सिर्फ आईपीसी 498 ए या दहेज़ प्रतिषेध अधिनियम के सेक्शन 4 तक ही सीमित नहीं रखा है. अदालत ने इसे ऐसे सभी मामलों के लिए लागू किया है जिनमे अपराध की सजा जुर्माने के साथ या बिना सात वर्ष से कम हो या अधिकतम सात साल तक ही बढ़ाई जा सकती हो.
दिलचस्प यह भी है कि यह आदेश कोई अकेला आदेश नहीं कि इसे किसी एक न्यायमूर्ति का निजी विचार कह कर खारिज किया जा सके. इस मामले के ठीक पहले लिव इन संबंधों में दरार के बाद महिलाओं द्वारा लगाए गए बलात्कार के आरोपों पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने तुरंत गिरफ्तारी न करने का आदेश दिया था. 27 जून 2014 को दिए गए उस फैसले में न्यायमूर्ति विक्रमजीत सेन और एस के सिंह की पीठ ने पूछा था कि क्या सहमति के संबंधों का असफल हो जाना पुरुष के खिलाफ बलात्कार का आरोप लगाने तक जा सकता है? ऐसी ही चिंता पिछले साल बॉम्बे उच्च न्यायालय समेत और भी न्यायालय जता चुके हैं.
आशानुरूप, इस फैसले से नारीवादी संगठनों से लेकर सिविल सोसायटी के अन्य हिस्सों को भी गहरी निराशा हुई है. उनमें से तमाम ने इस फैसले को भारतीय समाज में अब भी मौजूद पितृसत्ता और स्त्रीद्वेष का प्रतिफलन भी लगा है. उनका तर्क अपने आप में गलत भी नहीं है. भारतीय समाज आज भी स्त्रियों को दोयम दर्जे का समझने वाला मर्दवादी समाज है. यह समझने के लिए कहीं दूर जाने की भी जरुरत नहीं है. नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के सालाना आंकड़े अपने समाज में स्त्रियों की सामान्य तौर पर भयावह स्तिथि ही नहीं बल्कि दहेज़ के मामलों में भी कोई ख़ास कमी न आने की तरफ साफ़ इशारा करते हैं. फिर अभियोग साबित न होने की दर भी दहेज़ के मामलों में अन्य अपराधों से कुछ ख़ास अलग नहीं है. कानून के दुरुपयोग की बात भी अकेले दहेज़ और बलात्कार के मामलों पर लागू नहीं होती बल्कि तमाम अन्य मामलों में स्तिथि ऐसी ही है.
पर इसी जगह अपने आप में नकारात्मक दिखता हुआ यह फैसला भारतीय आपराधिक न्याय व्यवस्था की तमाम बड़ी दिक्कतों की तरफ इशारा भी करता है. जैसे कि पीठ का खुद का ही दिया आंकड़ा कि अकेले 2012 में इस कानून के तहत गिरफ्तार कुल लोगों का चौथाई हिस्सा महिलाओं का था. कहना न होगा कि यह सभी महिलाएं आरोपी पुरुष की रिश्तेदार होंगी. अब बताएं कि हजार दोषी छूट जाएँ एक निर्दोष सजा न पाए जिस न्याय व्यवस्था का मूल आधार हो उसमे इन महिला बंदियों में सालों जेल काट कर बाइज्जत बरी होने वाली महिलाओं को न्याय कौन देगा? फिर सवाल केवल महिलाओं का ही नहीं है.
भारतीय न्यायव्यवस्था ही नहीं बल्कि अभियोग साबित होने तक निर्दोषता की अवधारणा कॉमन लॉ मानने वाली सभी आपराधिक न्यायव्यवस्थाओं का मूल आधार है. इसके आगे यह कि विधि के शासन वाली इसी राज्य व्यवस्था में किसी भी आरोपी को खुद अपने खिलाफ गवाही देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता. यहाँ तक कि यह अधिकार रंगे हाथ पकडे गए आरोपी को भी है. विधि के शासन को स्वीकार करने वाली सभी न्याय व्यवस्थाओं का अगला मूल आधार है कि जमानत सामान्य प्रक्रिया होनी चाहिए और गिरफ्तारी केवल अंतिम विकल्प. इस मामले में भी बेंच ने साफ़ किया है कि क्योंकि गिरफ्तारी नागरिकों के अधिकारों को सीमित करती है, उन्हें अपमानित करती है और उनके ऊपर एक अमित धब्बा लगा देती है, इसीलिए वह मानते हैं कि कोई भी गिरफ्तारी सिर्फ इस आधार पर नहीं होनी चाहिए कि आरोप संज्ञेय और गैरजमानती हैं.
अगला सवाल इससे भी बड़ा है. मैजिस्ट्रसी की अवधारणा का उदय न केवल इसीलिए हुआ था कि क़ानून लागू करवाने वाली संस्थाओं का नागरिकों की आजादी छीनने का असीमित आधार सीमित किया जा सके बल्कि इसलिए भी ताकि यह आजादी गलत तरीके से न छीनी जा सके. क्या इस मामले में कोई संशय है कि भारतीय पुलिस अक्षम ही नहीं बल्कि भ्रष्ट भी है और वह तमाम मामलों में गिरफ्तारी को घूस का सबसे बड़ा जरिया बनाने के लिए जानी जाती रही है? अफ़सोस यह है कि दहेज़ उत्पीड़न के मामलों में परिवार की महिला सदस्यों की गिरफ्तारी की आजादी एक मर्दवादी समाज में पुलिस की इस ताकत को असीमित बना देती रही है. एक दूसरी नजर से भी देखें ज्यादातर परिवार द्वारा तय किये गए विवाहों वाले देश में वर और वधू पक्ष लगभग समान सामाजिक और आर्थिक स्तिथि के होते हैं. कितने भी कम मामलों में सही, विवाह विच्छेद को सामाजिक अपमान मानने वाले ऐसे समाज में फिर किसी भी कारण से हुए विच्छेद को दहेज़ उत्पीड़न का रूप देने में कितनी देर लगेगी?
या फिर दहेज़ के ही मामलों में क्यों, सालों से विचाराधीन कैदियों से भरी हुई भारतीय जेलें इस समस्या का एक और सबूत हैं. ऐसे में 7 साल की कम सजा में समयबद्ध विवेचना के बाद गिफ्तारी स्तिथि को बेहतर बनाएगी ख़राब नहीं.
बेशक इस फैसले की नारीवादी आलोचना कुछ पहलुओं पर ठीक है. पर शायद उन्हें भी याद करना चाहिए कि विधि के शासन वाली किसी न्यायप्रणाली में आरोप लगते ही गिरफ्तारी का प्राविधान नहीं है. यह भी कि वे स्वयं अन्य मामलों जैसे आतंकवाद के अभियोग में सिर्फ आरोपों के आधार पर दशकों जेल में सड़ने को मजबूर किये जाने वाले अल्पसंख्यक युवकों के लिए लड़ते रहे हैं. पर फिर, इस समस्या का समाधान क्रूर कानून बनाने में नहीं बल्कि विवेचना से लेकर न्याय तक आपराधिक न्यायवस्था को ठीक करने में ही है. और वह सुप्रीम कोर्ट के द्वारा संगठित अपराधियों का गिरोह कही गयी पुलिस और उच्चतम न्यायालय के द्वारा स्वीकार की गयी भ्रष्ट निचली न्यायपलिका के रहते होगा नहीं.
हमें याद करना चाहिए कि ब्रिटेन, जहाँ से हमारी न्यायव्यवस्था निकलती है से लेकर दुनिया के किसी देश में बलात्कार का या अन्य प्रकार की यौन हिंसा का आरोप लगते ही गिरफ्तारी का कोई प्राविधान नहीं है. फिर क्या वह हमसे ज्यादा स्त्रीद्वेषी हैं या वहां स्त्रियों के खिलाफ हमसे ज्यादा अपराध होते हैं? नहीं न, और यह इसलिए नहीं है कि वे पितृसत्तामुक्त हैं या वहाँ स्त्रियों ने बराबरी हासिल कर ली है. क्रूर कानून न होने के बावजूद वहाँ यह अपराध इसलिए कम हैं क्योंकि उनकी न्यायव्यवस्था काम करती है.
हमें यह भी ख्याल रखना होगा कि १६ दिसंबर गैंगरेप प्रतिरोध के खिलाफ हमारा न्यायोचित गुस्से का इस्तेमाल पितृसत्ता ने एक और अपराध में मृत्युदंड जैसी सजा ले आने में किया था. इस बार का फैसला अगर 7 साल से कम सजा वाले सभी अभियोगों में सीआरपीसी की धारा 41 के तहत दी गयी सुरक्षाओं के बाद ही गिरफ्तारी सुनिश्चित कर रहा है तो यह कतई गलत नहीं है.
http://www.mofussilmusings.com/2014/07/blog-post_5.html
मनुस्मृति 3.56– जिस समाज यापरिवार में स्त्रियों का आदर – सम्मान होता है, वहां देवता अर्थात् दिव्यगुण और सुख़- समृद्धि निवास करते हैं और जहां इनका आदर – सम्मान नहीं होता, वहां अनादर करने वालों के सभी काम निष्फल हो जाते हैं भले ही वे कितना हीश्रेष्ट कर्म कर लें, उन्हें अत्यंत दुखों का सामना करना पड़ता है |
ReplyDelete3.57 – जिसकुल में स्त्रियां अपने पति के गलत आचरण, अत्याचार या व्यभिचार आदि दोषोंसे पीड़ित रहती हैं, वह कुल शीघ्र नाश को प्राप्त हो जाता है और जिस कुल मेंस्त्रीजन पुरुषों के उत्तम आचरणों से प्रसन्न रहती हैं, वह कुल सर्वदाबढ़ता रहता है |
9.11– धन की संभाल और उसके व्यय की जिम्मेदारी, घर और घर के पदार्थों कीशुद्धि, धर्म और अध्यात्म केअनुष्ठान आदि, भोजन पकाना और घर की पूरी सार -संभाल में स्त्री को पूर्ण स्वायत्ता मिलनी चाहिए और यह सभी कार्य उसी केमार्गदर्शन में होने चाहिए
3.52 – जो वर के पिता, भाई, रिश्तेदार आदि लोभवश, कन्या या कन्या पक्ष से धन, संपत्ति, वाहन या वस्त्रों को लेकर उपभोग करके जीते हैं वे महा नीच लोग हैं |
इस तरह, मनुस्मृति विवाह मेंकिसी भी प्रकार के लेन- देन का पूर्णत: निषेध करती है ताकि किसी में लालचकी भावना न रहे और स्त्री के धन को कोई लेने की हिम्मत न करे | यहां तक कि मनुस्मृति तो दहेज़ सहित विवाह को ‘दानवी‘ या ‘आसुरी‘ विवाहकहती है |