ये फूहड़ हँसी, ये भद्दे चुटकुले
बुधवार, 26 फ़रवरी, 2014 को 10:46 IST तक के समाचार
दो दशक पहले जिन बातों पर भारतीय
हंसते थे, शायद अब वे मज़ाक बदल गए हैं. इसका सबूत टीवी चैनलों पर वे शो
हैं, जो कॉमेडी के नाम पर परोसे जा रहे हैं.
'फ्लाप शो', 'ये जो है जिंदगी' या 'नुक्कड़' किसी और ज़माने की बातें लगती हैं.भारत में कॉमेडी के कारोबार से जुड़े लोग भी इससे सहमत नज़र आते हैं. शेखर सुमन लंबे समय तक कॉमेडी कार्यक्रमों में जज और मेज़बान की भूमिका में नज़र आते रहे लेकिन फिर उन्होने हाथ खींच लिए.
बीबीसी ने शेखर से ख़ास बातचीत में जब ये सवाल उठाया तो उनका कहना था, ‘‘जिस तरह का कंटेट इस्तेमाल होने लगा था, द्विअर्थी और अश्लील, उससे मामला गड़बड़ा गया. निकलना ज़रूरी हो गया था. मुझे लगता है मैं ज़्यादा रुक गया. दो चार साल और पहले निकलना चाहिए था.’’
क्लिक करें कॉमेडी का असर
खिचड़ी, साराभाई वर्सेज़ साराभाई जैसे बेहद सफल हास्य धारावाहिक बनाने वाले जमनादास मजीठिया कहते हैं, ‘‘रोज़ रोज़ कॉमेडी बनाना भी इतना आसान नहीं है इसलिए विषयवस्तु बेहद हल्की है. स्टैंड अप कॉमेडी में ज़्यादातर युवाओं को रिझाने की कोशिश रहती है. अक्लमंदी भरा हास्य नहीं है हमारे पास क्योंकि मज़बूत लिखाई नहीं है. बहुत फीका और कमज़ोर हो चुका है कंटेट.’’
हंसी की कसौटी
टीवी कलाकार रहीं वाणी त्रिपाठी भारतीय टेलीविज़न पर एक असमंजस की स्थिति की ओर इशारा करती हैं.वो कहती हैं, ''हम ये तय नहीं कर पा रहे हैं कि व्यंग्य, फूहड़ व्यंग्य और फूहड़ कॉमेडी में क्या फर्क है. जो दिखता है वो बिकता है और टीआरपी के चक्कर में फंसकर हमने फूहड़ मज़ाक को अपना लिया है, जबकि हमारा टीवी का इतिहास स्तरीय राजनीतिक, सामाजिक और व्यक्तिगत हास्य वाले कार्यक्रमों से भरपूर रहा है.''
लाफ़्टर चैलेंज जैसे स्टैंड-अप कॉमेडी कार्यक्रमों और उनसे निकले कलाकारों ने इस तस्वीर को बदलने में अहम भूमिका निभाई. आज टीवी पर कॉमेडी का पर्याय हैं ऐसे ही एक कॉमेडियन कपिल शर्मा, फ़िल्मी सितारों से भरा उनका कार्यक्रम और कुछ अजीबो ग़रीब महिलाएं बने पुरुष.
हाल ये है कि इस कार्यक्रम की लोकप्रियता ने जो लकीर खींची है, प्रतियोगी चैनल उसे छोटा करने में लग गए हैं. मसला किसी एक कार्यक्रम का नहीं है बल्कि कॉमेडी के नाम पर लोगों की खिल्ली उड़ाने की नई हदें पार करना है.
महीन रेखा
ज़नाना भूमिकाओं में मर्द कलाकार इन कार्यक्रमों में स्पेशल इफ़ेक्ट लेकर आते हैं और जो औरतें औरतों का ही रोल कर रही हैं, उन्हें तरह तरह की भद्दी टिप्पणियों का शिकार बनाया जाता है, जिनका दायरा उनके शारीरिक डील-डौल से लेकर उनके मायके वाले रिश्तेदारों तक फैला है. वे बोले जाते हैं और पीछे से हंसी-ठठ्ठे की आवाज़ें आती हैं, जो बहुत बार दर्शकों की नहीं होती.क्लिक करें चुटकी की चुनौती
टीवी समीक्षक शैलजा बाजपेयी कहती हैं, ''ऐसा लगता है जैसे टीवी चैनल ये मान चुके हैं कि औरतों के लिए वो डेली सोप बना रहे हैं. पुरूषों के लिए खेल और समाचार हैं और छोटे शहरों में रहने वाले लोगों के लिए इस तरह के हास्य कार्यक्रम. इन कार्यक्रमों का लक्ष्य महानगर नहीं हैं. जो चल रहा है वो चलता जा रहा है. किसी में हिम्मत नहीं है कि उठ कर इसे बदले.''
भारत में रेडियो-टीवी माध्यमों से प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों की शिकायतें सुनने का काम ब्रॉडकास्ट कंटेट कंप्लेंट काउंसिल का है. काउंसिल ने साल 2012 में कॉमेडी में परोसे जा रही अश्लीलता के ख़िलाफ़ चैनलों को चेताते हुए कहा कि कॉमेडी की अहम भूमिका है लेकिन घटियापन, अश्लीलता और द्विअर्थी सामग्री को अलग करने वाली महीन रेखा को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए.
वे ‘साफसुथरे’ दिन
एक आम भारतीय की जिंदगी में रोज़ पैदा होने वाली परिस्थितियों को केंद्र में रखकर कहानी बुनना कुछ बेहद सफल हास्य धारावाहिकों की लोकप्रियता का आधार रहा है फिर चाहे वो सरकारी दफ़्तरों में रोज़ मीटिंग में वक़्त ज़ाया करने का मसला हो, महंगाई या फिर चुनावों के वक़्त किए जाने वाले वायदों का सच. हास्य निकलता था बुनियादी बातों से.
पर अब लोकप्रियता की कसौटियों पर सबसे आगे नज़र आने वाले कॉमेडी कार्यक्रमों में लोगों से जुड़ी बातें और मुद्दे नदारद दिखते हैं.
कॉमेडी धारावाहिकों से ही अपनी पहचान बनाने वाले निर्माता-निर्देशक भी हास्य की कसौटियों में आए इस बदलाव को स्वीकार करते हैं.
टीवी कॉमेडी की दुनिया में इस वक़्त बेहद चर्चित चेहरे स्तरहीन कॉमेडी को लेकर शायद उतने चिंतित नहीं हैं.
क्लिक करें भाड़े की हंसी
जहां डॉली आहलूवालिया इसे व्यक्ति-विशेष का फ़ैसला मानती हैं वहीं कॉमेडी नाइट्स विद कपिल में ‘गुत्थी’ के किरदार से चर्चा में आए सुनील ग्रोवर बचाव करते हुए कहते हैं, ‘‘कॉमेडियन की कोशिश होती है कि लोग उसके चुटकुले को व्यक्तिगत तौर पर ना लें. हालांकि कई बार लोग भावना में बह जाते हैं और मुंह से निकल जाता है लेकिन उतना ही करेंगे जितना हास्य की परिभाषा के अंदर आता है उससे ज़्यादा नहीं करेंगे.’’
निशाने पर महिलाएं
लेकिन श्वेता ये भी जोड़ती हैं, ‘‘अगर थोड़ी बेइज्ज़ती करवानी भी पड़े तो चलता है. शायद भारतीयों का सेंस ऑफ़ ह्यूमर ऐसा ही है. हम दूसरों की बेइज़्ज़ती होने पर ही ज़्यादा हंसते हैं.’’
हालांकि वाणी त्रिपाठी महिलाओं के प्रस्तुतिकरण की कड़े शब्दों में आलोचना करते हुए कहती हैं, ''पहले तो फ़िल्म कलाकारों को निशाना बनाकर चुटकुले लिखे जाते थे. फिर दौर आया जब नेता निशाना बने और अब तो स्तर इतना नीचे चला गया है कि महिलाओं का चरित्र हनन ही होने लगा है. मुझे तो ये समझ में नहीं आता कि जो महिलाएं इनमें काम करती हैं उन्हें क्यों इसमें फूहड़ता नज़र नहीं आती. मैं इसकी भर्त्सना करती हूं.''
टीआरपी की दौड़
जमनादास मजीठिया साफ़ तौर पर दो तरह के दर्शकों की उपस्थिति मानते हैं- एक पारिवारिक और दूसरा स्टैंड-अप हास्य में रूचि रखने वाले युवा.
लंबे समय तक टीवी से जुड़े रहने वाले और अब फ़िल्मकार साजिद ख़ान भी मानते हैं कि दर्शकों में ही तमाम वर्ग मौजूद हैं.
ये धारावाहिक या फ़िल्म बनाने वाले या फिर किताब लिखने वाले पर निर्भर है कि वो किस तरह के दर्शकों में अपनी पैठ बनाना चाहता है.
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