इस बेचारे को क्या पता की अब हमारा देश दुनीया की दूसरी तेजी से बढती अर्थव्यवस्था है.....उसे तो अभी भी दो वक्त की जुगाड में पूरी उम्र निकल जाती है सोजन्य से Singh Umrao Jatav देश के ४०% उन लोगों के सम्मान में जिन्हें दो वक़्त भर पेट रोटी भी नहीं मिलती और ये देश उनके भूखे -सूखे शरीरों को अनदेखा करके करोडो वारता है उन क्रिकेटरों पर जो पहले से ही करोडपती और अरबपति हैं बेशर्मी के नंगे नाच का आयोजन कर के. मेरी कविता " बाज़ार की मानिंद सजी दुनियाँ में इस देश का गरीब मजदूर " झिझकते कदमों तले उसके हर इक ओर एक बाज़ार बिछा है/ लेकिन उदास उदास जेब में बेहाल पड़ी रेजगारी बाहर आने में घबराती है कीमतों के बुखार को सीढ़ियाँ चढ़ते देख/ सहमा सहमा हाथ पोंछता है पसीना माथे पर रिक्शा का हैंडल छोड़ कर/ फावड़े कुदाल को धरती पर टिका कर, सुबह से मजदूरी में खट रही धनिया सिर्फ दस रुपया के नकली हार का सपना टूटने पर ध्वस्त हो जाती है डी-बीयर हीरों के जेवरों के इश्तेहार के नीचे/ डिज़ाइनर ब्लाउज़ और साड़ियों से सजा शोरूम चौंधियाता है उस की मुरझायी आँखों को/ धनिया की आँखों में सूख गए उम्मीद के दरिया को आहत कर सर्र्र से गुजर जाती हैं वातानुकूलित कारें/ और उन में भीतर पसरे भरे पेट लोगों की आकृतियाँ गहनों से लदी साड़ियों और सूट मे सजी राम सी नज़र आती हैं पूरी एक अयोध्या को छलती हुई/ अलंघ्य एक सीमा रेखा सी खिची है मुस्कुराते गांधी के चित्र सजे नोटों और जरूरत के बीच/ न जाने क्यों विद्रूप सी दिखती है इस बूढ़े गांधी की मुस्कान जो रिजर्व बैंक के आश्वासनों को झुठलाती देश भर को बहकाती है की समानता के अधिकार में सब के लिए कुछ न कुछ है उसके खीसे में/ लेकिन अपनी जेब में पस्त पड़ी रेजगारी को छू कर बाज़ार पार करता वह एक मज़दूर पूर्णत: आश्वस्त हो जाता है की कागज़ पर छ्पी इस गांधी की मुस्कुराहट कितनी झूठी है/ इस एक कागज़ी मुस्कान को नज़दीक से सहलाने के लिए दिन मे अट्ठारह घंटे बेगारी मे खटना पड़ता है उसे और बमुश्किल जुगाड़ हो पाता है दाल के पानी का कभी कभार हरी सब्जी के पर्व का आधा पेट खा कर उठ जाने की विवशता का/ अपनी मेहरारू की याचना भरी आँखों से बचता हुआ और दोगुने जोश मे जुट जाता है वह और एक दिन की बेगारी में/ और उधर- वातानुकूलित कारों में गहनों के बोझ से त्रस्त किट्टी पार्टियों से बोर हो कर निकल पड़ती है एक भीड़ ज़ेवरों से, कपड़ों से कारों से, हारों से संपन्नता के उपहारों से ऊब कर दौलत से अटे पड़े बाज़ारों में एक और दिन की खरीददारी करने/ कागज़ पर छ्पी इस गांधी की मुस्कान कुछ न कुछ रोज़ बांटती है इन धनकुबेरों के लिए रिजर्व बैंक और अपने आश्वासन पूरे करती/ बस देश के गरीब के लिए ही कुछ नहीं है इस निरंतर मुस्कुराते कृतघ्न बूढ़े के पास/ |
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