यह इंटरव्यू जनसत्ता में 15 जून, 1997 को छपा था। एसपी सिंह उस समय आज तक कार्यक्रम के संपादक थे। आशुतोष उस वक्त आज तक में रिपोर्टर थे। अब आशुतोष IBN7 के संपादक हैं। इस घटना के खिलाफ प्रदर्शन में एसपी सिंह शामिल हुए थे। लेकिन जल्द ही वे इस आंदोलन से हट गए। पढ़े उनके इंटरव्यू के अंश। इंटरव्यू अजित राय ने लिया था। उत्तर प्रदेश की घटनाओं के संदर्भ में इस इंटरव्यू को याद करने के लिए पसमांदा फ्रंट के चेयरमैन और पत्रकार यूसुफ अंसारी का धन्यवाद।
सवालः मीडिया में वर्चस्व की संस्कृति को लेकर कुछ राजनेताओं ने अच्छा खासा विवाद खड़ा कर दिया है। कांशीराम द्वारा पत्रकारों की पिटाई का मामला ताजा उदाहरण है। आपने इससे अपने आपको अलग क्यों कर लिया?
एसपी का जवाबः उसमें जातिवादी ओवरटोन ज्यादा था। इसलिए मैं अलग हो गया। यदि आप इस पेशे में आए हैं, तो इसकी पेशागत परेशानियों का सामना करें। वरना कोई अतिसुरक्षित पेशा चुन लें। कल्पना कीजिए यही काम किसी सवर्ण ने किया होता तो क्या ऐसा ही विरोध होता? सवर्ण पत्रकारों ने इस घटना को दलित नेता को जलील करने के एक अवसर के रूप में इस्तेमाल किया। मीडिया में प्रच्छन्न सवर्ण जातिवादी वर्चस्व है। उत्तर भारत में तो अधिकतर अखबारों में सांप्रदायिक शक्तियां ही हावी हैं। पिछड़ों को सबक सिखाने का भाव आज भी ज्यादातर महान किस्म के पत्रकारों की प्रेरणा बना हुआ है। ये वर्चस्व चूंकि समस्त भारतीय समाज में है, इसलिए मीडिया में भी है।
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