"न्यू मीडिया को सरकारी और कॉरपोरेट दबाव जल्द अपने कब्जे में ले लेगा"
कथादेश के मीडिया विशेषांक के अप्रैल अंक में मीडिया पर कई महत्वपूर्ण और शोधपरक लेखों के अलावा अरुंधति रॉय का एक महत्वपूर्ण इंटरव्यू भी छपा था. इस इंटरव्यू में अरुंधति रॉय ने भारतीय मीडिया के बारे में कुछ टिप्पणियाँ की. अरुंधति रॉय का मानना है कि यह महज बीस फीसदी लोगों का मीडिया है. इस इंटरव्यू को पत्रकार जीतेन्द्र कुमार ने कथादेश के लिए लिया. गौरतलब है कि जीतेन्द्र कुमार ने अरुंधति के अंग्रेजी उपन्यास का हिंदी में अनुवाद भी किया है. अरुंधति रॉय का यह इंटरव्यू कथादेश से साभार लेकर हम मीडिया खबर के पाठकों के लिए यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं.(मॉडरेटर)अरुंधति रॉय की जीतेन्द्र कुमार से बातचीत
देश में मानवाधिकारों का गला घोंटने वाली हर सरकारी गतिविधि के खिलाफ खुलकर सामने आने वाली अरुंधति रॉय की समझ भारतीय मीडिया के बारे में बहुत साफ है कि यह पूरी तरह से पूंजी और मुनाफे का खेल है. इसमें बहुसंख्यक जनता के लिए कोई जगह नहीं है. कथादेश के लिए जीतेन्द्र कुमार से बातचीत करते हुए भी उन्होंने मीडिया के इस चेहरे को कई उदाहरणों के जरिये समझाने की कोशिश की.
मीडिया को फोर्थ पिलर ऑफ़ डेमोक्रेसी कहा जाता है, आपका क्या कहना है?
मीडिया को फोर्थ पिलर हमारे ही तरह के लोकतंत्र के लिए कहा जाता है. जिस मीडिया को हम फोर्थ पिलर कहते हैं, हम उसके बारे में क्यों नहीं जानना चाहते हैं कि इसमें सौ फीसदी पूंजी कॉरपोरेट की पूंजी है. इसलिए जैसा देश में लोकतंत्र है, उसी तरह मीडिया भी लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है. उदाहरण के तौर पर हम राडिया टेप से बातों को समझ सकते हैं. हमारे सामने राडिया का पूरा टेप नहीं है या कह लो कि सभी टेप के बारे में जानकारी नहीं है, लेकिन जो भी जानकारी है, वह यह बताने के लिए काफी है कि हमारा यह तथाकथित चौथा स्तंभ कहां खड़ा है और किसके लिए काम करता है! इसलिए मैं कहती हूं कि जब चौथे स्तंभ की पूरी कमाई ही कॉरपोरेट घरानों और सरकार पर टिकी है, तो फिर कैसे हम इसकी अपेक्षा रखते हैं कि मीडिया आम लोगों की जिंदगी से जुड़ी समस्याओं को सबके सामने रखेगा.
भारत में मीडिया किसके लिए काम करता है?
बहुत ही स्पष्ट रूप में देश के रूलिंग क्लास के लिए. टीवी चैनलों पर ‘वी द पीपुल’ जैसे प्रोग्राम आते हैं, उसका क्या मतलब होता है! इसका मतलब होता है - हम, देश की एलीट जनता जो देश की सत्ता पर काबिज हैं. आप गौर करें तो ऐसे प्रोग्राम में कुल 10, 20 या 25 मध्यमवर्गीय लोग होते हैं. वे ही अपनी बातें करते हैं, अपनी समस्याओं को रखते हैं. जिसे मान लिया जाता है कि यही देश है, यही देश की समस्या है और यही ये लोग हैं, जो इसका समाधान दे सकते हैं. लेकिन हकीकत वह नहीं है. हकीकत यह है कि हमारे देश के रूलिंग एलीट ने अपने आप को व्यापक समाज से पूरी तरह काटकर अपनी अलग दुनिया बसा ली हैउनका दुनिया भर के सभी एलीटों से वास्ता है, बस अपने देश और समाज के लोगों से उनका कोई लेना-देना नहीं है. इसलिए यह स्वाभाविक है कि जब देश के मीडिया हाउस कॉरपोरेट से संचालित होते हैं, तो उनके एजेंडे में कभी भी आम जनता या आम जनता का हित नहीं रहेगा.
भारतीय मीडिया और अमेरिकी मीडिया में कोई समानता नजर आती है आपको?
गुणात्मक रूप से नहीं. इराक युद्ध से पहले न्यूयार्क टाइम्स के रिपोर्टर ने लगातार खोजी खबर लिखी कि इराक के पास आणविक और रासायनिक हथियार हैं. इसी को आधार बनाकर अमेरिका ने इराक पर हमला कर दिया. जबकि इराक बार-बार यह कह रहा था कि हमारे पास किसी प्रकार का कोई आणविक हथियार नहीं है. फिर भी इराक को तहस-नहस कर दिया गया. हांलाकि उस समय में भी लोगों को इस बात की जानकारी थी कि इराक पर हमले की वजह उसके पास परमाणु हथियार होना नहीं है. जब इराक को पूरी तरह बर्बाद कर दिया गया, उसके लगभग छह साल बाद न्यूयार्क टाइम्स ने एक जगह भीतर के पेज पर बहुत छोटी-सी जगह में यह कहते हुए पाठकों से माफी मांगी कि हमने जो इराक के पास आणविक हथियार होने की खबर छापी थी, वह दुर्भाग्य से गलत थी क्योंकि बाद में छानबीन से साबित हो गया है कि इराक के पास कोई हथियार मौजूद नहीं था. लेकिन उस माफीनामे को जब अपनी किताब में प्रसिद्ध डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकर माइकल मूर ने इस्तेमाल करने की इजाजत न्यूयार्क टाइम्स से मांगी तो अखबार ने यह कहकर इजाजत नहीं दी कि यह अमेरिकी कॉपीराइट का उल्लघंन माना जाएगा. संयोग से हमारे देश का मीडिया इतना ताकतवर नहीं हो पाया है अभी तक. हां, सरकार जब चाहती है, मनमर्जी कर लेती है क्योंकि उसे अभी भी किसी झूठ का सहारा लेकर कार्यवाही करने की जरूरत नहीं पड़ी है.
हाशिए (मार्जिर्ननलाइज्ड) के लोगों के प्रति मीडिया का रुख कैसा है और क्यों? उदाहरण के लिए देश की राजधानी में वामपंथी दलों द्वारा कितनी बड़ी रैली क्यों न हो जाए, मीडिया उसे ब्लैकै आउट कर देता है जबकि बीजेपी और कॉँग्रेस पार्टी की छोटी - मोटी रैली लगभग सभी अखबारों में प्रमुखता से छपती है, आपका क्या कहना है?
गरीबों को या देश की आबादी के बड़े हिस्से को मीडिया में स्थान दिए जाने की बात करने का मतलब तो कॉरपोरेट हाउस में हिस्सेदारी मांगने की बात हुई. आप उन कॉरपोरेट मीडिया में अपनी हिस्सेदारी कैसे मांग सकते हैं, जो आपका है ही नहीं! यह तो हम जानते हैं कि मीडिया कॉरपोरेट घराने द्वारा संचालित है, जिसका एक काम मुनाफा कमाना है. फिर उसमें वे उन लोगों को क्यों जगह दें, जो उनके किसी काम के नहीं है. इसलिए अलग तरह का विकल्प खोजना पड़ेगा.
तो क्या मार्जिन के लोगों को मेनस्ट्रीम मीडिया का लोभ छोड़कर विकल्प के बारे में सोचना शुरू कर देना चाहिए?
जिसे हम मार्जिनलाइज्ड कहते हैं, वो देश की आबादी का 80 फीसदी से ज्यादा हिस्सा है. जिनकी बात मीडिया में होती है, उनकी तादाद 20 फीसदी है. अब इसे दूसरे शब्दों में कहें तो मार्जिनलाइज्ड तो वे हैं, जिन्हें मीडिया में सबसे ज्यादा अहमियत मिलती है. इसलिए यह प्रश्न उचित नहीं है क्योंकि बहुसंख्यक जनता मार्जिनलाइज्ड नहीं हो सकती है. हां, हम यह कह सकते हैं कि उनके पास लाउडस्पीकर है, जो अपनी बात जोर-शोर से दूसरों तक पहुंचा देते हैं. लेकिन मैं नहीं मानती हूं कि अलग विकल्प मौजूद नहीं है. आप उड़ीसा जाइए, छत्तीसगढ़ जाइए, झारखंड जाइए, लोगों को जानकारी मिल जाती है और पांच हजार, सात हजार लोगों की मीटिंग हो जाती है या फिर इतने ही लोग जमा हो जाते हैं. यह जानकारी किसी मुख्यधारा के अखबार में खबर छापे बगैर मिल जाती है. फिर भी मेरा मानना है कि सिर्फ लाउडस्पीकर हाथ लग जाने से हमारा काम नहीं बनेगा. हमें एक अलग तरह की रणनीति बनानी होगी.
क्या मीडिया के मामले में सेल्फ रेगुलेशन मौजूदा सिस्टम काम कर रहा है?
हमारे यहां प्रेस कौंसिल जैसी संस्थाएं तो बहुत पहले से हैं, लेकिन पेड न्यूज पर उसका क्या पोजिशन रहा है? सबको पता है कि वर्षों से नेता और कारपोरेट घराना पेड न्यूड का प्रयोग कर रहे हैं, लेकिन प्रेस कौंसिल ने इस पर कोई कदम नहीं उठाए, उन अखबारों पर कोई कार्यवाही नहीं की, जो लगातार पेड न्यूड छापते रहे हैं. अगर हम मानते हैं कि सरकार इस पर कोई कार्यवाही करेगी तो अपने को धोखे में रखने की बात हुई. आखिर सरकार क्यों इस पर कोई कार्यवाही करेगी. आखिर इसी लोकतंत्र को चलाने में मीडिया का रोल तो अहम जो जाता है! नेताओं, कारपोरेट हाउसेज और नौकरशाहों के पास पैसे हैं, इसलिए तो पेड न्यूज चल रहा है. पेड न्यूज के इस खेल में कौन शामिल नहीं है. राडिया टेप में जर्नलिस्टों के नाम आने से क्या आपको आश्चर्य हुआ है मुझे तो आश्चर्य इस बात से हुआ कि लोगों को इससे आश्चर्य हो रहा है कि राडिया टेप में जर्नलिस्ट भी थे. क्या जर्नलिस्ट इस समाज के हिस्सा नहीं हैं? हांलाकि मैं मानती हूं कि जर्नलिस्ट में भी सभी तरह के लोग होते हैं. कुछ शरीफ हैं तो कुछ बदमाश हैं. लेकिन राडिया टेप में जर्नलिस्टों का होना तो इस बात का प्रमाण है कि वे भी इसी सिस्टम के पार्ट हैं. आज राडिया टेप को लेकर इतनी हाय-तौबा हो रही है, लेकिन हम ऐसा क्यों नहीं सोचते हैं कि जब पहला, दूसरा और तीसरा स्तंभ ही हिल गया है तो चौथे स्तंभ को इतने सेक्रोसेंट की तरह देखने की कोशिश क्यों हो रही है?
नीरा राडिया टेप में कई बड़े पत्रकारों का नाम आया है, इसका आपके लिए कोई खास मतलब है क्या!
देखो, राडिया टेप में कई पत्रकारों के नाम आए हैं लेकिन हम इसको क्यों भूल जा रहे हैं कि आज इसकी बात चारों तरफ सुनाई दे रही है तो इसमें भी पत्रकारों का ही रोल है. इसलिए मैं कहती हूं कि हर प्रोफेशन की तरह इसमें भी भले और बदमाश लोग हैं. लेकिन मेरा यह कहना है कि जिसे आप लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कह रहे हैं वास्तव में कॉरपोरेट डोमिनेटेड लोकतंत्र का चौथा खंभा है, जहां उनकी सुविधानुसार आपको जगह मिलेगी.
लेकिन इससे बाहर कैसै निकला जाए, उपाय क्या है?
मैं चाहती हूं कि मीडिया हाउसेज को भी राइट टू इनफॉर्मेशन (आरटीआई) के दायरे में लाना चाहिए. इसमें टीवी से लेकर अखबार सभी शामिल हैं. मान लो कि कोई अखबार है या फिर कोई टीवी चैनल है, अगर आरटीआई के द्वारा हमें सूचना मिल जाती है कि फलाने अखबार को इस महीने में कितना पैसा किस कारपोरेट हाउसेज ने दिया, मेरे कहने का मतलब घूस से नहीं बल्कि विज्ञापन से है, कितना पैसा सरकारी विज्ञापन से आया और कितना पैसा पेड न्यूज से आया और कितना अखबार बेचकर आया तो कम से कम हम समझ तो जाएंगे न कि हमारी खबर इसलिए नहीं छपी, क्योंकि हमने उसे पैसे नहीं दिए थे!
न्यू मीडिया जैसै इंटरनेट, ब्लॉग आदि से आपको कितनी उम्मीद है?
इंटरनेट, ब्लॉग तो अभी ठीक लगता है लेकिन मुझे डर लगता है कि कि क्या ये आर्थिक दबाव झेल पाएगा. क्योंकि मेरी जो जानकारी है, वह काफी चौंकानेवाली है. जम्मू-कश्मीर में पिछले दिनों जो हो रहा था और दिल्ली या बाहर जो सरकारी तंत्र द्वारा सूचनाएं दी जा रही थीं, उसे इंटरनेट, यूट्यूब और ब्लॉग ने एक्सपोज कर दिया. डेली सरकारी सच से इतर एक दूसरी कहानी इसके द्वारा दी जा रही थी. सरकार इससे परेशान हो गई और इंटरनेट और ब्लॉग पर भयानक सख्ती लागू कर दी गई है. जो लोग सरकारी सूचना के खिलाफ सही सूचना दे रहे थे उन पर कार्रवाई शुरू हो गई है. अभी तो लगता है कि चलो कुछ हो रहा है लेकिन मुझे डर इस बात का है कि सरकारी और कॉरपोरेट दबाव इसे बहुत जल्द अपने कब्जे में ले लेगा. फिर दूसरी बात ये भी है कि हमारे देश में इंटरनेट की सुविधा कितने लोगों के पास है. जब 78 फीसदी जनता 20 रुपए पर जीवन बसर कर रही है तो इंटरनेट के लिए कम से कम 20 हजार रुपए की पूंजी और बिजली की सुविधा कहां से वह जुगाड़ पाएगी, लेकिन जब तक सरकार और कॉरपोरेट घराने का दवाब नहीं है तब तक तो इसे अच्छा ही कहा जा सकता है.
मौजूदा मीडिया का विकल्प क्या है?
पता नहीं, लेकिन इतना तो तय है कि कॉरपोरेट मीडिया में जनता कहीं नहीं है. विकल्प एक दिन में तैयार नहीं होता है इसके लिए बहुत कुछ करना होता है. मुझे लगता है कि लाइक मांइडेड लोगों को बैठकर कोऑपरेटिव बनाकर कुछ काम करना चाहिए. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम वैकल्पिक मीडिया बनाना चाह रहे हैं इसलिए काम कॉरपोरेट मीडिया की तर्ज पर नहीं होगा और न ही तनख्वाह उसके जैसी होगी. हमें इसका भी ध्यान रखना होगा कि वैकल्पिक मीडिया बनाने के पीछे उद्देश्य क्या था, क्योंकि कई बार आगे चलके हम भूल जाते हैं कि हमने विकल्प की तलाश शुरू क्यों की थी! (कथादेश से साभार)